Kahani Ki Rachana Prakriya
Author:
Parmanand SrivastavPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 360
₹
450
Unavailable
प्रस्तुत पुस्तक ‘कहानी की रचना-प्रक्रिया’ में पुरानी कहानी और नई कहानी की रचना-प्रक्रिया के सूक्ष्म भेदों को समझने का प्रयत्न किया गया है और पहली बार रचना की प्रक्रिया से सम्बन्धित समस्याओं को कहानी-साहित्य की समीक्षा के क्षेत्र में उठाया गया है।</p>
<p>कहानी-साहित्य की रचनात्मक प्रक्रिया के अध्ययन-क्रम के आरम्भ में क्रमश: रचना-प्रक्रिया की ‘आधारभूमि’ रचना-प्रक्रिया के मनोवैज्ञानिक आधार, रचना-प्रक्रिया के साहित्यिक आधार, कहानी के प्राचीन रूप, कहानी के नए रूप, रचनात्मक चेतना का कहानी नामक साहित्यिक विधा में उपयोग, शास्त्रीय समीक्षा द्वारा निर्धारित कहानी-कला के प्रमुख तत्त्वों के रचनात्मक उपयोग की सम्भावना तथा रचना-प्रक्रिया और आधुनिकता के प्रमुख स्तर, रचनाकार, रचना-प्रक्रिया और पाठक आदि विषयों पर विचार किया गया है और प्रतिपादित किया गया है कि रचना-प्रक्रिया कोई जड़ यंत्र नहीं है, बल्कि वह रचनाकार की मानसिक संवेदना, सामाजिक परिवेश तथा उसके कलात्मक अनुभवों से सम्बन्धित एक जागरूक प्रक्रिया है जिसमें रचनाकार न केवल रचनात्मक अनुभवों को सम्प्रेषित करता है, बल्कि अपने को पाता भी है, उपलब्ध भी करता है।</p>
<p>दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायों में पूर्व प्रेमचन्द, प्रेमचन्द युग के पूर्वार्द्ध की कहानी, उत्तर प्रेमचन्द-युग की हिन्दी कहानी की विशेषताओं और सीमाओं की व्याख्या की गई है।</p>
<p>पाँचवें अध्याय में हिन्दी कहानी के विविध युगों की रचना-प्रक्रिया की चेतना का अध्ययन प्रस्तुत करते हुए कथा की चेतना या साक्षात्कार के प्रति विभिन्न युगों के कृतिकारों के दृष्टिकोणों में व्याप्त मौलिक अन्तर की व्याख्या की गई है।</p>
<p>छठे और अन्तिम अध्याय में जहाँ आज की कहानी की नई दिशाओं की ओर संकेत किया गया है, वहीं उसके परिशिष्ट में रचना-प्रक्रिया की चेतना पर समूचे अध्ययन के आधार पर पुनर्विचार की आवश्यकता का अनुभव किया गया है।</p>
<p>पुस्तक में साठोत्तर कहानी और आज की कहानी पर कई निबन्ध इस दृष्टि से दिए गए हैं कि आज के पाठक को यह कृति कथा आलोचना के क्षेत्र में सार्थक प्रस्थान दिखे।
ISBN: 9788180316937
Pages: 320
Avg Reading Time: 11 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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निर्मल इस उत्तर-औपनिवेशिक दौर की ऐसी आहत भारतीय आत्मा है जो अपने आत्म-विभाजन से मुक्ति के लिए पचास साल से छटपटा रही है। निर्मल की कथा यूरोपीय आधुनिकता में खोए भारतीय मनुष्य की मुक्ति की दुर्धर्षता की गाथा है। उनके निबन्ध आधुनिकता से एक सुदीर्घ और अटूट जिरह है, उनकी कथाएँ उस जिरह की दृष्टान्त या कहें कि पलटकर उनके निबन्ध उनके वृत्तान्तों के ‘पूरक’ विमर्श हैं। उनकी हिन्दू तितिक्षा से इस सबका बड़ा गहरा सम्बन्ध है। अपने लेखन में उन्होंने तर्क और अनुभव के बीच ही नहीं, भारतीय विमर्श के बीच भी एक सुसंगति पैदा करके यूरोपीय विभक्ति से निजात पाने का रास्ता भी सुझाया है। सरलीकृत प्रगतिशील आधुनिकता के वे सर्वाधिक कठिन प्रतिकार हैं, पश्चिम की आधुनिक योजनाओं के अचूक दुश्मन हैं और अपने स्वत्व की पहचान के लिए मँडराते एक भारतीय मन के आर्तनाद हैं।
