
Yogendra Pratap Singh
Prayag Ki Ramlila
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Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
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प्रयाग की रामलीला कब से आयोजित हो रही है, इसका साक्ष्य मुगल शासक अकबर काल से मिलने लगता है, किन्तु अर्थ यह नहीं कि प्रयाग की रामलीला अकबर के समय से शुरू हुई थी। प्रयाग में रामलीला का आयोजन मुगल काल के पहले से होता रहा है। जहाँ तक, भारत का प्रश्न है, इस देश में रामलीला ईसा की आरम्भिक शतियों से होती चली आ रही है। इसका सबसे प्राचीन साक्ष्य पंतजलि का महाभाष्य है, जिसमें वानरों तथा राक्षसों एवं उनके दलों के युद्धों का संकेत मिलता है—एते श्वेतमुखा: एते कृष्णमुखा:.....आदि। नाट्य परम्परा में इसके सबसे प्राचीनतम साक्ष्य भास कृत प्रतिमा तथा अभिषेक नाटक के हैं। यही नहीं, यह रामकथा नाट्य तथा लीला के साथ-साथ प्रारम्भ से ही मधुर संगीत परम्परा से भी सम्बद्ध रही है। वाल्मीकि स्वयं कहते हैं, रामकथा में प्रवीण कुशीलव नामक चारण जातियाँ राजदरबारों में इसका तंत्रीस्वरों के साथ गायन करती रही हैं।
इस संदर्भ को केन्द्र में रखते हुए ‘ऐतिहासिकता तथा समसामयिकता’ इन दोनों से समन्वित पुस्तक ‘प्रयाग की रामलीला’ आपके सामने है। आज प्रयाग नगर के प्रत्येक मुहल्लों तथा जनपद की प्रत्येक तहसीलों के विविध कस्बों तथा गांवों में इस समय जिस उत्साह के साथ लीला आयोजन की चमक दिखाई पड़ती है, लगता है, लोक-जीवन की त्यागमयी, आदर्श आचरणमयी तथा कल्याणमयी नयी चेतना फिर से ग्यारह दिनों के लिए जन-जन के बीच परमोन्मेष के साथ उमंगित हो उठी है।

Prayag Ki Ramlila
Yogendra Pratap Singh
Shri Ramcharitmanas : dwitya sopan Ayodhyakand
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Yogendra Pratap Singh
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Shri Ramcharitmanas : dwitya sopan Ayodhyakand
Yogendra Pratap Singh
Shri Ramcharitmanas : Saptam Sopan Uttar Kand
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Yogendra Pratap Singh
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Shri Ramcharitmanas : Saptam Sopan Uttar Kand
Yogendra Pratap Singh
Shri Ramcharitmanas (Pramanik Path Tatha Teeka)
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Yogendra Pratap Singh
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- Description: ‘श्रीरामचरितमानस’ भारतीय संस्कारों का श्रेष्ठतम महाकाव्य है। भारतीय संस्कार का अर्थ है, समग्र मानव जाति के निखिल मंगल, कल्याण एवं हितैषिता के प्रति समर्पित होकर प्रेम, स्नेह, उदारता, ममता, सहिष्णुता, दया, अस्तित्व, अहिंसा, सत्य, परोपकार आदि मूल्यों की प्रतिष्ठा करना। इस प्रकार, मानस मानव अस्तित्व को सर्वोपरि मानकर उसके लिए सबसे सुलभ, सर्वाधिक सुगम तथा श्रेयस्कर मार्ग की तलाश की छटपटाहट से संयुक्त है। समाज के सर्वोच्च शुभ की प्रतिष्ठा ही मानसकार तुलसी का महत्तम शुभ है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानवीय अस्तित्व की सार्थकता के लिए जिस भव्यतम शुभ का दर्शन किया है, मानस की कविता के विविध पात्रों द्वारा उसे जिस प्रकार व्यंजित किया है तथा नैतिक मंगल के सर्वोच्च मूल्य श्रीराम और उनके ठीक विपरीत गर्हित अशुभ एवं अधर्म के प्रतीक रावण को आमने-सामने रखकर जिस मानवीय शुभ की स्थापना की है—उसकी चरम परिणति असत्य पर सत्य की विजय, अशुभ पर शुभ की स्थापना, क्रूरता पर प्रेम तथा दया का प्रसार, प्रपंच तथा छल पर मानवीय सहजता की छाया की स्थापना में होती है। इस सृष्टि पर जब तक मानव जाति रहेगी, अपनी सांस्कृतिक धरोहर सत्य, प्रेम, दया, उदारता आदि श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों से सम्पृक्त ‘श्रीरामचरितमानस’ जैसे काव्य की रक्षा करती रहेगी। इस प्रकार ‘श्रीरामचरितमानस’ निखिल मानव जाति की सनातन धरोहर है और इस टीका का मन्तव्य है—उसकी इस अमूल्य तथा परम शुभमयी धरोहर से उसे बराबर परिचित कराते रहना।

