Krishna Sobti
Mitro Marjani (Typographic)
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Krishna Sobti
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आलोचकों द्वारा पिछली सदी के दस महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में शुमार ‘मित्रो मरजानी’ ने सर्जना के रचनात्मक पाठ की लेखकीय सीमाओं को उलाँघकर मित्रो जैसा एक ऐसा धड़कता पात्र हमें दिया है जो लेखक से अलग और आगे नितान्त अपने होने के बलबूते पर पाठकों और दर्शकों की महापंचायत में दशकों से बना हुआ है। मान लेना होगा कि इस रचना की बुनत में कुछ ऐसा ज़रूर घटित हुआ है जो सर्वसाधारण के चैतन्य में कुछ जगाता है। अपने शब्दों से, अपनी भाषा से कुछ ऐसा कहता है जो नया भी है और पुराना भी। पारिवारिक जीवन का ढका-छिपा नेपथ्य और उसके संवेदन का द्रष्टव्य मित्रो की उपस्थिति के साथ-साथ उसके संवाद की नकोर भाषा में मुखर होता है। गृहस्थ की देहरी पर टिकी स्त्री की पारम्परिक छवि आदिम उत्तेजनाओं से निजात पाने को व्याकुल दीखती है, पर छटपटाहट में ही अपने वजूद में उसे भी खोज रही है जिसे ‘अपने’ में अपना व्यक्तित्व कहते हैं।
प्रसिद्ध ग्राफ़िक कलाकार-चित्रकार नरेन्द्र श्रीवास्तव ने इस पात्र से प्रभावित हो ‘मित्रो मरजानी’ उपन्यास के मूलपाठ को चित्रात्मक वर्णमाला/लिपि में आबद्ध करने का निर्णय लिया और बरसों के परिश्रम से उपन्यास में अंकित मानवीय व्यवहार के विविध मुखड़ों को जिस ध्वनि-चित्रात्मक कौशल और स्फुरण से प्रस्तुत किया है, वह पाठक को उपन्यास की रेखाओं की त्वरित और ऊर्जावान सचित्र लिपि में भारतीय परिवार को पढ़ने और देखने का नया अनुभव देगा।
भारत में किसी पुस्तक की टाइपोग्राफ़िक प्रस्तुति का यह पहला प्रयास है, जो बेशक हिन्दी समाज के पाठकीय अहसास में भी कुछ अभिनव जोड़ेगा।
Mitro Marjani (Typographic)
Krishna Sobti
Sobti-Vaid Samvad : Lekhan Aur Lekhak
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Krishna Sobti +1
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एक दिन दो बड़े मिल बैठे और बातें चल निकलीं—गुज़रे हुए ज़माने की, अगले ज़मानों की। वर्तमान तो बेशक हर पहलू से उन बातों में शामिल रहा। बातों का सिलसिला दशकों के आर-पार फैलता रहा—अपने समय को सीधे पढ़ने, समझने और लगातार ढीठ होते हुए युग की बग़ैरत निर्लज्ज आँखों में आँखें डालकर देखते रहने के संकल्प के साथ।
हमारे दो महत्त्वपूर्ण लेखक, कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद। शिमला के राष्ट्रपति निवास का उर्वर वातावरण और दशकों का सहेजा, रचा और निभाया हुआ बौद्धिक उत्तेजन और रचनात्मक ताप—‘सोबती-वैद संवाद’ इन्हीं तत्त्वों के संयोग और संयोजन का परिणाम है।
इस संवाद में से गुज़रते हुए हम अपने देखे हुए वक़्त को अपने दो विशिष्ट रचनाकारों की नज़र से एक बार फिर देखते हैं और आज के नेपथ्य की आहटें सुनने लगते हैं। इस अनौपचारिक बातचीत में आप दो अलग-अलग वैचारिक मुखड़ों को पहचानते हैं, उनकी वैचारिक प्रक्रिया को और रचनात्मक पाठ की गहराइयों को भी।
इन दो क़लमों की अपनी-अपनी धड़कनें भी सुनी जा सकती हैं—जिनसे ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘दिलो-दानिश’, ‘उसका बचपन’, ‘गुज़रा हुआ ज़माना’, ‘हम हशमत’, ‘ऐ लड़की’, ‘विमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ’ और ‘काला कोलाज’ जैसी क्लासिक हो चली कृतियाँ कैसे और कब रची गईं, कौन-सी बेचैनी किस किताब के पन्नों पर साकार हुई, कैसे और किस ब्रान्ड का काग़ज़ और किस नाम का पेन था जो सृजनात्मक घटित का साक्षी रहा—यह सभी कुछ इस संवाद में उजागर होता है।
और उजागर होता है वह पूरा युग भी जिसमें बँटवारा हुआ, आज़ादी मिली, गांधी की हत्या हुई, देश की बहाली के नए स्वप्न शुरू हुए, नई विचारधाराओं ने नए हौसले दिए, उत्तर-आधुनिकता ने क़िस्म-क़िस्म के अन्त घोषित किए, और आख़िर में भूमंडलीकरण ने सब कुछ को झंझोड़ डाला। यह सब इस संवाद का हिस्सा है। और इसीलिए हर अपूर्व मुलाक़ात की तरह अधूरी होते हुए भी, यह अनूठी किताब हमें एक मुकम्मल पाठकीय स्मृति देकर ख़त्म होती है।
Sobti-Vaid Samvad : Lekhan Aur Lekhak
Krishna Sobti
Buddh ka Kamandal Laddakh