वे भारत के नीत्शे हैं : जितने ख़तरनाक उतने ही मनोहर और अनिवार। नीत्शे को महामानव का इन्तजार था, निर्मल को हर महामानव पर सन्देह है : वे उत्तर-उपनिवेशी भारत के रूपक हैं : अपने लुप्त ‘स्वत्व’, विदीर्णित ‘स्मृति’ और विकृत ‘प्रकृत स्वप्न’ की रक्षा करते। वे अपूर्ण और विभक्त कर दिए गए मनुष्य में पूर्णता का अहसास भरने का कलात्मक उपाय हैं। वे ‘पश्चिम के भारत’ हैं और ‘भारत के पश्चिम’ हैं। एक ‘पूरब’ उन्हें पश्चिम को टोकने-रोकने और ललकारने की ताक़त देता है। एक ‘पश्चिम’ उनके पूरब को समस्याग्रस्त करता है। यह विकट उत्तर-उपनिवेशी विमर्श है जो चालू पश्चिमी विकासमूलक हिन्दी समीक्षा और विमर्श के लिए आफ़त करता है।
यूरोप के द्वारा दमित उनका हाशियाकृत हिन्दू-हाशिया एक नए उत्तर-औपनिवेशिक पाठ की माँग करता है। वे यूरोपीय आधुनिकता की जगह अपने क़िस्म की आधुनिकता की तलाश में एक नई सभ्यता-समीक्षा के सूत्र देते हैं। पश्चिम की समग्रता के बरक्स वे एक पूरब और उसमें भी भारत की पूर्वजता और भारतीयता को समग्र बनाना चाहते हैं। एडवर्ड सईद और तमाम उत्तर-उपनिवेशी विमर्शकार निर्मल में उत्तर-आधुनिकता के सीमान्त पर ज़िद भरे ‘स्थानीयतावादी अभिमान’ और ‘मूलवादी’ को ख़ूब पढ़ सकते हैं। यही उनकी समस्या नज़र आ सकती है।
Sahityalochan
- Author Name:
Shyam Sundar Das
- Book Type:

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Description:
‘साहित्यालोचन’ का प्रकाशन 1922 में हुआ था। हिन्दी भाषा के अध्ययन-अध्यापन और विकास के लिए बाबू श्यामसुन्दर दास ने जो प्रयास किए थे, उनमें इस पुस्तक का विशिष्ट स्थान है।
यह पुस्तक साहित्य और अन्यान्य कलाओं की मूल अवधारणाओं का निरूपण करते हुए, कला के भिन्न-भिन्न रूपों, और विशेष रूप से साहित्य की विभिन्न श्रेणियों के आस्वादन और तदनुरूप उनके विवेचन की आधारशिला रखनेवाली कृति है। ग़ौरतलब है कि बीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में जब हिन्दी की रचनात्मकता अपने शास्त्र की खोज ही कर रही थी, इस पुस्तक की मूल प्रस्थापनाओं में इस बात को रेखांकित करना उन्हें आवश्यक लगा था कि आलोचना-समीक्षा अथवा शास्त्र का काम साहित्य-रचना के लिए नियमों का निर्धारण नहीं है, बल्कि उसके साथ चलते हुए अपनी भी दृष्टि का विस्तार करना है। लेकिन आज भी आलोचना अक्सर इस भ्रम में भटक जाती है कि वह रचना को रास्ता दिखानेवाली कोई मशाल है।
इस पुस्तक को पढ़ते हुए हम जान पाते हैं कि हमारी भाषा का वह युग सत्य और तर्क को लेकर कितना सजग था और आज भी हमें उस दृष्टि की कितनी आवश्यकता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि गत लगभग एक सदी से यह पुस्तक अपनी उपयोगिता को बरकरार रखे हुए है, और आज भी न सिर्फ़ छात्रों के लिए बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए उपादेय है जो हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति गम्भीर है।
Kuvempu Sahitya : Vividh Aayam
- Author Name:
Ram Prakash
- Book Type:

