Sudhish Pachauri
Bindas Baboo Ki Diary
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Sudhish Pachauri
-
Book Type:

- Description: यहाँ ‘बिंदास बाबू की डायरी’, क्रमिक देने के दो-तीन मन्तव्य हैं। एक तो यही कि वे डेढ़-दो महीने, जब भारतीय जनता ने अपने वोट से सत्ता में रहकर इतराई हिन्दुत्ववादी-अवसरवादी ब्रिगेड को सत्ता से वंचित कर डाला, उस दौर की दैनिक बड़ी घटनाओं की ख़बर लेते हुए, उनका एक प्रकार का रोज़नामचा-सा तैयार करना स्वयं इस लेखक के लिए एक ख़ास अनुभव रहा है। इस अनुभव को बाँटना ज़रूरी लगा। वे लोग जो रेडियो माध्यम को गम्भीरता से लेते हैं, उसमें कुछ करना चाहते हैं, शायद वे इस तरह की दैनिक तुरन्ता कटाक्ष-वार्ताओं के लेखन के नमूने देख सकें। इस प्रक्रिया में काम करनेवाले अनुभवों को पहचान सकें और इस अनमोल रेडियो विद्या को थोड़ा और समृद्ध बना सकें। दूसरा मन्तव्य यह समझना-समझाना रहा कि इस तरह दैनिक क़िस्म का, क्षणिक-सा, बेहद टाइट समय के भीतर जो चलित वृत्तान्त बनता है, वह किन दबावों, तनावों, भाषायी क्षमता और प्रत्युत्पन्नमति की, इंप्रोवाइजेशन की ज़रूरतों की दरकार रखता है? और फिर यह जताना-बताना भी ज़रूरी है कि बीबीसी रेडियो सेवा एक बेहद पॉपुलर, प्रयोगधर्मी सेवा भी है, जो अपने को अग्रणी रखने के लिए चुनौती-भरे प्रयोग कर सकता है। आल इंडिया रेडियो यानी आकाशवाणी वार्ताकार को क्या इतनी छूट दे सकता है? एफ़एम चैनलों पर प्रस्तुतियों में कुछ चैनल टपोरी भाषा का उपयोग करते हैं, उसमें सेक्सी व्यंजनाएँ या लंपट व्यंजनाएँ ज़्यादा होती हैं। वे कमज़ोर पर हँसते हैं। ताक़तवर पर नहीं हँसते। वे बॉलीवुड से मज़ाक़ कर लेते हैं ताकि ‘प्रमोट’ कर सकें। लेकिन वे सत्तावादी राजनीतिक विमर्श का मज़ाक़ सीधे-सीधे नहीं उड़ा सकते। बीबीसी यह कर सकता है। यह देख तोष होता है कि रेडियो प्रसारण में उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। सत्तावादी राजनीतिक विमर्श पर केन्द्रित ये व्यंग्य-वार्ताएँ पाठकों के लिए इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि कुछ नया जानने-समझने को नए द्वार खोलती हैं।
Bindas Baboo Ki Diary
Sudhish Pachauri
Naye Jan-Sanchar Madhyam Aur Hindi
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Sudhish Pachauri
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Book Type:

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नए जन-संचार माध्यमों में हिन्दी का प्रयोग बढ़ रहा है। हर प्रक्रिया में माध्यम बदल रहे हैं, हिन्दी भी बदल रही है। नए रूप बन रहे हैं। माध्यमों में भाषा ने स्वयं एक संचार किया है।
बदलती भाषा संचार की अनन्त अन्तर्क्रियाओं को जन्म दे रही है। हिन्दी के सामने नई चुनौतियाँ उपस्थित हैं और उतनी ही चुनौतियाँ माध्यमकर्मियों के सामने हैं।
बी.बी.सी. ने नए जन-संचार माध्यमों में हिन्दी के स्वरूप को लेकर इसीलिए एक राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया। सेमिनार की सामग्री इस किताब में पाठकों के लिए उपलब्ध है।
