Sudhir Chandra
Gandhi Ke Desh Mein
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Sudhir Chandra
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विवेक, सन्मति और सदाशयता के धनी चिन्तक, विख्यात इतिहासकार सुधीर चन्द्र की निबन्ध पुस्तक।
‘‘सत्य, अहिंसा, प्रेम, अस्तेयादि एक झटके में और कायमी तौर पर लोगों की ज़िन्दगी में परिवर्तन ला देनेवाले गुण नहीं हैं। ख़ुद गांधी सारी ज़िन्दगी अपने को गांधी बनाने में लगे रहे थे। पर गांधी के नाम पर सब कुछ निछावर करनेवालों ने क़ुर्बानियाँ जो भी की हों, उन लोगों ने अपने को वैसा बनाने की कोशिश नहीं की जैसा बनकर ही गांधी का स्वराज हासिल हो सकता था।’’
‘‘गांधी की हमारी समझ गम्भीर रूप से अपूर्ण रहेगी जब तक हम अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में उस हिंसा के स्वरूप और परिस्थितियों को समझने की शुरुआत नहीं करते, जिसे नैतिक हिंसा कहा जा सके।’’
‘‘समलैंगिकता को अप्राकृतिक या अस्वाभाविक मान लेने का आधार क्या है? इसी से जुड़ा एक बुनियादी सवाल भी उठता है : क्या किसी कर्म का अप्राकृतिक होना काफ़ी है उसे दंडनीय अपराध बनाए जाने के लिए? किसी कर्म का प्राकृतिक या अप्राकृतिक होना—जिस हद तक इस तरह का निर्धारण सम्भव है—उसे अपराध की श्रेणी में न तो लाता है और न ही उससे बाहर रखता है। हिंसा और वासना से जुड़े तमाम अपराधों को प्राकृतिक कृत्यों के रूप में देखा जा सकता है। दूसरी तरफ़ सभ्यता और संस्कृति का विकास उत्तरोत्तर हमें प्रकृति से दूर लाता आया है।’’
‘‘जो मैं नहीं समझ पाता वह है बहुत सारे लोगों का विश्वास, देरीदा की मिसाल देते हुए कि, ‘डीकंस्ट्रक्शन’ और परिणामस्वरूप उत्तर-आधुनिकतावाद ‘एमॉरल’—नैतिक-अनैतिक से परे—है। देरीदा को, न कि देरीदा के बारे में, थोड़ा ही सही, पढ़े बगै़र कुछ प्रचलित भ्रान्तियों को मान लेना बौद्धिक आलस है।’’
देश के गतिशील समकालीन यथार्थ को समझने के लिए एक ज़रूरी पाठ।
Gandhi Ke Desh Mein
Sudhir Chandra
Rakhmabai : Stree Adhikar Aur Kanoon
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Sudhir Chandra
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यह पुस्तक उपनिवेशीय भारत की एक अनूठी घटना पर आधारित है। बाईस वर्ष की एक युवती ने असाधारण विद्रोह करते हुए उस विवाह को मानने से इनकार कर दिया जिसमें उसे मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में झोंक दिया गया था।
उसके पति ने अपने वैवाहिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए बम्बई उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा दिया। उसके इस क़दम ने रख्माबाई के संकल्प को और भी दृढ़ कर दिया—देशी परम्पराओं और उपनिवेशीय क़ानून-व्यवस्था के संयुक्त दमन के विरोध का संकल्प।
मुक़दमा 1884 के शुरू में दायर किया गया। अगले वर्ष इसमें हुए पहले फ़ैसले के आते ही इसने एक सामाजिक नाटक का रूप धारण कर लिया।
इस युवा विद्रोहिणी की विजय या पराजय पर एक विकृत पारिवारिक-सामाजिक व्यवस्था का भविष्य टिका हुआ था।
रख्माबाई का विद्रोह एक असाधारण घटना थी। इससे पहले कभी किसी स्त्री ने ऐसे क्रान्तिकारी साहस और संघर्ष-शक्ति का परिचय नहीं दिया था।
रख्माबाई के मुक़दमे के दौरान यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई कि सर्वोच्च उपनिवेशीय न्यायपालिका की प्रवृत्ति स्त्रियों के साथ भेदभाव करनेवाली सामाजिक परम्पराओं और सम्बन्धों को बनाए रखने की थी।
