Parmanand Srivastav

Parmanand Srivastav

3 Books

Chautha Shabda

  • Author Name:

    Parmanand Srivastav

  • Book Type:
  • Description: ‘उजली हँसी के छोर पर’ (1960) और ‘अगली शताब्दी के बारे में’ (1981) संग्रहों के बाद परमानंद श्रीवास्तव की कविताओं का तीसरा संग्रह ‘चौथा शब्द’ एक दशक से कुछ अधिक के अन्तराल पर प्रकाशित हो रहा है। कविता के इतिहास में यह बीता हुआ दशक कविता के लिए ही कठिन समय बनकर उपस्थित नहीं हुआ, शब्द या अभिव्यक्ति के सभी रूपों और माध्यमों के लिए और सबसे अधिक मानवीय अस्तित्व के लिए, मनुष्य द्वारा अर्जित समस्त मूल्य सम्पदा के लिए चुनौती बनकर उपस्थित हुआ। यह दौर बीता नहीं है बल्कि आज और अधिक भयावह प्रश्नों और शंकाओं से घिरा है। परमानंद श्रीवास्तव ने कविता के बाहर भी शब्द के पक्ष में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में, मानवीय मूल्यों के पक्ष में लगातार संघर्ष किया है और कविता के भीतर भी धीमी शान्त ऐन्द्रिकता, राग संवेदना और जीवन के प्रति सहज आसक्‍ति मात्र से सन्तुष्ट न होकर ऐसा उत्तेजक नाटकीय

    शिल्प विकसित किया है जो कविता के पाठकों के रूप में अपने समाज के प्रति सीधा सम्बोधन है।

    परमानंद श्रीवास्तव के इस संग्रह में ‘इन दिनों’, ‘साध्वियों’, ‘बटोर’ जैसी कविताएँ अपने कठिनतम समय के मुख्य संकट को न किसी शब्द-छल से छिपाती हैं, न ख़तरनाक ताक़तों को सीधे लक्ष्य करने से बचती हैं। इसके बाद भी परमानंद श्रीवास्तव कविता के अपने विन्यास या रूप-तंत्र के प्रति कितने सजग हैं, इसका अनुमान सहज ही किया जा सकता है। ‘चौथा शब्द’ में उनका अनुभव-संसार अधिक विस्तृत है और स्थितियों, चरित्रों तथा समय की त्रासदियों को देखने-समझने की दृष्टि भी अधिक विकसित और सचेत है। ‘वह अघाया हुआ आदमी‘, ‘फ़ुर्सत में’, ‘अपरिचित', ‘सहपाठी मिले एक दिन’ जैसी कविताएँ एक तरह के कथातन्तु का आश्रय लेती हैं जबकि ‘स्त्री सुबोधनी’ जैसी कविता मानवीय अनुभव और भाषा के स्रोतों तक जाने के लिए एक विलक्षण लोकरंग प्राप्त करती है। स्त्री की यातना के अनुभव प्रत्यक्ष कई कविताओं मे दर्ज हैं। यह कविता भी उसी अनुभव को अतीत की यातनापूर्ण यादों में जोड़कर देखने की सार्थक कोशिश है। परिप्रेक्ष्य-सम्पन्न कविताओं के लिए यह संग्रह ज़रूर ही पाठकों के बीच देर तक चर्चा में रहेगा और शायद आनेवाली कविता का संकेत भी देगा।

Chautha Shabda

Chautha Shabda

Parmanand Srivastav

595

₹ 476

Kahani Ki Rachana Prakriya

  • Author Name:

    Parmanand Srivastav

  • Book Type:
  • Description: प्रस्तुत पुस्तक ‘कहानी की रचना-प्रक्रिया’ में पुरानी कहानी और नई कहानी की रचना-प्रक्रिया के सूक्ष्म भेदों को समझने का प्रयत्न किया गया है और पहली बार रचना की प्रक्रिया से सम्बन्धित समस्याओं को कहानी-साहित्य की समीक्षा के क्षेत्र में उठाया गया है।