यहाँ पाठकों को पहली बार बी.बी.सी. वेबसाइट की ‘स्टाइल बुक’ का परिचय मिलेगा। मीडिया का हिन्दी शब्दकोश होना चाहिए; एक पदावली कोश भी—इस तरफ़ कुछ इशारे यहाँ दिए गए हैं।
उम्मीद है कि यह किताब नए जन-संचार माध्यमों के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
Naye Jan-Sanchar Madhyam Aur Hindi
Sudhish Pachauri
Hindutwa Aur Uttar-Aadhunikta
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Sudhish Pachauri
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Book Type:

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किसी दैनिक कमेंट्री की तरह लिखी गई ये टिप्पणियाँ उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श का रेखांकन करने और उसके समस्या-बिन्दुओं को खोलने की प्रक्रिया में लिखी जाती रही हैं। उत्तर-आधुनिक विमर्श और उत्तर-संरचनावादी पाठ-प्रविधि के बिना उत्तर-औपनिवेशिकता की इस गुत्थी को नहीं खोला जा सकता। यहाँ हिन्दुत्व के द्वारा चयनित और सक्रिय किए गए नाना प्रकार के धार्मिक और सांस्कृतिक चिन्हों को पढ़ा गया है। वे इस लेखक के लिए ‘षड्यंत्र’ नहीं हैं, उत्तर-औपनिवेशिक एजेंडे और सत्तामूलक विमर्श के परिणाम हैं जिनकी कुल माँग आधुनिकता का एक सकलतावादी एजेंडा है। सती-दहन से लेकर अणुबम फोड़ने तक, मस्जिद के विध्वंस से लेकर मन्दिर निर्माण तक हर बात पर स्वदेशी एजेंडे की वकालत, पिछले दशकों के वे राजनीतिक-सांस्कृतिक समुच्चय हैं जो प्रचलित सेकुलर समीक्षा की मुठभेड़ों से परे और महफ़ूज़ ही रहे आए हैं। इसका कारण हिन्दुत्व शक्तियों द्वारा पैदा किए गए ‘प्रस्थापना परिवर्तन’ हैं, सेकुलर विमर्श जिन्हें समझने में कई बार नाकाम रहता है। उसे अगर कोई प्रस्थापनाएँ समस्याग्रस्त करती हैं तो लेट-कैपिटलिज़्म के द्वारा पैदा की गई उत्तर-आधुनिक प्रस्थापनाएँ हैं। उत्तर-आधुनिकता के समय में हिन्दुत्व एक ‘अ-सम्भावना’ ही है।
भारत जैसे समाजों के सन्दर्भ में उत्तर-आधुनिकता की भूमिका नए पूँजीवाद की भूमिका की तरह द्वन्द्वात्मकता से युक्त है क्योंकि उसमें लेट-कैपिटलिज़्म का द्वन्द्ववाद सक्रिय है। यही इस लेखक की उत्तर-आधुनिकता की अपने ढंग की उत्तर-मार्क्सवादी पाठ-प्रविधि है जो उत्तर-औपनिवेशिक एजेंडे के आगे उत्तर-आधुनिकता से फिर-फिर टकराती है और हिन्दुत्व के सकलतावाद के एकार्थवादी तत्त्व के बरक्स उत्तर-आधुनिकता के बहुलवाद के तत्त्व को अल्पवाद के हाशियावाद के विमर्श में उपयोगी पाती है और साथ ही एक समकालीन ‘कल्चर टर्न’ को पढ़ते हुए उपभोक्तावाद और पॉपुलर कल्चर में इस उत्तर-औपनिवेशिक तत्त्ववाद के सकंट को गहराता देखती है।
यह किताब हिन्दुत्व के अन्तरंग संकटों के इशारे देती है। यह हिन्दुत्व की समकालीन मार्केटिंग में निहित है। यह उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श का उत्तर-आधुनिक ग्लोबल मंडली में बैठना भर है। इस मार्केटिंग के खेल को पुराने सेकुलर विमर्श की प्रस्थापनाओं से नहीं समझा जा सकता। बिन लादेनी ब्रांड का इस्लाम पहले इसी बाज़ार के लिए बना था, अब उसे उसी बाज़ार ने तोड़ा है। हिन्दुत्व की अन्तिम हद अगर कुछ है तो तालिबानीकरण है और वही उसकी समाधि भी है।