Shri Ramcharitmanas (Pramanik Path Tatha Teeka)
Yogendra Pratap Singh
Ramkatha In Indian Language
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Yogendra Pratap Singh
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Ramkatha In Indian Language
Yogendra Pratap Singh
Shri Ramcharitmanas : Shasth Sopan (Lankakand)
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Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
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‘श्रीरामचरितमानस’ लीलान्वयी काव्य है। इनकी मान्यताएँ वाल्मीकि रामायण से न जुड़कर भागवत पुराण से जुड़ती हैं। वाल्मीकि अपनी ‘रामायण’ के ‘लंकाकांड’ में ‘रावण वध’ की समापन कथा कहते हैं, किन्तु तुलसीकृत मानस का ‘लंकाकांड’ रावण का मुक्ति का आख्यान है।
प्रभु के प्रति द्वेष भी भक्ति ही है और उस अमर्ष भाव में आकंठ डूबे रावण जैसे व्यक्तित्व के प्रति श्रीराम का क्रोध उनकी कृपा तथा अनुग्रह है। इसलिए तुलसीदासकृत लंकाकांड को कथा समापन के रूप में नहीं लेना चाहिए, वरन् मध्यकालीन लीलाभक्ति की उस अवधारणा से जोड़कर देखना चाहिए, जहाँ शत्रु-मित्र, साधु-असाधु, राक्षस-मानव के बीच स्थिर दीवार को तोड़कर सभी को एक मंच पर बैठाने की तत्परता दिखाई पड़ती है। हिन्दू-अहिन्दू को एक तार से जोड़नेवाली यह भक्ति निश्चित ही भारतीय संस्कृति की विषमता के युग में एक बहुत बड़ी सम्बल थी।
तुलसी अपने इस ‘लंकाकांड’ में ‘रावण वध’ की कथा न कहकर राम एवं रावण के बीच रागात्मक ऐक्य की स्थापना की कथा कहते हैं। रावण के भौतिक शरीर को विनष्ट करके उसकी तेजोमयी चेतना का श्रीराम के शरीर में विलयन भक्ति द्वारा स्थापित रागात्मक समन्वय का सबसे बड़ा साक्ष्य है।