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Krishna Sobti
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हिमालय हमारे देश के भूगोल और इतिहास का महानायक है। हिमालय देश की चारों दिशाओं में फैले भारतीय जनमानस का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्रोत है। शिखरों पर स्थित हमारे तीर्थों का पवित्र प्रतीक है। भारतीय मन को उद्वेलित करती कलात्मक अभिव्यक्तियाँ इसी महान उद्गम से निकली नदियों के साथ-साथ प्रवाहित होती रही हैं। भारत-भूमि से उदित हो विश्व-भर के नागरिकों को शान्ति का परम सन्देश देती रही हैं। हिमालय की ऊँचाइयों में स्थित लद्दाख़ दूसरे पर्वतीय स्थानों से एकदम अलग है। ऊपर निर्मल नीला आकाश, श्वेत फेनिल बादलों से सजा और नीचे पीले, रेतीले, मटमैले में स्लेटी ऊँचे बर्फ़ीले शिखरों को लुभाती ग्रे, काली, ताम्बई और दालचीनी रंग की चट्टानें। कुदरत के कठोर वैभव का अनूठा लैंडस्केप।
लद्दाख़ की जीती-जागती छवियों से सजी इस किताब में कृष्णा सोबती ने वहाँ बिताए अपने कुछ दिनों की यादें ताज़ा की हैं और उन अनुभूतियों को फिर से अंकित किया है जिन्हें विश्व के इसी भू-भाग से अनुभव और अर्जित किया जा सकता है। लद्दाख़ को कई नामों से जाना जाता है जिनमें एक नाम ‘बुद्ध का कमण्डल’ भी है। बुद्ध के कमण्डल, लद्दाख़ में उदय होती उषाओं, घिरती साँझों और इनके बीच फैले स्तब्धकारी सौन्दर्य के पथरीले विस्तार में टहलती, प्रसिद्ध चित्रकार सिद्दार्थ के कैमरे से लिए गए चित्रों से सजी यह किताब हमें उस जगह ले जाती है, जिसका इस धरती पर स्थित होना ही हमें चकित करता है।
Buddh ka Kamandal Laddakh
Krishna Sobti
Shabdon Ke Aalok Mein
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Krishna Sobti
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- Description: ‘शब्दों के आलोक में’ एक पुरानी जन्म तारीख़ के नए-पुराने मुखड़ों और कार्यकारी उभरते पाठ के रचनात्मक टुकड़ों की बंदिश है जिसे एक जिल्द में सँजोया गया है। पाठ न नएपन से आक्रान्त है और न पुरानेपन से आतंकित। जीने का एक ऐसा मौसम इसके आर-पार फैला है जो न लेखक की कार्य-क्षमताओं पर हावी है और न साहित्यिक मुखौटों से भयभीत। ट्रैक पर दौड़ते हुए न किसी को पछाड़ने की हसरत और न किसी से पिछड़ने का डर।
Shabdon Ke Aalok Mein
Krishna Sobti
Hum Hashmat : Vol. 3
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Krishna Sobti
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‘हम हशमत’ हमारे समकालीन जीवन-फलक पर एक लम्बे आख्यान का प्रतिबिम्ब है। इसमें हर चित्र घटना है और हर चेहरा कथानायक। ‘हशमत’ की जीवन्तता और भाषायी चित्रात्मकता उन्हें कालजयी मुखड़े के स्थापत्य में स्थित कर देती है।
प्रस्तुत है ‘हम हशमत’ का तीसरा खंड। समकालीनों के संस्मरणों के बहाने, इस शती पर फैला हिन्दी साहित्य समाज, यहाँ अपने वैचारिक और रचनात्मक विमर्श के साथ उजागर है।
हिन्दी के सुधी पाठकों और आलोचकों ने ‘हम हशमत’ को संस्मरण विधा में मील का पत्थर माना था; ‘हम हशमत’ की विशेषता है तटस्थता। कृष्णा सोबती के भीतर पुख़्तगी से जमे ‘हशमत’ की सोच और उसके तेवर विलक्षण रूप से एक साथ दिलचस्प और गम्भीर हैं। नज़रिया ऐसा कि एक समय को साथ-साथ जीने के रिश्ते को निकटता से देखे और परिचय की दूरी को पाठ की बुनत और बनावट में जज़्ब कर ले। ‘हशमत’ की औपचारिक निगाह में दोस्तों के लिए आदर है, जिज्ञासा है, जासूसी नहीं। यही निष्पक्षता नए-पुराने परिचय को घनत्व और लचक देती है और पाठ में साहित्यिक निकटता की दूरी को भी बरकरार रखती
है।अपनी ही आत्मविश्वासी आक्रामकता की रौ और अभ्यास में पुरुष-सत्ता द्वारा बनाए असहिष्णु साहित्य-समाज में एक पुरुष का अनुशासनीय बाना धरकर कृष्णा जी ने ‘हशमत’ की निगाह को वह ताक़त दी है जिसे सिर्फ़ पुरुष रहकर कोई मात्र पुरुष-अनुभव से सम्भव नहीं कर सकता, न ही कोई स्त्री, स्त्री की सीमाओं को फलाँगे बग़ैर साहित्य समाज की इस मानवीय गहनता को छू सकती है। ऐसा पाठ साहित्य और कलाओं में अर्द्धनारीश्वर की रचनात्मक सम्भावनाओं की ओर इंगित करता है।
