Bhagwatilal Rajpurohit
Patanjali
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Bhagwatilal Rajpurohit
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महर्षि पतंजलि भारतीय वाड़्मय के अप्रतिम प्रवक्ता थे। उन्होंने ‘निदानसूत्रम्’ की रचना की तो ‘परमार्थसारम्’ जैसा दार्शनिक ग्रन्थ भी रचा। संस्कृत भाषा और व्याकरण सम्बन्धी ‘महाभाष्य’ लिखा तो परम्परागत योग की धारा को समेटकर उसे ‘योगसूत्रम्’ के माध्यम से दार्शनिक धरातल पर भी प्रतिष्ठित किया। कहा यह भी जाता है कि उन्होंने ‘चरक संहिता’ का भी संस्कार किया था। उनके जो भी ग्रन्थ ज्ञात हैं, वे अपने-अपने विषय के आधार ग्रन्थ हैं जिनकी सामग्री आगे चलकर उस विषय में मार्गदर्शक सिद्ध हुई है।
विवरणों से यह भी ज्ञात होता है कि काव्य के क्षेत्र में भी उनका अनूठा योगदान रहा। उनकी जीवन-कथा के कई रूप मिलते हैं। उनके देशकाल के विषय में सर्वाधिक उपयोगी उनका महाभाष्य ही माना गया है। इस तथा अन्य ग्रन्थों में आए तथ्यों के अनुसार कहा जा सकता है कि पतंजलि सेनापति शुंग के समकालीन रहे थे जिनके शासनकाल को इतिहासकारों ने ईसवी पूर्व 185 से 149 तक निश्चित किया है।
इस पुस्तक में उनके जीवन, समय तथा कृतित्व का परिचय देते हुए उनकी उपलब्ध रचनाओं—‘योगसूत्रम्’, ‘महाभाष्यम्’, ‘निदानसूत्रम्’ तथा ‘परमार्थसारम्’ का पाठ सानुवाद दिया गया है।
Patanjali
Bhagwatilal Rajpurohit
Shudrak
- Author Name:
Bhagwatilal Rajpurohit
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Book Type:

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शूद्रक एक सफल और लोकप्रिय साहित्यकार तथा नाटककार थे। उनकी आम जनता की अभिरुचि और पहचान की पकड़ मज़बूत थी। इसीलिए वे संस्कृत हो या प्राकृत—उनकी लोकसमझ की आवश्यकता पर विशेष बल देते दिखते हैं।
शूद्रक के नाटकों में समाज को हू-ब-हू प्रस्तुत करने का सफल प्रयास है। उसके गुण-दोषों को उजागर किया गया है। चोर, जुआरी तथा निम्न वर्ग के लोग बुरे ही नहीं होते, उनमें अच्छाइयाँ भी होती हैं और अच्छा बनने की उनमें भी लालसा होती है। वे सब संगठित होकर सत्तापरिवर्तन तक कर सकते हैं, यदि उन्हें अच्छा मार्गदर्शन मिले तो अच्छाई का साथ देने के लिए वे सदा तत्पर रहते हैं।
शूद्रक के ‘मृच्छकटिक’ और ‘पद्मप्राभृतक’ दोनों नाटकों में विट है। विट गणिका-प्रिय और धूर्त होता है। ‘पद्मप्राभृतक’ में विट नायक ही है। परन्तु ‘मृच्छकटिक’ का विट शकार का पिछलग्गू है। वहाँ शकार की धूर्तता और चालबाजी के सामने विट काफी सीधा और फीका है। ‘पद्मप्राभृतक’ में विट समाज के हर वर्ग को आड़े हाथों लेता चलता है। परन्तु यहाँ भी उससे बढ़कर धूर्ताचार्य बताया गया है मूलदेव को, जिसका वह सहयोगी है। स्पष्ट ही शूद्रक के अनुसार विट धूर्त होने पर भी किसी बड़े धूर्ताचार्य का सहयोगी ही होता है। ये दोनों नाटक गणिका सम्बन्धी होने पर भी व्यापक सामाजिक सरोकार से परिपूर्ण हैं।
इस पुस्तक में ‘पद्मप्राभृतक’ का कुछ अंश, ‘मृच्छकटिक’ के दो अंक और ‘वीणावासदत्ता’ का एक अंक प्रस्तुत किया गया है।