Shri Ramcharitmanas : Shasth Sopan (Lankakand)
Yogendra Pratap Singh
Sarjan Aur Rasasvadan : Bhartiya Paksh
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Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
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हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल के अन्तर्गत सन् 1942 तक एक ओर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘रस मीमांसा लिखकर समसामयिकता के सन्दर्भ में इसके प्रासंगिक कपाटों को खोलने की चेष्टा की है तो दूसरी ओर नई कविता के आन्दोलन ने रस चिन्तन को रूढ़, प्राचीन, अप्रासंगिक, ऐतिहासिक, मृत आदि घोषित करने की चेष्टा की है और अज्ञेय, लक्ष्मीकान्त वर्मा, जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि ने इसे उसकी मूल सत्ता से च्युत किया। आधुनिक हिन्दी साहित्य में रस चिन्तन का यह द्वन्द्व, निश्चित ही एक जटिल बनकर हमारे सामने आता है।
मानव जाति के कलात्मक स्वभाव की यह रागात्मक चेतना भारतीय चिन्तन में रस के रूप में व्याख्यायित हुई है और आज उसे आकस्मिक रूप से नई कविता के कवियों तथा समीक्षकों द्वारा मृत घोषित कर दिया जाना, उनकी तथाकथित आधुनिकता के मोह का प्रतिफल है, जो सर्वथा असंगत है।
यही नहीं, आधुनिक युग के सृजनात्मक विस्तार के बीच रस चिन्तन की व्याप्ति की सम्भावनाओं का पुनर्विश्लेषण आवश्यक है। सृजन का सम्बन्ध केवल साहित्य से ही नहीं है, चित्र, वाद्य, नृत्य, संगीत, स्थापत्य आदि कलाएँ आज जो विस्तार प्राप्त कर रही हैं, उनकी सृजनात्मक अभिव्यक्तियाँ आस्वादन की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। सम्पूर्ण कलाओं के आस्वादन फल का ही नाम रस है। मानव मन की रागात्मक चेतना एवं अनुभूति जगत् के विस्तार से रस व्याप्ति की सम्भावनाओं का भी विस्तार हो रहा है और ऐसी स्थिति में, आज उसके बार-बार विश्लेषण की आवश्यकता है, नकारने या पलायन की नहीं।
इस प्रकार, इस कृति का मूल मन्तव्य है, आज की निषेधवादी विचारधाराओं का खंडन करते हुए इसकी सामयिक प्रासंगिकता का विश्लेषण।

Sarjan Aur Rasasvadan : Bhartiya Paksh
Yogendra Pratap Singh
Ram Sahitya Kosh : Vols. 1-2
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Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
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यह कोश केवल एक सन्दर्भ कोश मात्र नहीं है। यह समग्र भारत की राष्ट्रीय रागात्मक एकता का स्वयं में बृहत्तर तथा व्यापक साक्ष्य है। आप कल्पना करें, उस कालखंड की, जब भारत की समृद्धि एवं अखंडता पर विदेश हमले शुरू हुए। प्रारम्भिक स्थिति में शक, हूण, किरात, खास आभीर, यूनानी शक्तियों के भारत पर हमले हुए, जिनमें से कुछ तो भाग गए और कुछ हम भारतीयों के बीच रहते हुए पूरी तरह से भारतीय बन गए। इन सबके बावजूद, हमारा अपना भारत अभी तक अपनी इसी सांस्कृतिक अडिगता का साक्ष्य है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था के बाद, हमारी सांस्कृतिक धरोहर देश की अस्मिता के ध्वज को एक बार फिर विश्वमंच पर फहराने लगी है और इसी आशा के साथ, आज समग्र भारत में शतियों-शतियों से सांस्कृतिक धरोहर बनी यह रामकथा 'राम साहित्य कोश' के रूप में आपके सामने रखी जा रही है। इस साहित्य कोश का उद्देश्य केवल भारतीयों के सामने समीक्षा कोश की प्रस्तुति का लक्ष्य नहीं है, अपितु इसके द्वारा यह सिद्ध करना लक्ष्य है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह भारतीय संस्कृति, त्याग एवं शीलवादी आस्था बनकर हज़ारों-हज़ारों वर्षों से संचित आर्य संस्कारों की थाती हमें गहन-से-गहन संकटों में कैसे जीवित रहने के लिए संजीवनी शक्ति देती आ रही है। राम साहित्य कोश की इस प्रस्तुति का मन्तव्य भी यही है कि हम एक बार फिर अपनी भारतीय संस्कृति के त्यागवाद, परोपकारवाद, आस्थावादी अस्मिता को सबके सामने प्रस्तुत करके उन्हें इन मूल्यों से जोड़ने के लिए पुनः प्रेरित करें।