रख्माबाई के विद्रोह से शुरू हुई यह बहस अभी अप्रासंगिक नहीं हुई है, जैसाकि हम इस पुस्तक के उपसंहार में देखेंगे। इस तरह के विद्रोह को आज भी मर्यादाओं के उल्लंघन के रूप में देखा जाता है।
आज हम पीछे मुड़कर देख पाने की स्थिति में हैं और उन सीमाओं को अधिक आसानी से पहचान सकते हैं जिनके भीतर रमाबाई और रख्माबाई जैसे हमारे पथ-प्रदर्शकों की चेतना काम करती थी।
—प्राक्कथन से
Rakhmabai : Stree Adhikar Aur Kanoon
Sudhir Chandra
Bura Waqt Achchhe log
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Sudhir Chandra
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सुधीर चन्द्र यूँ तो इतिहासकार हैं लेकिन उनकी चिन्ताओं और दिलचस्पियों का फलक इस अकादमिक श्रेणी से कहीं ज़्यादा बड़ा है। गांधी पर जो काम वे करते रहे हैं, वह सिर्फ़ इतिहासकार का काम नहीं है। गांधी के साथ उन्होंने एक नितान्त निजी और दुर्लभ रिश्ता बनाया है, और उस 'असम्भव' व्यक्तित्व को समझते-जानते हुए देखने का एक अपना ढंग पाया है। हो सकता है कि यह ढंग उनका स्वभाव ही हो जिसे गांधी के स्पर्श ने और पुख़्ता, और टिकाऊ बना दिया।
इस किताब में शामिल गांधी-विषयक लेखों को अलग करके यदि हम समसामयिक सवालों और मुद्दों पर उनकी टिप्पणियों को भी ग़ौर से पढ़ें तो उस दृष्टि की मौजूदगी साफ़ दिखाई देगी जो जीवन को भी, और जीवन में होनेवाले परिवर्तन को भी एक गहरी नैतिक कार्रवाई के रूप में देखना चाहती है। 16 दिसम्बर—निर्भया कांड पर उनकी व्यथित प्रतिक्रियाएँ हों या दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उदय पर उनकी टिप्पणियाँ हों, उनकी कसौटी कहीं अस्पष्ट नहीं है। अन्ना के अनशन को लेकर जब लगभग सबने अपने आपको एक हताशाजनित आशावाद के सुपुर्द कर दिया था, सुधीर जी बहुत साफ़ ढंग से उसकी नैतिक और व्यावहारिक विसंगतियों को देख और अभिव्यक्त कर पा रहे थे। इसी तरह पहले मुख्यमंत्रित्व काल में अरविन्द केजरीवाल के जिस धरने पर उनके समर्थक तक डिफ़ेंसिव हो रहे थे, सुधीर जी केजरीवाल के उस फ़ैसले की ऐतिहासिक और सैद्धान्तिक अहमियत को समझ पा रहे थे।
देश में बढ़ती असहिष्णुता, कठिन और संवेदना-च्युत होता सामाजिक जीवन और राजनैतिक हताशा उनके चिन्तन के मुख्य बिन्दु हैं जिन पर वे इतिहास की गहरी समझ और आन्तरिक नैतिकता के स्पष्ट तर्क के साथ बार-बार विचार करते हैं।
किताब में कुछ संस्मरण भी हैं जिनमें भीमसेन जोशी और भूपेन खख्खर पर केन्द्रित कतिपय लम्बे आलेख सम्बन्धित व्यक्तित्वों के अलावा भारतीय कला के इन दो पक्षों, संगीत और चित्रकला पर महत्त्वपूर्ण रोशनी डालते हैं। संगीत पर उन्होंने एकाधिक जगह और बहुत लगाव के साथ लिखा है। समाज, संस्कृति और सामाजिक इतिहास को समेटते इन निबन्धों को अच्छे और समर्थ गद्य के रूप में भी पढ़ा जाना ज़रूरी है।
Bura Waqt Achchhe log
Sudhir Chandra
Hindu, Hindutva, Hindustan
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Sudhir Chandra
