Sameer Varan Nandi

Sameer Varan Nandi

1 Books

Prithvi Mere Purvajon Ka Teela

  • Author Name:

    Sameer Varan Nandi

  • Book Type:
  • Description: इन दिनों कविता में उक्ति-वैचित्र्य की सराहना का दौर चल रहा है। उक्ति-वैचित्र्य कविता का गुण ज़रूर है, लेकिन जिसे काव्य का जीवन कहा गया है, उस वक्रोक्ति से बहुत अलग भी है। उक्ति-वैचित्र्य फड़कती बात कहने का चमत्कार है, कविता केवल फड़कती उक्तियों के समुच्चय को नहीं कहा जा सकता। कविता में कहन के अनूठेपन का महत्त्व है अवश्य, लेकिन जो कहा जा रहा है, उसकी सघनता और वैचारिक स्पन्दनशीलता के बाद ही। समीर वरण नन्दी की कविताओं में कहन का अनूठापन है, गहरे अनुभवों और उन अनुभवों को वैचारिक सघनता देनेवाले आत्मसंघर्ष तथा कठोर आत्मानुशासन के साथ। यह आत्मानुशासन इतना कठोर है कि इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवि का यह दूसरा ही संग्रह है। साथ ही, इतना गहरा, रोमांचक आत्मविश्वास है कवि समीर में कि वे भूल से भी कहीं समकालीन सराहना के लालच में अपने मिज़ाज और मुहावरे से समझौता नहीं करते। उक्ति-वैचित्र्य के लालच में पड़ने के बजाय समीर कवि-कर्म की मूल और सार्वभौम प्रतिज्ञा निभाते हैं; अपने अन्तस और बाह्य को, उनके परस्पर मुखामुखम को, प्रेम और मृत्यु को, इनके संवाद को कविता का विषय बनाते हैं। उनके मुहावरे में बांग्लादेश, बिहार, दिल्ली और हिमालय की स्मृतियों को देश की जातीय स्मृतियों से संवाद करते सुना जा सकता है। प्रेम, मृत्यु, समकालीनता के सवाल—किसी भी सन्दर्भ में समीर देशी-विदेशी समकालीनों का या वरिष्ठों का अघोषित अनुवाद करते नहीं दिखते। वे अपनी ख़ुद की काव्य-भाषा का सन्धान करते हैं, हिन्दी काव्य-भाषा का विस्तार करते हैं। प्रेम में कामना हो या समर्पण—उसे कहने का समीर का ढंग निराला है। कामना को उनकी कविता यों बखानती है—‘थोड़ी सी धूप काम-लोलुप हो कर तुमसे लिपटी हुई थी/देखा तो वही मेरे आगे बाधा बनी हुई थी’। समर्पण के लिए, समीर की कविता चुनती है न्यूनतम शब्द, लेकिन ऐसे जिनमें आँखों के सामने आ जाता है—विराट, मार्मिक सांस्कृतिक स्मृति का बिम्ब, कृष्ण की हथेली पर दाह-संस्कार का सौभाग्य पानेवाले सूतपुत्र कर्ण का बिम्ब—‘तुम अपनी हथेली आगे करो और मैं उस पर अपनी चिता सजा दूँ’। कवि समीर के लिए जातीय सांस्कृतिक स्मृति किसी ख़ास तरह के विषय को सँवारने की सामग्री नहीं, वह उसकी कविता-देह की मांस-मज्जा और रक्त में प्रवाहित है। व्यक्ति समीर ने कभी अपने दु:खों के दाग़ों को तमगों की तरह नहीं पहना, उसने रिश्ते निभाए हैं, निभाव के लिए संघर्ष किए हैं, अपनी ही कविता के भिक्खु की तरह एत्थ के मौन में डूबते हुए। ऐसे जीवन से सम्भव हुए कवि समीर के लिए स्वाभाविक ही है कि मृत्यु भावुकता या अन्तबोध का विषय नहीं, समय की निरन्तरता में पुरखों द्वारा की जा रही प्रतीक्षा में स्वयं को स्थापित करने का बोध है—‘और सबसे लम्बी लकड़ी जो अलग रखी थी/उसे पिता, पितामह और प्रपितामह/जलाकर आग तापते हुए/कर रहे हैं मेरी प्रतीक्षा’। इस संग्रह की कविताओं से गुज़रना सघन, समृद्ध, अद्वितीय काव्यानुभव से गुज़रना है। —पुरुषोत्तम अग्रवाल
Prithvi Mere Purvajon Ka Teela

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Sameer Varan Nandi

250

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