Ram Sahitya Kosh : Vols. 1-2
Yogendra Pratap Singh
Pahala Kadam
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
- Description: भारतीय शिक्षण संस्थाओं से हम भारतीयों की त्यागनिष्ठा तथा स्वात्म समर्पण के भावों का सम्बन्ध हज़ारों-हज़ारों वर्षों से चला आ रहा है। शिक्षक, गुरु, गुरुकुल में ऋषिजीवन और छात्र तपस्वी का जीवन व्यतीत करते रहे हैं। भारत के सामन्त, सम्राट, नरेश, सम्पन्न सेठ तथा वणिक दान का सर्वांश इन संस्थाओं को अर्पित करके समाज रचना की सत्त्वमयी परम्परा के निर्माण के प्रति संकल्पबद्ध थे। समाज तथा गुरुकुल ऋण से आजीवन मुक्त नहीं होता था। किन्तु आज, अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित शिक्षानीति पर विदेशी तंत्रों के प्रभावों का गहरा असर भारतीय स्वतंत्रता के छह दशकों बाद और भी गहरा होता जा रहा है। शिक्षा ज्ञानार्जन, ज्ञानवृद्धि, अन्वेषण के लिए है; शिक्षा आत्मबोध, विवेकबोध, समझ तथा संकल्पशक्ति की प्रेरणा के लिए है। सुदामा जैसा शिक्षक लोक संकटों को झेलता हुआ, उनसे मुक्ति के लिए अपने सहपाठी त्रैलोक्यस्वामी श्रीकृष्ण के पास जाने को तैयार नहीं था—यदि उसकी पत्नी उसे प्रतिदिन सुबह-शाम दुत्कारती नहीं—किन्तु आज शिक्षक संस्थाएँ कैसी हैं? शिक्षक क्यों हैं? शिक्षा कैसी है? शिक्षण का प्रबन्ध-तंत्र क्या है? सब कुछ यह उपन्यास ही बताएगा।

Pahala Kadam
Yogendra Pratap Singh
Goswami Tulsidas Ki Jiwangatha
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
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गोस्वामी तुलसीदास का जीवन-चरित प्राय: उनके जीवनकाल से ही लिखा जाता रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने अपनी दीर्घायु के बीच पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली थी और मुग़ल सम्राट अकबर, राजा मानसिंह, अछल रहीम खानखाना, मीराँबाई, राजा टोडर आदि ने उनकी श्रीरामभक्ति के प्रति पर्याप्त श्रद्धा और सम्मान अर्पित किया था। साहित्य की परम्परा में उनकी कालजयी कृति श्रीरामचरितमानस की चर्चा भक्ति एवं रीतिकाल से ही बराबर होती चली रही है।
गोस्वामी तुलसीदास की जीवनगाथा की मूल समस्या है कि इन पाँच सौ वर्षों के अवशेषों में बाबा को कहाँ खोजा जाए? यहाँ बाबा तुलसीदास की खोज का आधार उनकी कृतियाँ तथा पाठ हैं। प्रत्येक सर्जक अपनी कृति के पाठ में वर्ण से लेकर उसकी समग्र प्रबन्ध रचना तक व्याप्त रहता है—कण-कण में व्याप्त निर्गुण ब्रह्म की भाँति। साधक के लिए, अणु-अणु में व्याप्त ब्रह्म से आत्मसाक्षात्कार करके, उसे समाधि चित्त में उतारना बड़ी दुर्लभ समस्या है। ठीक उसी प्रकार, तुलसी की कृतियों में सर्वत्र व्याप्त महात्मा तुलसीदास का आत्मसाक्षात्कार करके उन्हें स्वानुभूति एवं सृजन के स्तर पर उतारना लेखक की वर्षपर्यन्त तक की चेष्टा रही है। इसे औपन्यासिक कृति का रूप देने के लिए ‘क्वचिदन्यतोपुपि’ का भी उसे आधार लेना पड़ा है—किन्तु चेष्टा यही रही है कि कृतियों का सृजन करके उन्हीं में विलीन गोस्वामी तुलसीदास को शब्दों से कैसे रेखांकित किया जाए। जो बन पड़ा, वह सामने है।
इस कृति के प्रकाशन में आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए अयोध्या शोध-संस्थान, अयोध्या-फ़ैज़ाबाद के निदेशक डॉ. योगेन्द्र प्रताप सिंह तथा रजिस्ट्रीकरण अधिकारी व विशेष कार्याधिकारी डी.ए.पी. गौड़ का प्रकाशक हृदय से आभार व्यक्त करता है।