- Description: भारतेन्दु का भाषा–प्रेम, मैथिलीशरण गुप्त की सांस्कृतिकता, जयशंकर प्रसाद की दार्शनिकता, पंत का प्रकृति–प्रेम, महादेवी वर्मा की रहस्यात्मकता, निराला की क्रान्तिकारिता, हजारीप्रसाद द्विवेदी की परम्परा–निष्ठा, प्रेमचन्द की सामाजिक–प्रतिबद्धता, रेणु की आंचलिकता, नागार्जुन की फक्कड़ता, केदारनाथ अग्रवाल का ग्रामीण–प्रेम, हरिशंकर परसाई की व्यंग्यात्मकता और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की वैज्ञानिकता को अपने साहित्य में समेटनेवाले रचनात्मक व्यक्तित्व का नाम है—‘कुवेम्पु’। कन्नड़ भाषा के प्रथम ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित ‘कन्नड़ कविरत्न’ के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विविध पक्षों पर विद्वत्तापूर्ण व्यापक अध्ययन को प्रस्तुत करनेवाले आलेखों का संग्रह है—‘कुवेम्पु साहित्य : विविध आयाम’।
Muktibodh Ki Samikshaai
- Author Name:
Ashok Chakradhar
- Book Type:

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नई कविता अनेक प्रवृत्तियों का समुच्चय थी, उसकी रचना-प्रक्रिया जटिल थी, इसी कारण उसकी अर्थ-प्रक्रिया भी ‘काव्यार्थ’ भर नहीं रह गई। नई कविता की रचना- प्रक्रिया और अर्थ-प्रक्रिया जानने का मतलब हो गया—रचनाकार के युग, उसकी समीक्षा-समझ, विचारधाराओं, युगीन परिस्थितियों एवं भाषा-रूपों को समग्रता में जानना।
समग्रता में न जा पाने के इस संकट को मुक्तिबोध ने पहचाना था। कदाचित् इसीलिए उन्होंने कविता की रचना-प्रक्रिया पर पहली बार इतना काम किया कि आधुनिक कविता के इस तकनीकी पहलू पर सोचने को विवश कर दिया। और इस तरह रचना-प्रक्रिया की उन चली आती हुई शास्त्रीय धारणाओं को बेकार सिद्ध किया, जिनके चलते आधुनिक हिन्दी साहित्य जैसे-तैसे जी रहा था, नई कविता वर्जित प्रदेश बनी हुई थी। रचना-प्रक्रिया पर उठाई गई उक्त बहस ने नई कविता की समझ को फैलाया और यह महसूस कराया कि नई कविता एक निश्चित रचना-प्रक्रिया की पैदाइश है, जिसके रचना-नियम पुनरुत्थानवादी या स्वच्छन्दतावादी काव्य की रचना-प्रक्रिया के नियमों से नितान्त अलग और कहीं-कहीं तो विपरीत हैं। पर क्या कहा जाए कि अभी भी हिन्दी में मुक्तिबोध द्वारा प्रस्तुत की गई जीवन-दृष्टि और समीक्षा-दृष्टि को पर्याप्त गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है। इसका सबसे अधिक नुक़सान नई कविता की सार्थकता के सवाल को भुगतना पड़ा।
समीक्षा वैसे तो रचना के बाद की चीज़ है लेकिन मुक्तिबोध की कविताई में जाने से पहले उनकी समीक्षाई जानना ज़रूरी है। ज़रूरी नहीं बहुत ज़रूरी है। बहुत ज़रूरी भी क्या अनिवार्य है। इस पुस्तक के रचनाकार अशोक चक्रधर ऐसा मानते हैं।
Aacharya Ramchandra Shukla : Aalochana Ke Naye Mandand
- Author Name:
Bhavdeo Pandey
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Description:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के पहले हिन्दी आलोचना का कोई व्यवस्थित ढाँचा तैयार नहीं हुआ था। कृति के गुण-दोष-दर्शन में दोष ढूँढ़ने का प्रचलन अधिक था। दोष-दर्शन में भी भाषागत त्रुटियों को ज़्यादा महत्त्व दिया जाता था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आलोचना के ऐतिहासिक और समाजशास्त्राीय स्वरूप की प्रस्तुति की और ‘लोक के भीतर ही कविता क्या किसी भी कला का प्रयोजन और विकास होता है’—के सिद्धान्त का निरूपण किया। उन्होंने आलोचना को व्यवस्थित रूप देने के लिए कुछ निश्चित मानदंड स्थापित किए।