‘हशमत’ के इस तीसरे खंड में शामिल हैं—सत्येन कुमार, जयदेव, निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी, देवेन्द्र इस्सर, निर्मला जैन, विभूतिनारायण राय, रवीन्द्र कालिया, शम्भुनाथ, गिरधर राठी, आलोक मेहता और विष्णु खरे।
‘हम हशमत’ कृष्णा सोबती की क़लम की वह तुर्श और तीखी भंगिमा है, जो समय के पेचोख़म में सिर छुपाए बैठे मामूलीपन की आँख में सीधी जाकर लगती है।
Hum Hashmat : Vol. 3
Krishna Sobti
Sobti Ek Sohbat
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Krishna Sobti
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हिन्दी साहित्य के समकालीन परिदृश्य पर कृष्णा सोबती एक विशिष्ट रचनाकार के रूप में समादृत हैं। यह कृति उनके बहुचर्चित कथा-साहित्य, संस्मरणों, रेखाचित्रों, साक्षात्कारों और कविताओं से एक चयन है। उनके कुछ विचारोत्तेजक निबन्धों को भी इसमें रखा गया है। इसके साथ ही ‘ज़िन्दगीनामा-2’ से कुछ महत्त्वपूर्ण अंश भी इसमें शामिल हैं, जिसे वे अभी लिख रही हैं।
उल्लेखनीय है कि अपनी विभिन्न कथाकृतियों के माध्यम से कृष्णा सोबती ने संस्कृति, संवेदना और भाषा-शिल्प की दृष्टि से हिन्दी साहित्य को एक नई व्यापकता प्रदान की है। इस सन्दर्भ में उनकी इस मान्यता से सहमत हुआ जा सकता है कि हिन्दी अगर किसी प्रदेश-विशेष या धर्म-वर्ग की भाषा नहीं है तो उसे अपने संस्कार को व्यापक बनाना होगा। वस्तुत: उन्होंने बने-बनाए साँचे, चौखटे और चौहद्दियाँ हर स्तर पर अस्वीकार की हैं तथा रचना के साथ-साथ स्वयं भी एक नया जन्म लिया है। उनके लिए रचनाकार की ही तरह रचना भी एक जीवित सच्चाई है; उसकी भी एक स्वायत्तता है। उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘रचना न बाहर की प्रेरणा से उपजती है, न केवल रचनाकार के मानसिक दबाव और तनाव से। रचना और रचनाकार—दोनों अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता में एक-दूसरे का अतिक्रमण करते हैं और एक हो जाते हैं। इसी के साथ लेखक पर रचना की शर्तें लागू हो जाती हैं और रचना पर लेखकीय संयम और अनुशासन।’
कहना न होगा कि यह एक ऐसी कृति है जो न सिर्फ़ एक लेखक की बहुआयामी रचनाशीलता को समझने का अवसर जुटाती है, बल्कि समकालीन रचनात्मकता से जुड़े अनेक सवालों को भी हमारी चिन्ताओं में शामिल करती है।
Sobti Ek Sohbat
Krishna Sobti
Muktibodh : Ek Vyaktitwa Sahi Ki Talash Main
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Krishna Sobti
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हिन्दी कविता की शीर्षक लेखनी—मुक्तिबोध। आत्मसमीक्षा और जगत-विवेचन के निष्ठुर प्रस्तावक।
उन्होंने एक दुर्गम पथ की ओर संकेत किया, जिससे होकर हमें अनुभव और अभिव्यक्ति की सम्पूर्णता तक जाना था; क्या हम जा सके?
हिन्दी की वरिष्ठतम उपस्थिति कृष्णा सोबती, जिनकी आँखों ने लगभग एक सदी का इतिहास साक्षात् देखा; और जो आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में आसपास फैले समय से उतनी ही व्यथित हैं, जितनी अपने समय और समाज में निपट अकेली, मुक्तिबोध की रूह रही होगी—मानवता विराट और सर्वसमावेशी उज्ज्वल स्वप्न के लगातार दूर होते जाने से कातर और क्रुद्ध।
यह मुक्तिबोध का एक अनौपचारिक पाठ है जिसे कृष्णा जी ने अपने गहरे संवेदित मन से किया है। भारतीय इतिहास के दो समय यहाँ रूबरू हैं।
Muktibodh : Ek Vyaktitwa Sahi Ki Talash Main
Krishna Sobti
Lekhak Ka Jantantra
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कृष्णा सोबती के लिए लेखक की पहचान एक साधारण नागरिक का बस थोड़ा-सा विशेष हो जाना है। समाज की मंथर लेकिन गहरी और शक्तिशाली धारा में अपनी क़ीमत पर पैर जमाकर खड़ा हुआ एक व्यक्ति जो जीवन को जीते हुए उसे देखने की कोशिश भी करता है। उनके अनुसार लेखक का काम अपनी अन्तरभाषा को चीन्हते और सँवारते हुए अज्ञात दूरियों को निकटताओं में ध्वनित करना है।
लेखक की इस पहचान को स्वयं उन्होंने जिस अकुंठ निष्ठा और मौन संकल्प के साथ जिया, उसके आयाम ऐतिहासिक हैं। उनका लेखक सिर्फ़ लिखता नहीं रहा, उसने अपनी सामाजिक, राजनैतिक और नागरिक ज़िम्मेदारियों का आविष्कार भी किया और लेखकीय अस्तित्व के सहज विस्तार के रूप में उन्हें स्थापित भी किया।