Goswami Tulsidas Ki Jiwangatha
Yogendra Pratap Singh
Sriramcharit Manas : Pancham Sopan Sundarkand
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
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तुलसी कृत सुन्दरकांड के कथा नायक हनुमान हैं, परन्तु वह लगते नहीं। कवि सुन्दरकांड के माध्यम से श्रीराम के माहात्म्य, उनके प्रति भक्ति तथा प्रपत्ति एवं शरणागति भाव को व्यंजित करना चाहता है। इस दृष्टि से, सुन्दरकांड में आए हनुमान, सीता, रावण एवं विभीषण के चरित्रों का तुलनात्मक अध्ययन करें तो विभीषण का स्थान सर्वोपरि है। सुन्दरकांड के इस विभीषण का चरित्र ऐतिहासिक नहीं, स्वयं तुलसीदास का अपना निजी भोगा हुआ उपेक्षित व्यक्तित्व है। विभीषण एवं तुलसी दोनों श्रीराम की शरणागति में ही जीवन की सार्थकता प्राप्त करते हैं। यदि और स्पष्ट ढंग से कहना चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि इस विभीषण का पर्याय तुलसीयुगीन सम्पूर्ण निराश्रित जनसमूह है।
तुलसी सुन्दरकांड में विभीषण का विद्रावक तथा संवेदनशील व्यक्तित्व निर्मित करके इस कथा का मुख ग़रीब एवं असहाय जनता की ओर मोड़ देते हैं। इसीलिए, इस सुन्दरकांड में कवि अपनी सम्पूर्ण रचनात्मक ऊर्जा न हनुमान की शक्ति एवं बल से सम्बद्ध करता है, न रावण के प्रति अन्याय और आक्रोश में लगाता है, साथ ही, उसे न वह श्रीराम की प्राणप्रिया सीता की विरह पीड़ा से ही जोड़ता है; वह पूरी तरह से सजग तथा संवेदनशील होकर आश्रयविहीन विभीषण को अपना भावात्मक समर्पण देकर उसे सार्थक बनाने की चेष्टा करता है। इस सुन्दरकांड के कवि तथा उसकी कविता की यही भव्यता है।

Sriramcharit Manas : Pancham Sopan Sundarkand
Yogendra Pratap Singh
Leela Aur Bhaktiras
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
- Description:
लीला के विवेचन के बिना हिन्दी भक्ति-कविता की समीक्षा सम्भव नहीं है। लीला भक्तिरस का प्राण है। हिन्दी के आलोचकों ने लगभग आठ दशकों से हिन्दी वैष्णव भक्तिकाव्य की समीक्षा शुरू की है, किन्तु उनका ध्यान इस प्राणवान तत्त्व की ओर नहीं जा सका है। प्रायः अंग्रेज़ी साहित्य से सम्बन्ध सिद्धान्तों तथा प्रकृत लोक मान्यताओं के प्रकाश में भक्ति-कविता की अब तक जो समीक्षाएँ हुई हैं, उनसे इस विशाल साहित्य की मूल प्रकृति स्पष्ट नहीं हो सकी है। इसका मुख्य कारण यह है कि भक्तिकाव्य के अध्यात्म एवं लोक का द्वन्द्व केवल लीला एवं मात्र लीला के माध्यम से ही विवेचित होना सम्भव है। उसके मन्तव्य, अर्थ-रचना एवं भावद्वन्द्व को इस लीलाधर के अभाव में देखा जाना इस भारतीय कविता के साथ अन्याय है। भक्तिरस इसी लीलाधर्मिता की निष्पत्ति है। आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल जैसे भक्ति-कविता के प्रख्यात समीक्षक भी भक्तिकाव्य की इस मूल अवधारणा से अपनी दृष्टि बचाकर दूसरी ओर जाते दिखाई पड़ते हैं।
प्रस्तुत कृति का मूल मन्तव्य लीला तथा भक्तिरस के इसी सारवान तत्त्व की सैद्धान्तिकता की स्थापना करना है ताकि इसके प्रकाश में हिन्दी भक्तिकाव्य की पुनर्व्याख्या करके उसके साहित्य की ही नहीं, भारतीय संस्कृति और अस्मिता के साथ न्याय किया जा सके।