    कहानी-साहित्य की रचनात्मक प्रक्रिया के अध्ययन-क्रम के आरम्भ में क्रमश: रचना-प्रक्रिया की ‘आधारभूमि’ रचना-प्रक्रिया के मनोवैज्ञानिक आधार, रचना-प्रक्रिया के साहित्यिक आधार, कहानी के प्राचीन रूप, कहानी के नए रूप, रचनात्मक चेतना का कहानी नामक साहित्यिक विधा में उपयोग, शास्त्रीय समीक्षा द्वारा निर्धारित कहानी-कला के प्रमुख तत्त्वों के रचनात्मक उपयोग की सम्भावना तथा रचना-प्रक्रिया और आधुनिकता के प्रमुख स्तर, रचनाकार, रचना-प्रक्रिया और पाठक आदि विषयों पर विचार किया गया है और प्रतिपादित किया गया है कि रचना-प्रक्रिया कोई जड़ यंत्र नहीं है, बल्कि वह रचनाकार की मानसिक संवेदना, सामाजिक परिवेश तथा उसके कलात्मक अनुभवों से सम्बन्धित एक जागरूक प्रक्रिया है जिसमें रचनाकार न केवल रचनात्मक अनुभवों को सम्प्रेषित करता है, बल्कि अपने को पाता भी है, उपलब्ध भी करता है।

    दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायों में पूर्व प्रेमचन्द, प्रेमचन्द युग के पूर्वार्द्ध की कहानी, उत्तर प्रेमचन्द-युग की हिन्दी कहानी की विशेषताओं और सीमाओं की व्याख्या की गई है।

    पाँचवें अध्याय में हिन्दी कहानी के विविध युगों की रचना-प्रक्रिया की चेतना का अध्ययन प्रस्तुत करते हुए कथा की चेतना या साक्षात्कार के प्रति विभिन्न युगों के कृतिकारों के दृष्टिकोणों में व्याप्त मौलिक अन्तर की व्याख्या की गई है।

    छठे और अन्तिम अध्याय में जहाँ आज की कहानी की नई दिशाओं की ओर संकेत किया गया है, वहीं उसके परिशिष्ट में रचना-प्रक्रिया की चेतना पर समूचे अध्ययन के आधार पर पुनर्विचार की आवश्यकता का अनुभव किया गया है।

    पुस्तक में साठोत्तर कहानी और आज की कहानी पर कई निबन्ध इस दृष्टि से दिए गए हैं कि आज के पाठक को यह कृति कथा आलोचना के क्षेत्र में सार्थक प्रस्थान दिखे।

Kahani Ki Rachana Prakriya

Kahani Ki Rachana Prakriya

Parmanand Srivastav

450

₹ 360

Kavita Ka Uttar Jiwan

  • Author Name:

    Parmanand Srivastav

  • Book Type:
  • Description: ‘कविता का उत्तर जीवन’ उत्तर समय में लिखी जा रही कविता का एक आलोचनात्मक पाठ-भर नहीं है, एक पूरे समय और काव्य-समय पर सघन विमर्श भी है। ‘शब्द और समय’ (1988) और ‘कविता का अर्थात्’ (1999) से जुड़कर अब वह एक त्रयी का हिस्सा भी है और फलश्रुति भी। (यद्यपि कोई भी फलश्रुति एक मिथ या यूटोपिया है)। परमानन्द श्रीवास्तव आधी सदी की कविता और आलोचना के संघर्ष के साक्षी ही नहीं रहे, उनके आलोचनात्मक हस्तक्षेप की विश्वसनीयता भी प्रायः असन्दिग्ध रही। उनका आलोचनात्मक गद्य ख़ास रचनात्मक चमक लिये हुए है, जिसकी छाप ‘कविता का उत्तर जीवन’ पर सबसे अधिक है।

    ‘कविता का उत्तर जीवन’ इस प्रमुख स्थापना के साथ पाठकों-लेखकों के बीच है कि किसी भी समय की महत्त्वपूर्ण कविता का एक वृहत्तर स्पेस होता है और वही दूसरे-तीसरे पाठ को दूसरे-तीसरे जीवन में फिर से घटित करता है। कविता का कोई भी नया पाठ एक पुनर्जीवन है, जो आस्वाद और मूल्यांकन के द्वन्द्व को अनिवार्य बनाता है। ‘कविता का उत्तर जीवन’ इसका साक्ष्य है कि कैसा भी प्रतिमानीकरण; (canonization) समूचे काव्यन्याय में अपने को असमर्थ पाता है; इसलिए भी कि ग़ालिब और कबीर हमारे लिए उतने ही समकालीन हो सकते हैं, जितने मुक्तिबोध और शमशेर। परमानन्द श्रीवास्तव की यह कृति शुद्ध स्वायत्त कविता की जगह अशुद्ध अनगढ़, पर जब-तब अथाह, कोशिश को महत्त्व देती है जिसमें आश्चर्य नहीं कि कभी डायरी, आत्मकथा तथा कॉलमनुमा लेख भी शामिल हैं। यह एक नई पहल है—इससे आलोचना, रचना—दोनों में समय की आहटों का पता चलता है।

Kavita Ka Uttar Jiwan

Kavita Ka Uttar Jiwan

Parmanand Srivastav

595

₹ 476

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