Shyam Sunder Dubey
Lok Ram-Katha
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Shyam Sunder Dubey
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प्रस्तुत पुस्तक ‘लोक राम-कथा’ में उत्तरभारत की अनेक लोक-बोलियों में प्रचलित लोकगीतों के माध्यम से लोक रामायण को अन्वेषित करने का प्रयास किया गया है। इस प्रयास में यह भाव भी सक्रिय रहा है कि लोक की मौलिक और प्रचलित कथा में भिन्न अवधारणाओं को महत्त्व दिया जाये। लोक रामायण के रूप में बोलियों के अन्तर्गत लिखित काव्य ग्रन्थ भी है। इस तरह के काव्य ग्रन्थ कुछ ही बोलियों में मिलते हैं। अवधी में इस तरह के ग्रंथों का प्रणयन हुआ है। इनका परिचय भी यथासम्भव इस प्रस्तुति में सम्मिलित है। इस दिशा में यह प्रस्थानिक कार्य ही है। रामवृत्त को केन्द्र बनाकर रचे गये लोकगीतों-लोक आख्यानों की प्रचुरता का अन्दाज केवल इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश-विदेश में जिस तरह जन-जन में राम रमे हुए हैं उसी तरह उनके चरित्र अनुकीर्तन से सम्बन्धित लोक रचनाएँ भी असंख्य हैं।
रामकथा से सम्बन्धित विभिन्न अंचलों के लोकगीतों में लोकमंगल की भावना व्यक्त हुई है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तुलसी के संदर्भ में जिस लोक मंगल की सर्वतोभद्र प्रतिष्ठा की है वह लोकमंगल तुलसी के काव्य में लोक जीवन के प्रभाव से ही प्रतिष्ठित हुआ है। लोक मूल्यों के प्रति तुलसी की निष्ठा उनके लोकाभिराम में केन्द्रित हो जाती है। लोक रामायण लोक के सामाजिक, आध्यत्मिक, सांस्कृतिक एवं कलात्मक मूल्यों की संप्रतिष्ठा करती है। इन मूल्यों की प्रतिष्ठा हेतु लोक ने अपने ढंग से रामायण की चरित्र संरचना की है। कथा के अनेक अभिप्रायों का संवितरण लोक के अनेक अंचलों में एक जैसा है। बहुत संभव है कि इस तरह के संवितरण में चरणशील प्रवृत्ति के अनेक जनों की भूमिका रही हो। भक्ति के हिलुरते अछोर भाव समुद्र की लहरें कब कहाँ किस तट पर अपने आस्था जल का विमोचन करती रही हैं, यह लोकगीतों की अभिव्यक्ति में अनुभव किया जा सकता है। यह सर्वत्र एक से ही भाव का जो लोक चित्र में उदय होता है वह लोक की अंतर्निहित समिष्ठि शक्ति का प्रकाशन भी है। लोक रामायण लोक की समिष्ठिगत अवधारणा का संपुजित प्रकाश इसी अर्थ में प्रदान करती है।
लोक कथाओं के रूप में रामकथा अनेक अंचलों में अपने एकदम अलग सन्दर्भों में व्यक्त हुई है। विशेष रूप से आदिवासी कहे जानेवाले सुदूर अंचलों से लेकर विभिन्न पहाड़ी क्षेत्रों में रामकथा लोक बोली के गद्य में प्राप्त होती है। काव्य में तो प्राय: सभी लोकांचलों में रामकथा गायी गयी है। इसके अलावा प्राकृत और अपभं्रश में भी रामकथा पर केन्द्रित अनेक राम कथायें रची गयी हैं।
Lok Ram-Katha
Shyam Sunder Dubey
Lok : Parampara, Pahachan Aur Pravah
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Shyam Sunder Dubey
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भारतीयता को आकार देने में लोक-संस्कृति की भूमिका केन्द्रीय कारक की तरह रही है। भारतीयता के जो समन्वयमूलक शाश्वत जीवन-मूल्य हैं, वे लोक-संस्कृति की ही उपज हैं। प्रकृति और मनुष्य के आन्तरिक रिश्तों पर आधारित लोक-संस्कृति पर्यावरण के प्रति अधिक सक्रिय और अधिक सचेष्ट विधायिनी रचना को सम्भव करती है। वह अपने वैविध्य में पर्यावरण की सुरक्षा और उसकी गतिशीलता की भी प्रेरक है। लोक-संस्कृति के एक सबल पक्ष लोक-साहित्य की गहरी समझ रखनेवाले डॉ. श्यामसुन्दर दुबे की यह कृति लोक-साहित्य में निहित लोक-संस्कृति की पहचान और परम्परा को विस्तार से विवेचित करती है। लोक-साहित्य के प्रमुख अंग लोकगीत, लोक-नाट्य, लोक-कथाओं को लेखक ने अपने विश्लेषण का आधार-विषय बनाया है। लोक की प्रसरणशीलता और लोक की भूभौतिक व्यापकता में अन्तर्निहित सामाजिक सूत्र-चेतना को इन कला-माध्यमों में तलाशते हुए लेखक ने जातीय स्मृति की पुनर्नवता पर गहराई से विचार किया है।
आधुनिकता के बढ़ते दबावों से उत्पन्न ख़तरों की ओर भी इस कृति में ध्यानाकर्षण है। अपनी विकसित प्रौद्योगिकी और अपने तमाम आधुनिक विकास को लोक-जीवन के विभिन्न सन्दर्भों से सावधानीपूर्वक समरस करनेवाली कला-अवधारणा की खोज और उसके प्रयोग पर विचार करने के लिए यह कृति एक नया परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करती है। दृश्य और श्रव्य कला-माध्यमों द्वारा इधर सौन्दर्यबोध की जो नई प्रणालियाँ आविष्कृत हो रही हैं, इनमें एक अनुकरण-प्रधान उपरंगी संस्कृति की ओर हमारे समूचे लोक को बलात् खींचा जा रहा है। लेखक ने प्रस्तुत कृति में लोक की इस व्यावसायिक प्रयोजनीयता और उसके इस विकृत प्रयोग को कला-क्ष्रेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप माना है। यह हस्तक्षेप हमारी सांस्कृतिक पहचान पर दूरगामी घातक प्रभाव डाल सकता है।
लोक के समाजशास्त्रीय मन्तव्यों और लोक की मनः-सौन्दर्यात्मक छवियों को अपने कलेवर में समेटनेवाली यह कृति लोक-साहित्य की कुछ अंशों में जड़ और स्थापित होती अध्ययन-प्रणाली को तोड़ेगी और लोक के विषय में कुछ नई चिन्ताएँ जगाएगी।
Lok : Parampara, Pahachan Aur Pravah
Shyam Sunder Dubey
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