Leela Aur Bhaktiras
Yogendra Pratap Singh
Ramcharitmanas Ke Rachnashilp Ka Vishleshan
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
- Description:
रामकथा से सम्बद्ध विविध युग सापेक्ष कृतियाँ मानव-मूल्यों एवं साहित्यिक मानकों के बदलावों के फलस्वरूप निरन्तर बदलती रही हैं। परम्परा की प्रमुख रामकथा से सम्बद्ध कृतियों यथा वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण एवं ‘रामचरितमानस’ आदि को केन्द्र में रखकर देखा जाए तो रामकाव्य के कथाशिल्प एवं रचनाविधान में परिवर्तन सामाजिक मूल्यों के बदलाव के कारण आए हैं और उनमें इस दृष्टि से शाश्वतता की तलाश का कोई अर्थ नहीं हैं।
‘रामचरितमानस के रचनाशिल्प का विश्लेषण’ शीर्षक कृति इसी युग सापेक्ष्य परिवर्तन की मौलिकता से सम्बद्ध है और यह मौलिकता परम्परा से नहीं कवि की सर्जन सामर्थ्य से सम्बद्ध है। गोस्वामी तुलसीदास की अजेय कृति ‘श्रीरामचरितमानस’ की रचना-सामर्थ्य की मौलिकता का विश्लेषण परम्परा से मुक्त होकर करना—इस कृति का मंतव्य है—जिससे एक कालजयी मौलिक रचनाधर्मिकता से सम्बद्ध कवि को भविष्य में परम्परावादी कहकर उसकी प्रतिभा पर प्रश्नचिन्ह न लगाया जा सके।

Ramcharitmanas Ke Rachnashilp Ka Vishleshan
Yogendra Pratap Singh
Bhartiya Kavya Shastra Ki Bhumika
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
- Description:
भारतीय काव्य-चिन्तन की दृष्टि कविता के स्थापत्य से जुड़ी है। काव्य-सृजन शब्दार्थ का एक अद्वैत सहयोग है और कवि अपनी प्रतिभा के संयोग से इस शब्दार्थ में चित्त को विगलित करने की सामर्थ्य उत्पन्न करता है। पश्चिम में, यदि प्लेटो तथा अरस्तू से इसका प्रारम्भ माने तो सत्रहवीं शती तक वहाँ इसका अव्यवस्थित एवं अक्रमबद्ध विवेचन मिलता है, जबकि आचार्य भरत से प्रारम्भ होकर भारतीय काव्य-चिन्तन सत्रहवीं शती तक अपने विकास के चरम शीर्ष पर पहुँच जाता है।
‘शब्दार्थ’ रचना की प्रमुख समस्याएँ—‘सर्जन का मूलाधार’ (काव्य हेतु), ‘सृजन की केन्द्रीय चेतना’ (काव्यात्मा), ‘सृजन का मूल उद्देश्य’ (काव्य प्रयोजन), ‘कवि-कर्म का वैशिष्ट्य’ जैसे महत्त्वपूर्ण पक्षों पर यहाँ क्रमश: चिन्तन किया गया है और सार्वभौम हल निकालने की चेष्टा की गई है। भारतीय काव्य चिन्तन की केन्द्रीय धुरी ‘शब्दार्थ’ रचना ही है क्योंकि कविता की निष्पत्ति के लिए एकमात्र और अन्तिम मूल सामग्री वही है—भारतीय काव्य-चिन्तन का समग्र विकास अर्थात् शब्द सौष्ठव से लेकर आस्वादन तक का विवेचन, इसी शब्दार्थ पर ही आधारित रहा है और प्रस्तुत कृति का सम्बन्ध भारतीय कविता-चिन्तन के इसी वैशिष्ट्य को इंगित करना है।