उन्होंने कई बार पुरस्कारों और सम्मानों को लेने से इनकार किया, क्योंकि वह उन्हें लेखक होने की हैसियत से ज़रूरी लगा। उन्होंने दशकों-दशक एक सम्पूर्ण रचना के अवतरण की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की, क्योंकि लेखक होने की उनकी अपनी कसौटी बहुत ऊँची और कठोर रही। लेखक के रूप में अपने युवा दिनों में ही उन्होंने अपने पहले और बड़े उपन्यास को एक प्रतिष्ठित प्रकाशक से छपाई के बीच में ही इसलिए वापस ले लिया कि उन्हें अपनी भाषा से खिलवाड़ स्वीकार नहीं था। उन्होंने जीवन के लगभग तीन दशक कॉपीराइट की सुरक्षा के लिए लोकप्रियता और राजनीतिक पहुँच की धनी ताक़तों से अकेले अदालती लड़ाई लड़ी।
और आज उन्हें अपने स्वास्थ्य से ज़्यादा चिन्ता इस बात की है कि सत्तर साल की आज़ादी के बाद देश फिर एक ख़तरनाक मोड़ पर है। वे रात-दिन सोचती हैं कि भेदभाव की राजनीति के चलते जैसे उन्हें 1947 में विभाजन की विभीषिका से गुज़रना पड़ा, कहीं आज की राजनीति वही समय आज के बच्चों के लिए न लौटा लाए! मौजूदा सरकार की राजनीतिक और वैचारिक संकीर्णताएँ उन्हें एक सात्त्विक क्रोध से भर देती हैं जिसमें पूरी सदी छटपटाती दिखाई पड़ती है।
इस पुस्तक में हमने उनके कुछ चुनिन्दा साक्षात्कारों को संकलित किया है जो अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग आयु और भिन्न अनुशासनों के लेखकों, पत्रकारों और विचारकों ने उनसे किए। पाठक इन्हें पढ़कर स्वयं महसूस करेगा कि साहित्य की, लेखक की और नागरिक की मुकम्मल तस्वीर कैसे बनती है।
Lekhak Ka Jantantra
Krishna Sobti
Hum Hushmat : Vol. 1
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Krishna Sobti
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‘हम हशमत’ बोलते शब्द-चित्रों की एक घूमती हुई रील है। एक विस्तृत जीवन-फलक जैसे घूमता है और सामने एक के बाद एक चित्र उभरते जाते हैं—साफ़ और जीवन्त। और, अन्त में जब पूरी रील घूम जाती है तो एक कथा अपने-आप बुन जाती है—एक लम्बी जीवन-चित्र-कथा, जिसमें हर चित्र घटना है और हर चेहरा नायक। इन चेहरों में विख्यात लेखक हैं, पत्रकार हैं और अन्य अज़ीज़ हैं जिनमें से बहुतेरे आपके परिचित हैं। पार्टियाँ और दावतें आपने भी देखी होंगी, लेकिन टैक्सी ड्राइवर और नानबाई जैसे लोगों के बारे में आप शायद न जानने का भाव दिखाएँ, जबकि वास्तव में आप इन्हें भी जान रहे होते हैं—किसी भी मोड़ पर, किसी भी समय इनसे आपकी मुलाक़ात हो जाती है। यही चेहरे हैं जिनसे ‘हशमत’ मिलते हैं और जो एक-दूसरे से अलग होकर भी परस्पर जुड़े हुए हैं तथा उसी जीवन-प्रवाह के अंग हैं जिसमें हम-आप और सारे ही लोग बह रहे हैं।
‘हशमत’ को जीवन के सही और सम्पूर्ण मूल्यों की शिनाख़्त की बेचैनी है। अन्तरंग बातचीत और अपनी तटस्थ दृष्टि के ज़रिए वे साहित्य के वास्तविक सन्दर्भों को खोजना और समाज व व्यक्ति के सत्य को उजागर करना चाहते हैं, वैचारिक गुत्थियों और व्यवस्थामूलक पेचीदगियों को सुलझाना चाहते हैं। और, अन्त में जब ‘हशमत’ अपना परिचय भी दे डालते हैं तो पाठकीय जिज्ञासा सुखद विस्मय में बदल जाती है क्योंकि ‘हशमत’ के रूप में स्वयं कृष्णा सोबती हैं जिन्होंने ‘हम हशमत’ जैसी समर्थ रचना द्वारा फिर यह सिद्ध कर दिया है कि वह एक सिद्धहस्त कथा-लेखिका के साथ-साथ सार्थक रचना-दृष्टि से सम्पन्न शब्द-चित्रकार भी हैं।
Hum Hushmat : Vol. 1
Krishna Sobti
Hum Hushmat : Vol. 2
- Author Name:
Krishna Sobti
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लगभग बीस बरसों बाद ‘हम हशमत– 2’ प्रस्तुत कर रही हैं कृष्णा सोबती। समकालीनों के संस्मरणों के बहाने, इस शती पर फैला हिन्दी साहित्य समाज, अपने वैचारिक और रचनात्मक विमर्श के साथ उजागर है।
इस शताब्दी की प्रमुख हिन्दी साहित्यिक हस्तियाँ नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, अज्ञेय, अश्क, श्रीकान्त वर्मा, नेमिचन्द्र जैन, मंटो, अरविन्द कुमार, बलवन्त सिंह, राजेन्द्र सिंह बेदी, उमाशंकर जोशी, सत्येन कुमार, मंज़ूर एहतेशाम, सौमित्र मोहन, स्वदेश दीपक, प्रयाग शुक्ल, कमलेश्वर, नासिरा शर्मा और कन्हैयालाल नंदन मात्र फ़ोटोग्राफ़ी मुखाकृति में ही नहीं, बाक़ायदा अपनी-अपनी अदबी शख़्सियत में मौजूद हैं।