Hindutwa Aur Uttar-Aadhunikta
Sudhish Pachauri
Fasiwadi Sanskriti Aur Secular Pop Sanskriti
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Sudhish Pachauri
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Book Type:

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उत्तर-आधुनिक समय में ‘सांस्कृतिक राजनीति’ एक संघर्ष-क्षेत्र बन उठा है। ‘सांस्कृतिक राजनीति’ करके ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’, मूलतः फासिस्ट संस्कृति और सत्ता बनाने को प्रयत्नशील है। उसकी मिसालें यत्र-तत्र दैनिक भाव से बनती हैं। वे इसके लिए ‘पॉपुलर कल्चर’ के चिन्हों का सहारा लेते हैं, माध्यमों का सहारा लेते हैं, जनता में पॉपुलर भावपक्ष का निर्माण कर उसे एक निरंकुश अंधराष्ट्रवादी भाव में नियोजित करते रहते हैं। इसके बरक्स, इसके प्रतिरोध में कार्यरत प्रगतिशील सेकुलर और मानवतावादी विचारों और सांस्कृतिक उपादानों, चिन्हों का लगातार क्षय नज़र आता है। कुछ नए प्रतिरोधमूलक प्रयत्न नज़र आते हैं तो वे अपने स्वरूप एवं प्रभाव क्षमता में ‘हाई कल्चर’ (एलीट) बनकर आते हैं, आम जनता का उनसे कोई आवश्यक संवाद-सम्बन्ध नहीं
बनता।‘पॉपुलर कल्चर’ चूँकि मूलतः और अन्ततः किसी भी तरह के तत्त्ववाद के विपरीत कार्य करती है। इसलिए वह हमेशा केन्द्रवाद, तत्त्ववाद और फासीवाद के ख़िलाफ़ जगह बनाती है और उसके जनतन्त्र के विस्तार की माँग करती है। इस ‘क्रिटीकल’ जगह को तत्त्ववादियों के हड़पने के लिए यों ही नहीं छोड़ा जा सकता। इस जगह में भी संघर्ष करना होगा, क्योंकि यह अब निर्णायक क्षेत्र बन उठा है। ये टिप्पणियाँ इसी चिन्ता से प्रेरित हैं। इसमें मार्क्सवाद और उससे बाहर की बहसें हैं तो समकालीन जीवन में ‘पॉपुलर क्षणों’ के अनुभवों को देखने की कोशिश भी है।
‘पॉपुलर कल्चर’ निष्क्रिय-ग़ुलाम श्रोता-दर्शक नहीं बनाती, वह एक ऐसा जगत बनाती है जो ‘विमर्शात्मक’ होता है। उसे देखने के लिए पॉपुलर संस्कृति की समझ चाहिए। यहाँ उपलब्ध टिप्पणियाँ इस दिशा में पाठकों की मदद कर सकती हैं : इनकी शैली अलग-अलग है क्योंकि हर बार एक चंचल क्षण, एक चंचल जटिल यथार्थ को पकड़ने और विमर्श में लाने की कोशिश है।
Fasiwadi Sanskriti Aur Secular Pop Sanskriti
Sudhish Pachauri
Media Jantantra Aur Atankvad
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Sudhish Pachauri
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ग्यारह सितम्बर की सुबह दो अमेरिकी टॉवरें ही नहीं गिरीं, मीडिया की ‘बाइनरी’ यानी ‘विलोमवाची मीडिया’ टावरें भी गिर गईं। ग्यारह सितम्बर के बाद का मीडिया एक क़िस्म के विकेन्द्रण की चपेट में है। अब एक मामूली-सा अरबी चैनल ‘अलजजीरा’, ‘सी.एन.एन.’ पर भारी है। मीडिया का कंटेंट अब ‘पहचान के चिह्नों’ को, उसके ‘भावकों’ को सक्रिय करता है और वे ही पलटकर उसका कंटेंट बनाते हैं। आप स्टूडियो में जो बनाते हैं, वही कंटेंट नहीं होता। जो उसे रिसीव करता है, ग्रहण करता है वह अपना कंटेंट बनाता है। यह एक प्रकार की उत्तर-संरचनावादी अनेकार्थता है जो मीडिया बनाने लगा है और जो नज़र आने लगी है।