Bhartiya Kavya Shastra Ki Bhumika
Yogendra Pratap Singh
Kabeer Soor Tulsi
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
- Description:
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों तथा आलोचकों ने भक्ति के सन्दर्भ में अनेक टिप्पणियाँ दी हैं। किसी ने इसे ईसाइयत की देन बताई है तो किसी ने इस्लाम की उपज। कोई इसे हिन्दू जाति की हताशा तथा निराशा से जोड़ता है तो अन्य कोई दक्षिण भारत की देन कहता है। इन सबसे हटकर भक्ति प्रवाह भारतीय आध्यात्मिक चेतना का नैसर्गिक विकास है। भक्ति काव्यधारा की मूल प्रकृति में कहीं भी पराजय की कुंठाग्रस्तता नहीं है और न ही उसमें कहीं कोई क्षेत्रवाद ही दिखाई पड़ता है। यह इन सबके ऊपर सामाजिक समानता, प्रेम, हृदय-से हृदय को जोड़कर मानव जाति को आत्यन्तिक मंगलवाद की व्यवस्था से समृद्ध करनेवाली कविता है। इस आलोचनात्मक कृति का मूल मन्तव्य भी इसी से जुड़ा है।
कबीर-सूर-तुलसी इन तीनों कवियों में वर्तमान भक्ति की केन्द्रीय चेतना को इंगित करते हुए उनके कृतित्व का एक बार पुनर्विश्लेषण किया गया है ताकि भक्ति की लोकानुभूति से इनकी कविता की आस्वादनभूमि का मर्म समझाया जा सके। ‘हरिस्मरण’ तथा ‘कलाविलास’ के प्रवाह-संगम पर रची गई भक्ति-कविता की अपूर्वता की विवेचना ही इस आलोच्य कृति का मन्तव्य है।

Kabeer Soor Tulsi
Yogendra Pratap Singh
Devki Ka Athwa Beta
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
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Devki Ka Athwa Beta
Yogendra Pratap Singh
Hindi Kavya Chintan Ke Mooladhar
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
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Book Type:
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वैश्विक परिदृश्य की ओर बढ़ती हिन्दी भाषा के अपने काव्य-चिन्तन के मूलाधार का न होना स्वयं में चिन्ताजनक सन्दर्भ है। आठवीं शती में प्रारम्भ होनेवाली आज की इस राष्ट्रभाषा के रचनात्मक साहित्य का मूल्यांकन या तो भारतीय संस्कृत भाषा साहित्य के काव्यशास्त्रीय मानकों पर दृष्टि डालने के लिए विवश करता है या फिर विदेशी साहित्य सिद्धान्तों की ओर दृष्टि दौड़ते हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी की कविता के लिए यह कितना लज्जाजनक है। देश-भर के विश्वविद्यालयों से जुडी भारतीय हिन्दी परिषद संस्था की राष्ट्रीय संगोष्ठियों में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. नागेन्द्र, डॉ. भागीरथ मिश्र आदि विद्वान इस विषय पर बार-बार प्रश्न उठा चुके हैं किन्तु अभी तक इस दिशा में किए गए प्रयास सार्थक नहीं हो पाए।
इस प्रश्न के सन्दर्भ में यहाँ यदि यह कहा जाए कि ‘हिन्दी काव्य चिन्तन के मूलाधार’ शीर्षक ग्रन्थ हिन्दी की अपनी अस्मिता से जुड़े अपने नए मानकों की तलाश तथा हिन्दी भाषा की प्रकृति एवं उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि के साथ इतिहासबोध तथा संस्कृति को गहराई से देखने का एक मौलिक सन्दर्भ है। हिन्दी काव्य-चिन्तन की दिशा में निश्चित ही उसकी मौलिकता की प्रस्तुति को रखने, देखने, विश्लेषित करते हुए नए रूप में निष्कर्षबद्ध करने का यह सर्वथा नवीन प्रयास है।

Hindi Kavya Chintan Ke Mooladhar
Yogendra Pratap Singh
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