‘हम हशमत’ के पहले भाग में जो लेखक-गुच्छा प्रस्तुत किया गया था उसमें थे निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, कृष्ण बलदेव वैद, अमजद भट्टी, महेन्द्र भल्ला, गोविन्द मिश्र, मनोहर श्याम जोशी, नागार्जुन, शीला संधू, नितिन सेठी, रमेश पटेरिया, सुधीर पंत, मियाँ नसीरुद्दीन और सरदार जग्गा सिंह।
हिन्दी के सुधी पाठकों और आलोचकों ने ‘हम हशमत’ को संस्मरण विधा में मील का पत्थर माना था। ‘हम हशमत’ की विशेषता है तटस्थता। कृष्णा सोबती के भीतर पुख़्तगी से जमे ‘हशमत’ की सोच और उसके तेवर विलक्षण रूप से एक साथ दिलचस्प और गम्भीर हैं। नज़रिया ऐसा कि एक समय को साथ-साथ जीने के रिश्ते को निकटता से देखे और परिचय की दूरी को पाठ की बुनत और बनावट जज़्ब कर ले। ‘हशमत’ की औपचारिक निगाह में दोस्तों के लिए आदर है, जिज्ञासा है, जासूसी नहीं। यही निष्पक्षता नए-पुराने परिचय को घनत्व और लचक देती है और पाठ में साहित्यिक निकटता की दूरी को भी बरकरार रखती है।
‘हम हशमत’ हमारे समकालीन जीवन-फलक पर एक लम्बे आख्यान का प्रतिबिम्ब है। इसमें हर चित्र घटना है और हर चेहरा कथानायक। ‘हशमत’ की जीवन्तता और भाषायी चित्रात्मकता उन्हें कालजयी मुखड़े के स्थापत्य में स्थित कर देती है।
Hum Hushmat : Vol. 2
Krishna Sobti
Hum Hushmat : Vol. 4
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Krishna Sobti
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‘हम हशमत’ का यह चौथा भाग है। कृष्णा सोबती ने ‘हशमत’ को सिर्फ़ एक उपनाम की तरह ग्रहण नहीं किया था, बल्कि वह अपने आप में एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व है। कृष्णा जी ने स्वयं कहा है कि जब वे ‘हशमत’ के रूप में लिखती हैं, तो न सिर्फ़ उनकी भाषा, और शब्द-चयन कुछ अलग हो जाते हैं, उनका हस्तलेख तक कुछ और हो जाता है। ‘हशमत’ का विषय उनके समकालीनों, साथी लेखकों के अलावा गोष्ठियों, पार्टियों में हुए अनुभव और समसामयिक मुद्दों पर उनकी प्रतिक्रियाएँ होती हैं।
‘हम हशमत’ के इस भाग में राजेन्द्र यादव और असद जैदी पर उनके आलेखों के अलावा इस समय के कुछ विवादों पर उनकी प्रतिक्रियाओं को भी लिया गया है। साहित्य, लेखक की अस्मिता, और संस्कृति से सम्बन्धित उनके कुछ पठनीय आलेख भी यहाँ हैं। देश के वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक पर्यावरण से कृष्णा जी इधर बहुत क्षुब्ध और निराश रही हैं, लोकतंत्र के भविष्य की चिन्ता उन्हें बार-बार सताती रही है। इसकी छवियाँ इस सामग्री में बार-बार सामने आएँगी। भाषा को लेकर ‘सारिका’ में प्रकाशित उनकी एक प्रतिक्रिया विशेष तौर पर पढ़ी जानी चाहिए। इसमें उन्होंने अत्यन्त स्पष्टता से बोलियों, भाषा और प्रान्तीय बोलियों के अन्तर्सम्बन्धों पर अपनी बात कही है।
Hum Hushmat : Vol. 4
Krishna Sobti
Wah Samay Yah Samay
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Krishna Sobti
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‘वह समय’—कृष्णा जी ने इस टुकड़े को यही नाम दिया था, जिसे ‘ज़िन्दगीनामा’ के दूसरे भाग का हिस्सा होना था। सम्बन्धों के सामाजिक तर्कों और नैतिक आग्रहों के ऊपर चलती दिलों की यह कहानी शाह जी और राबयाँ की है। शाह जी अपने आधे को पार कर चुके हैं और राबयाँ जवानी की सीढ़ियाँ चढ़ रही है—तुकें मिलाती है, कवित्त लिखती है, शाह जी उसके लिखे को दुरुस्त करते हैं, उसे पढ़ाते-सिखाते हैं। इसी में उम्र, मज़हब और परिवारों की हदों से ऊपर उठ दोनों कहीं जुड़ जाते हैं...और उस दिन जब कचहरी से लौटते हुए शाह जी बाढ़ में घिर जाते हैं, राबयाँ अपनी छत से उन्हें देखती है और उन्हें बचाने पानी में कूद जाती है...दोनों को ढूँढ़ लिया जाता है, लेकिन शाह जी फिर लौट नहीं पाते, चले ही जाते हैं, और राबयाँ उनके पीछे... यह कहानी इश्क़ की है, इश्क़ की रूहानियत की, ...कृष्णा सोबती की क़लम ही इसकी पवित्रता को इतने सुच्चेपन से आँक सकती थी!
इस जिल्द में मौजूद दूसरी कृति का सम्बन्ध इस समय से है—आज की दिल्ली से। रियल एस्टेट के मगरमच्छों के हत्थे चढ़े एक युवक की यह कहानी पैसे के उथले दलदल में छपछपाते उस तबक़े के बारे में बताती है, जिसके लिए सबसे पहला और सबसे आख़िरी मूल्य पैसा ही है। यह भी कि गाँवों-क़स्बों से रोटी-रोज़गार की तलाश में आए लोगों को यह दलदल कैसी सफ़ाई से अपनी गिरफ़्त में ले लेता है!