यह पुस्तक आचार्य शुक्ल के जीवन, आलोचक के रूप में, के विकास और उनकी दृष्टि का एक सम्पूर्ण ख़ाका खींचने की कोशिश करती है। उनके प्रामाणिक जीवन-वृत्त के साथ ‘बीसवीं शताब्दी का काव्यात्मक आन्दोलन’ (कविता क्या है?); ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’; ‘वैचारिक निबन्धों के प्रथम आचार्य’; ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना दृष्टि’ और ‘उनकी साहित्येतिहास दृष्टि’—इन पाँच अध्यायों में विभक्त यह पुस्तक आचार्य शुक्ल को समझने और पढ़ने के नए द्वार खोलती है। इसके अलावा डॉ. पांडेय ने गहन शोध के बाद इस पुस्तक में आचार्य शुक्ल से सम्बन्धित अभी तक अनुपलब्ध कई महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ भी जुटाई हैं।
1857 Ke Pratham Swatantrata Sangram Ki Patrakarita
- Author Name:
Prof. Neeraj Karna Singh +1
- Book Type:

- Description: प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास का एक ऐसा दिव्य तथा भव्य अध्याय है, जिसमें धर्म, वर्ग, जातियों की सभी दीवारें ध्वस्त हो जाती हैं और जनसमूह के रूप में भारत की आत्मा मुखर होती है| अंग्रेजी तथा वामपंथी इतिहासकार भले ही इस महासमर को गदर या विद्रोह की संज्ञा दें, परंतु यह भारतीय आत्मा की आवाज थी। इस आवाज का स्पंदन सनातन राष्ट्र की पावन माटी के कण-कण में सुरभि- स्वरूप अनुभूत किया जा सकता है।जंग-ए-आजादी में जनचेतना और मनचेतना का कार्य हर स्तर पर हुआ। उस वक्त की व्रतधारी पत्रकारिता ने भी आजादी के पहले समर में क्रांति का बीजारोपण किया | जन-जन तक, मन-मन तक आजादी के समर को पहुँचाया और फिरंगी हुकूमत के खिलाफ उठ खड़े होने का शंखनाद किया | ऐसा शंखनाद, जिसने अनंत नभ में आजादी की क्रांति को हवा दी | उसी हवा को महसूस और आत्मसात् करने के लिए, इस युग के कोठि-कोटि जनों में समझ पैदा करने के उद्देश्य से और क्रांति की उस सुगंध से जोड़ने के लिए पत्रकारिता व्रत तथा दायित्व का दस्तावेज पुस्तक के रूप में आपके हाथों में है । यह पुस्तक केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि राष्ट्र और राष्ट्रगायकों को हमारी ओर से सादर शब्दांजलि है, भावांजलि है|
Bhasha Vigyan : Hindi Bhasha Aur Lipi
- Author Name:
Ramkishor Sharma
- Book Type:

- Description: सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ भाषा प्रयोग के आयाम में विस्तार एवं सूक्ष्मता आई है। अपने सामाजिक परिवेश में सहज ढंग से सीखी गई मातृभाषा के द्वारा बृहत्तर विश्व-समाज के साथ सम्पर्क स्थापित करना सम्भव नहीं है। विश्व-समाज में भाषा व्यवहार के विविध सन्दर्भों को समझने के लिए भाषा-विज्ञान का अध्ययन आवश्यक हो गया है। भाषा की विविध प्रयुक्तियों, भाषा-चिन्तन की परम्परा, भाषा-संरचना के तत्त्वों, ध्वनि, शब्द, पद, अर्थ आदि क्षेत्रों में सम्पन्न भाषा वैज्ञानिक आधुनिकतम विचारों तथा निष्पत्तियों को एक साथ समाहित करनेवाली यह पुस्तक छात्रों, अनुसन्धानकर्ताओं तथा अन्य जिज्ञासुओं के लिए उपादेय होगी। हिन्दी-भाषा तथा लिपि पर भी इसमें बड़े विस्तार से विचार किया गया है। विषय को सुबोध बनाने के लिए परिचित उदाहरणों का सहारा लिया गया है, विषय की गम्भीरता तथा स्तर को सुरक्षित रखते हुए सरल, सुबोध भाषा शैली अपनाई गई। विवेचन क्रम में व्यर्थता का त्याग तथा आवश्यक सामग्री के ग्रहण का प्रयत्न रहा है। इसी आधार पर पुस्तक के कलेवर को संयमित किया गया है।
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