आतंकवाद जनतन्त्र का विलोम है। वह स्वयं किसी जनतन्त्र को नहीं मानता। न उसे बने रहने देना चाहता है। ऐसे में यदि जनतन्त्र स्वयं ही सिकुड़ने लगे या कि उसे सत्ता सिकोड़ने लगे तो आतंकवाद को ही ताकत मिलती है। शुरू में लग सकता है कि आतंकवादी जनतन्त्र का लाभ उठा रहे हैं, उन्हें रोकना चाहिए। चूँकि मीडिया अब तक सत्ता संवलित जनतन्त्र पर पलता आया है और उसने आतंकवाद को हमेशा ऑफ़िसियल नज़र से देखा है, इसलिए वह उसे न दिखाने में यक़ीन किया करते हैं। इससे आतंकवाद की साख बढ़ती है, बिन लादेन का मिथक्करण इसी कारण है। तब क्या करें ? इस मामले में बाबा तुलसीदास हमारे बड़े काम के हैं और अपने चैनलों को तुलसीदास का रावण-वर्णन इन दिनों ज़रूर पढ़ना चाहिए। आतंकवाद सूचना की पकड़ से बाहर रहस्य बनकर सूचना बनता है। उसे और बाहर कर देने से उसी की मदद होती है। आतंकवाद मीडिया युग की राजनीतिक कार्रवाई है। उसका भूत मीडिया ही उतार सकता है। वह जितना सूचना में रहेगा उतना ही संवाद में रहेगा। जितना संवाद में रहेगा उतना ही जनतन्त्र में आकर सहज बनेगा।
Media Jantantra Aur Atankvad
Sudhish Pachauri
Nirmal Verma Aur Uttar Upniveshvad
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Sudhish Pachauri
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Book Type:

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निर्मल इस उत्तर-औपनिवेशिक दौर की ऐसी आहत भारतीय आत्मा है जो अपने आत्म-विभाजन से मुक्ति के लिए पचास साल से छटपटा रही है। निर्मल की कथा यूरोपीय आधुनिकता में खोए भारतीय मनुष्य की मुक्ति की दुर्धर्षता की गाथा है। उनके निबन्ध आधुनिकता से एक सुदीर्घ और अटूट जिरह है, उनकी कथाएँ उस जिरह की दृष्टान्त या कहें कि पलटकर उनके निबन्ध उनके वृत्तान्तों के ‘पूरक’ विमर्श हैं। उनकी हिन्दू तितिक्षा से इस सबका बड़ा गहरा सम्बन्ध है। अपने लेखन में उन्होंने तर्क और अनुभव के बीच ही नहीं, भारतीय विमर्श के बीच भी एक सुसंगति पैदा करके यूरोपीय विभक्ति से निजात पाने का रास्ता भी सुझाया है। सरलीकृत प्रगतिशील आधुनिकता के वे सर्वाधिक कठिन प्रतिकार हैं, पश्चिम की आधुनिक योजनाओं के अचूक दुश्मन हैं और अपने स्वत्व की पहचान के लिए मँडराते एक भारतीय मन के आर्तनाद हैं।
वे भारत के नीत्शे हैं : जितने ख़तरनाक उतने ही मनोहर और अनिवार। नीत्शे को महामानव का इन्तजार था, निर्मल को हर महामानव पर सन्देह है : वे उत्तर-उपनिवेशी भारत के रूपक हैं : अपने लुप्त ‘स्वत्व’, विदीर्णित ‘स्मृति’ और विकृत ‘प्रकृत स्वप्न’ की रक्षा करते। वे अपूर्ण और विभक्त कर दिए गए मनुष्य में पूर्णता का अहसास भरने का कलात्मक उपाय हैं। वे ‘पश्चिम के भारत’ हैं और ‘भारत के पश्चिम’ हैं। एक ‘पूरब’ उन्हें पश्चिम को टोकने-रोकने और ललकारने की ताक़त देता है। एक ‘पश्चिम’ उनके पूरब को समस्याग्रस्त करता है। यह विकट उत्तर-उपनिवेशी विमर्श है जो चालू पश्चिमी विकासमूलक हिन्दी समीक्षा और विमर्श के लिए आफ़त करता है।