Wah Samay Yah Samay
Krishna Sobti
Do Upanyas
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Krishna Sobti
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‘वह समय’—कृष्णा जी ने इस टुकड़े को यही नाम दिया था, जिसे ‘ज़िन्दगीनामा’ के दूसरे भाग का हिस्सा होना था। सम्बन्धों के सामाजिक तर्कों और नैतिक आग्रहों के ऊपर चलती दिलों की यह कहानी शाह जी और राबयाँ की है। शाह जी अपने आधे को पार कर चुके हैं और राबयाँ जवानी की सीढ़ियाँ चढ़ रही है—तुकें मिलाती है, कवित्त लिखती है, शाह जी उसके लिखे को दुरुस्त करते हैं, उसे पढ़ाते-सिखाते हैं। इसी में उम्र, मज़हब और परिवारों की हदों से ऊपर उठ दोनों कहीं जुड़ जाते हैं...और उस दिन जब कचहरी से लौटते हुए शाह जी बाढ़ में घिर जाते हैं, राबयाँ अपनी छत से उन्हें देखती है और उन्हें बचाने पानी में कूद जाती है...दोनों को ढूँढ़ लिया जाता है, लेकिन शाह जी फिर लौट नहीं पाते, चले ही जाते हैं, और राबयाँ उनके पीछे...यह कहानी इश्क़ की है, इश्क़ की रूहानियत की,...कृष्णा सोबती की क़लम ही इसकी पवित्रता को इतने सुच्चेपन से आँक सकती थी!
इस जिल्द में मौजूद दूसरी कृति का सम्बन्ध इस समय से है—आज की दिल्ली से। रियल एस्टेट के मगरमच्छों के हत्थे चढ़े एक युवक की यह कहानी पैसे के उथले दलदल में छपछपाते उस तबके के बारे में बताती है, जिसके लिए सबसे पहला और सबसे आख़िरी मूल्य पैसा ही है। यह भी कि गाँवो-क़स्बों से रोटी-रोजगार की तलाश में आए लोगों को यह दलदल कैसी सफ़ाई से अपनी गिरफ़्त में ले लेता है!
Do Upanyas
Krishna Sobti
Rachna Ka Garbhgriha
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Krishna Sobti
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कृष्णा सोबती का हर क्षण सामान्यत: लेखक का ही क्षण होता था; लेखक होने को उन्होंने जीने की एक शैली के रूप में विकसित किया। लेकिन रचना के आत्यंतिक क्षण की अनायासता और उसके रहस्य को उन्होंने कभी भंग नहीं होने दिया। उस अनुभव की सम्पूर्णता उनके लिए एक बड़ी चीज़ थी। उस कौंध की आभा को जिससे रचना की पहली पंक्ति फूटती है, उन्होंने किसी ऐहिक उतावलेपन का शिकार नहीं होने दिया।
इसीलिए उनकी हर कृति एक घटना की तरह प्रकट हुई। साहित्य समाज के लिए भी, और ख़ुद उनके लिए भी।
इस किताब में उनकी वे टीपें ली गई हैं जो उन्होंने अपनी कुछ कृतियों की रचना-प्रक्रिया के तौर पर लिखी थीं। लेखन तथा रचनात्मकता के विषय में उनके ऐसे आलेख भी इसमें शामिल हैं, जो उनकी अपनी रचना-प्रक्रिया के साथ-साथ लेखकीय अस्मिता सम्बन्धी उनकी धारणाओं पर भी प्रकाश डालते हैं।
नई पीढ़ी के लेखकों के लिए अपनी एक महत्त्वपूर्ण पूर्वज के रचना-कक्ष की यह यात्रा नि:सन्देह उपयोगी सिद्ध होगी है।
Rachna Ka Garbhgriha
Krishna Sobti
Badlon Ke Ghere
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Krishna Sobti
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- Description: आधुनिक हिन्दी कथा-जगत में अपने संवेदनशील गद्य और अमर पात्रों के लिए जानी जानेवाली कथाकार कृष्णा सोबती की प्रारम्भिक कहानियाँ इस पुस्तक में संकलित हैं। शब्दों की आत्मा से साक्षात्कार करनेवाली कृष्णा सोबती ने अपनी रचना-यात्रा के हर पड़ाव पर किसी-न-किसी सुखद विस्मय से हिन्दी-जगत को रू-ब-रू कराया है। ये कहानियाँ कथ्य और शिल्प, दोनों दृष्टियों से कृष्णा जी के रचनात्मक वैविध्य को रेखांकित करती हैं। इनमें जीवन के विविध रंग और चेहरे अपनी जीवन्त उपस्थिति से समकालीन समाज के सच को प्रकट करते हैं। समय का सच इन कहानियों में इतनी व्यापकता के साथ अभिव्यक्त हुआ है कि आज के बदलते परिवेश में भी इनकी प्रासंगिकता बनी हुई है। अनुभव की तटस्थता और सामाजिक परिवर्तन के द्वन्द्व से उपजी ये कहानियाँ अपने समय और समाज को जिस आन्तरिकता और अन्तरंगता से रेखांकित करती हैं, वह निश्चय ही दुर्लभ है।
Badlon Ke Ghere
Krishna Sobti
Tin Pahar
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Krishna Sobti
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Book Type:

- Description: ‘साँझ की उदास-उदास बाँहें अँधिआरे से आ लिपटीं। मोहभरी अलसाई आँखें झुक-झुक आईं और हरियाली के बिखरे आँचल में पत्थरों के पहाड़ उभर आए। चौंककर तपन ने बाहर झाँका। परछाई का सा सूना स्टेशन, दूर जातीं रेल की पटरियाँ और सिर डाले पेड़ों के उदास साए। पीली पाटी पर काले अक्खर चमके ‘तिन-पहाड़,’ और झटका खा गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आ रुकी।’ इन्हीं वाक्यों के साथ नियति की यह कथा खुलती है। जया, तपन, श्री, एडना जिसके अलग-अलग छोर हैं। झील के अलग-अलग किनारे जिस तरह उसके पानी से जुड़े रहते हैं, उसी तरह आकांक्षा के भाव में एक साथ बँधे। आकांक्षा सुख की, चाह की, प्रेम की। ‘दार्जिलिंग के नीले निथरे आकाश,’ लाल छतों की थिगलियों, ‘पहरुओं से खड़े राजबाड़ी के ऊँचे पेड़ों,’ चक्करदार ‘सँकरी घुमावोंवाली चढ़ाइयों-उतराइयों,’ ‘हवाघर की बेंचों,‘ और गहरे उदास अँधेरों के बीच घूमती यह कथा जिन्दगी के अँधेरों-उजालों के बारे में तो बताती ही है, एक भीने यात्रा-वृत्तान्त का भी अहसास जगाती है। लेकिन इस उदास ‘नोट’ के साथ - ‘जिसकी साड़ी का टुकड़ा भर ही बच सका, वह इन सबकी क्या होती होगी...क्या होती होगी।’
Tin Pahar
Krishna Sobti
Surajmukhi Andhere Ke
- Author Name:
Krishna Sobti
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Book Type:

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रेशम की-सी नरम ठंडी मगर उष्म शैली में प्रस्तुत इस उपन्यास में एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसके फटे बचपन ने उसके सहज भोलेपन को असमय चाक कर दिया और उसके तन-मन के गिर्द दुश्मनी की कँटीली बाड़ खींच दी।
अन्दर और बाहर की दोहरी दुश्मनी में जकड़ी रत्ती की लड़ाई मानवीय-मन की नितान्त उलझी हुई चाहत और जीवन-भरे संघर्ष की दस्तावेज़ है।
‘मित्रो मरजानी‘, ‘डार से बिछुड़ी’ और ‘यारों के यार’ से अलग और आगे इस उपन्यास में कृष्णा सोबती ने गहन संवेदना के स्तर पर कलाकार की तीसरी आँख से पर्त-दर-पर्त तन-मन की साँवली प्यास को उकेरा है।
आधुनिक भाव-बोध की पीठिका पर मनोविज्ञान की गूढ़तम पहेलियों को सादगी से आँक कर सोबती ने एक ऐसे वयस्क माध्यम और शिल्प की स्थापना की है जो एक साथ परम्परागत शिल्प और मूल्यों को चुनौती है।
आदर्शों की भव्यता से अलग हटकर ‘सूरजमुखी अँधेरे के’ यथार्थ और सत्य के निरूपण की वह असाधारण सत्य-कथा है जिसका सत्य कभी मरता नहीं।
Surajmukhi Andhere Ke
Krishna Sobti
Marfat Dilli
- Author Name:
Krishna Sobti
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दिल्ली से कृष्णा सोबती का रिश्ता बचपन से है। आज़ादी से पूर्व उनका वेतनभोगी परिवार साल के छह माह शिमला और छह माह दिल्ली में निवास करता था। अपने किशोर दिनों में वे दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में हॉकी खेलती रही हैं। बँटवारे के बाद लाहौर से आकर वे स्थायी तौर पर दिल्ली की हो गईं। दिल्ली का नागरिक होने पर उन्हें गर्व भी है और इस शहर से प्रेम भी। यहाँ के इतिहास और भूगोल को वे बहुत गहरे से जानती रही हैं। दिल्ली के तीन सौ से ज़्यादा गाँवों को और उनके बदलने की प्रक्रिया को उन्होंने पारिवारिक भाव से देखा है। हर गाँव को उन्होंने पैदल घूमा है।
‘मार्फ़त दिल्ली’ में उन्होंने आज़ादी बाद के समय की कुछ सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक छवियों को अंकित किया है। यह वह समय था जब ब्रिटिश सरकार के पराए अनुशासन से निकलकर दिल्ली अपनी औपनिवेशिक आदतों और देसी जीवन-शैली के बीच कुछ नया गढ़ रही थी। सड़कों पर शरणार्थियों की चोट खाई टोलियाँ अपने लिए छत और रोज़ी-रोटी तलाशती घूमती थीं। और देश की नई-नई सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों से दो-चार हो रही थी।
उस विराट परिदृश्य में साहित्य समाज भी नई आँखों से देश और दुनिया को देख रहा था। लेखकों-कवियों की एक नई पीढ़ी उभर रही थी। लोग मिलते थे। बैठते थे। बहस करते थे और अपने रचनात्मक दायित्वों को ताज़ा बनाए रखते थे। बैठने-बतियाने की जगहें, काफी हाउस और रेस्तराँ साथियों की-सी भूमिका निभाते थे। मंडी हाउस और कनाट प्लेस नए विचारों और विचारधाराओं की ऊष्मा का प्रसार करते थे।
कृष्णा जी ने उस पूरे समय को सघन नागरिक भाव से जिया। भारतीय इतिहास की कुछ निर्णायक घटनाओं को उन्होंने उनके बीच खड़े होकर देखा। आज़ादी के पहले उत्सव का उल्लास और उसमें तैरती विभाजन की सिसकियों को उन्होंने छूकर महसूस किया। बापू की अन्तिम यात्रा में लाखों आँखों की नमी से वे भीगीं। दिल्ली में हिन्दी को एक बड़ी भाषा के रूप में उभरते हुए भी देखा। इन पन्नों में उन्होंने उस दौर की कुछ यादों को ताज़ा किया है।
Marfat Dilli
Krishna Sobti
Gujrat Pakistan Se Gujrat Hindustan
- Author Name:
Krishna Sobti
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रक्तरंजित इतिहास के उस हिंस्र और क्रूर अध्याय को क्यों तो याद करें और कैसे उसे भूल जाएँ! सदियों-सदियों के बाद देश में अवतरित होनेवाली आज़ादी हर हिन्दुस्तानी दिल में धड़कती रही थी। इस उमगती विरासत को राजनीतिक शक्तियों ने विभाजित कर देश का नया भूगोल और इतिहास बना दिया। नई सरहदें खींच दीं। सरहदों के आर-पार दौड़ती लाशों से भरी रेलगाडिय़ाँ स्टेशनों के बाहर अँधेरों में खड़ी कर दी जाती रहीं। हज़ारों-हज़ारों की भीड़ वाले क़ाफ़िले अपने ही क़दमों में गुम हो बेनाम ख़ामोशियों की धूल में जा मिले। फिर भी हर हिन्दुस्तानी के दिल में धड़कता यह अहसास था कि विभाजन के अँधेरों में उपजी 'आज़ादी' एक पवित्र शब्द है—हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और बरकतों का प्रतीक।
बँटवारे के बाद बना पाकिस्तान उस त्रासदी से पहले जिनके लिए अपना प्यारा हिन्दुस्तान था; वे लोग, अपने ही आज़ाद मुल्क में जिनके क़दम विस्थापित शरणार्थियों के भेस में पड़े, यह उपन्यास उन उखड़े और दर-ब-दर लोगों की रूहों का अक्स है।
यही वह समय था जब भारत की आज़ादी ने एक और कहानी लिखना शुरू की, जिसका मक़सद अपने औपनिवेशिक अतीत को धोना था। ‘रियासतों का विलय’ शुरू हो रहा था। इस उपन्यास का ताल्लुक़ इतिहास के इस अध्याय से भी है।
और सबसे नज़दीकी सम्बन्ध इस कृति का उस शख़्सियत से है जिसे हम कृष्णा सोबती के नाम से जानते हैं। बँटवारे के दौरान अपने जन्म-स्थान गुजरात और लाहौर को यह कहकर कि 'याद रखना, हम यहाँ रह गए हैं', वे दिल्ली पहुँची ही थीं कि यहाँ के गुजरात ने उन्हें आवाज़ दी और अपनी स्मृतियों को सहेजते-सँभालते वे अपनी पहली नौकरी करने सिरोही पहुँच गईं, जहाँ उनमें अपने स्वतंत्र देश का नागरिक होने का अहसास जगा; व्यक्ति की ख़ुद्दारी और आत्मसम्मान को जाँचने-परखने के लिए सामन्ती ताम-झाम का एक बड़ा फलक मिला। और मिले सिरोही रियासत के दत्तक पुत्र महाराज तेज सिंह— एक बच्चा, जो भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच सहमा खड़ा अपनी शिक्षिका से पूछ रहा था, 'मैम, बेदख़ल का मतलब क्या होता है?’
उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास में लगभग सभी घटनाएँ और पात्र वास्तविक हैं।
Gujrat Pakistan Se Gujrat Hindustan
Krishna Sobti
Dilo-Danish
- Author Name:
Krishna Sobti
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Book Type:

- Description:
हिन्दी जगत में अपनी अलग और विशिष्ट पहचान के लिए मशहूर कृष्णा सोबती का हरेक उपन्यास विशिष्ट है। शब्दों की आत्मा को छूने-टटोलने वाली कृष्णा जी ने ‘दिलो-दानिश’ में दिल्ली की एक पुरानी हवेली और उसमें रहनेवाले लोगों के माध्यम से तत्कालीन जीवन और समाज का जैसा चित्रण किया है, वह अनूठा है।
हालाँकि इस उपन्यास का कथानक एक सामन्ती हवेली और सामन्ती रईस समाज व्यवस्था से वाबस्ता है लेकिन कृष्णा जी के रचनात्मक कौशल का ही कमाल है कि उन्होंने उसकी अच्छाइयों और बुराइयों का तटस्थ आत्मीयता के साथ चित्रण किया है। देश की आज़ादी से पहले हमारे समाज में सामन्ती पारिवारिक व्यवस्था थी जिसमें रईसों की पत्नी के अलावा दूसरी कई स्त्रियों से सम्बन्ध भी मान्य थे, लेकिन इस उपन्यास का मुख्य पात्र कृपानारायण पत्नी के अलावा मात्र एक अन्य स्त्री से सम्बन्ध रखता है, लेकिन दोनों स्त्रियों और उनके बच्चों की परवरिश जिस नेकनीयति से करता है, वह क़ाबिले-तारीफ़ है।
प्रेम-मुहब्बत, सामाजिकता और जीवन के सुख-दु:ख की छोटी-बड़ी कथा-कहानियों का संगुम्फित विन्यास है— ‘दिलो-दानिश’, जिसे पाठक नई सज्जा में फिर से पढ़ना चाहेंगे, यह हमारा विश्वास है।