यूरोप के द्वारा दमित उनका हाशियाकृत हिन्दू-हाशिया एक नए उत्तर-औपनिवेशिक पाठ की माँग करता है। वे यूरोपीय आधुनिकता की जगह अपने क़िस्म की आधुनिकता की तलाश में एक नई सभ्यता-समीक्षा के सूत्र देते हैं। पश्चिम की समग्रता के बरक्स वे एक पूरब और उसमें भी भारत की पूर्वजता और भारतीयता को समग्र बनाना चाहते हैं। एडवर्ड सईद और तमाम उत्तर-उपनिवेशी विमर्शकार निर्मल में उत्तर-आधुनिकता के सीमान्त पर ज़िद भरे ‘स्थानीयतावादी अभिमान’ और ‘मूलवादी’ को ख़ूब पढ़ सकते हैं। यही उनकी समस्या नज़र आ सकती है।
Nirmal Verma Aur Uttar Upniveshvad
Sudhish Pachauri
Sahitya Ka Uttar Samajshastra
- Author Name:
Sudhish Pachauri
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Book Type:

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गोष्ठियों के रूप अभी भी शादी-ब्याह की तरह हैं। एक दूल्हा, बाक़ी बाराती। गोष्ठी के मंच जातिभेद कराते हैं। ऊपर महान बैठेंगे। नीचे दासानुदास। एकदम विनय पत्रिका वाली हाइरार्की। प्रगतिशील, रूपवादी सब ये ही करते हैं।
बहस न सही, तू-तू, मैं-मैं ही सही। कुछ तो है। बुरा क्या है? नए पूँजीवाद में ये तो होना ही है।
मशाल टार्च बन चुकी है। राजनेता के पास जो ब्रांड टार्च है, वही साहित्यकार के पास है। ‘साहित्य और राजनीति’ की चिर बहस अब मर चुकी है। यही अच्छा है।
पढ़ें तो जानें, क्योंकि ये ‘अन्दर की बात है’। साहित्य का असल समाजशास्त्र है। यह ‘अन्दर की बात’ बहुत जटिल है रे!
और हम सब जो ‘बचे-खुचे’ हैं, तरह-तरह की ‘पूरणीय क्षतियाँ’ हैं जो हर गोष्ठी, सेमिनार, शोकसभा में मौजूद रहती हैं। होंगी कोई हज़ार-पाँच सौ। हम सब अपूरणीय ‘क्षति’ करके ही जाएँगे। बच्चो सावधान!
Sahitya Ka Uttar Samajshastra
Sudhish Pachauri
Aalochana Se Aagey
- Author Name:
Sudhish Pachauri
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Book Type:

- Description: उत्तर-आधुनिकतावाद हिन्दी में अब एक निर्णायक विमर्श बन चला है और उत्तर-संरचनावादी ‘पाठ’ की रणनीतियाँ हिन्दी साहित्य की उपलब्ध व्याख्याओं में नए-नए विपर्यास और उपद्रव पैदा कर रही हैं। विखंडनवादी पाठ-प्रविधियों ने हिन्दी में नव्य-समीक्षा को रिटायर कर दिया है। ‘आलोचना’ पद भी, अपनी व्यतीत आधुनिकतावादी प्रकृति और उत्तर-संरचनावादी रणनीतियों की मार के चलते, संकटग्रस्त होकर संदिग्ध हो चला है। ये दिन आलोचना के ‘विमर्श’ में बदल जाने के दिन हैं। विमर्श जो ‘अर्थ’ का ‘उत्पादन’ ही नहीं करते, उन्हें ‘संगठित’ भी करते हैं और अनिवार्यत: सत्तात्मक होते हैं। विमर्श वस्तुत: आलोचना का विखंडन है, इसीलिए आलोचना से आगे है। सुधीश पचौरी ने उत्तर-आधुनिकतावादी और उत्तर-संरचनावादी विमर्शों को हिन्दी में स्थापित किया है। लगभग दो दशक के सभी अग्रगामी विमर्श, इन उत्तर-आधुनिकतावादी और उत्तर-संरचनावादी पदावलियों से उलझते-सुलझते चलते हैं। समाजशास्त्रों में इन्हें लगातार जगह मिल रही है। साहित्य अध्ययन में, पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों में और शोधों में ये विमर्श निर्णायक होने लगे हैं। ये वर्तमान की माँग हैं और उसका भवितव्य भी। सुधीश पचौरी की यह किताब हिन्दी के जागरूक पाठकर्ताओं के लिए एक ज़रूरी किताब है।