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सारे बौद्धिक प्रयत्न के बावजूद, ‘हिन्दू अवचेतन’ अपने को ही भारतीय मानता है। भारत जैसे बहुधर्मी और सांस्कृतिक वैविध्य से भरपूर देश के लिए ऐसी मान्यता अनिवार्यतः अनिष्टकारी है। पिछले कुछ समय से यह मान्यता अवचेतन से निकलकर उत्तरोत्तर आक्रामक होती जा रही है। बौद्धिक प्रयत्न के बावजूद नहीं, बल्कि खुलकर एक विचारधारा के रूप में यह हिन्दू को ही राष्ट्र मान बैठी है। ख़तरा यदि प्रधानतः विचारधारा और उससे जुड़ी किसी राजनीतिक पार्टी का होता तो उससे जूझना मुश्किल न होता। पर आज परेशानी यह है कि ‘हिन्दू अवचेतन’ कहीं न कहीं उन बातों को अपनी अँधेरी गहराइयों में मानता है, जिनको चेतना के स्तर पर वह राष्ट्र के लिए घातक और नैतिक रूप से अवांछनीय समझता है। ज़रूरी है कि उसका सामना इस दुविधा से कराया जाए।
—इसी पुस्तक से
Hindu, Hindutva, Hindustan
Sudhir Chandra
Gandhi Ek Asambhav Sambhavna
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Sudhir Chandra
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साल-दर-साल दो बार गांधी को रस्मन याद कर बाक़ी वक़्त उन्हें भुलाए रखने के ऐसे आदी हो गए हैं हम कि उनके साथ हमारा विच्छेद कितना गहरा और पुराना है, इसकी सुध तक हमें नहीं है। एक छोटी-सी, पर बड़े मार्के की, बात भी हम भूले ही रहे हैं। वह यह कि पूरे 32 साल तक गांधी अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ लड़ते रहे, पर अपने ही आज़ाद देश में वह केवल साढ़े पाँच महीने—169 दिन—ज़िन्दा रह पाए। इतना ही नहीं कि वह ज़िन्दा रह न सके, हमने ऐसा कुछ किया कि 125 साल तक ज़िन्दा रहने की इच्छा रखनेवाले गांधी अपने आख़िरी दिनों में मौत की कामना करने लगे। अपनी एक ही वर्षगाँठ देखी उन्होंने आज़ाद हिन्दुस्तान में। उस दिन शाम को प्रार्थना-सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा : ‘‘मेरे लिए तो आज मातम मनाने का दिन है। मैं आज तक ज़िन्दा पड़ा हूँ। इस पर मुझको ख़ुद आश्चर्य होता है, शर्म लगती है, मैं वही शख़्स हूँ कि जिसकी ज़ुबान से एक चीज निकलती थी कि ऐसा करो तो करोड़ों उसको मानते थे। पर आज तो मेरी कोई सुनता ही नहीं है। मैं कहूँ कि तुम ऐसा करो, ‘नहीं, ऐसा नहीं करेंगे’ ऐसा कहते हैं।...ऐसी हालत में हिन्दुस्तान में मेरे लिए जगह कहाँ है और मैं उसमें ज़िन्दा रहकर क्या करूँगा? आज मेरे से 125 वर्ष की बात छूट गई है। 100 वर्ष की भी छूट गई है और 90 वर्ष की भी। आज मैं 79 वर्ष में तो पहुँच जाता हूँ, लेकिन वह भी मुझको चुभता है।’’
क्या हुआ कि गांधी ऊपर उठा लिए जाने की प्रार्थना करने लगे दिन-रात? कौन-सी बेचारगी ने घेर लिया उन्हें? क्यों 32 साल के अपने किए-धरे पर उन्हें पानी फिरता नज़र आने लगा? निपट अकेले पड़ गए वह।
गांधी के आख़िरी दिनों को देखने-समझने की कोशिश करती है यह किताब। इस यक़ीन के साथ कि यह देखना-समझना दरअसल अपने आपको और अपने समय को भी देखना-समझना है। एक ऐसा देखना-समझना, गांधी की मार्फ़त, जो शायद हमें और हमारी मार्फ़त हमारे समय को थोड़ा बेहतर बना दे।
गहरी हताशा में भी, भले ही शेखचिल्ली की ही सही, कोई आशा भी बनाए रखना चाहती है गांधी को एक असम्भव सम्भावना मानती है यह किताब।
Gandhi Ek Asambhav Sambhavna
Sudhir Chandra
Sur-Sansar : Sudhir-Sanjay samvad
- Author Name:
Sudhir Chandra
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- Description: संगीत पर, शास्त्रीय संगीत पर हिन्दी में बहुत कम सामग्री प्रकाशित है : उसकी आलोचना और रसिकता की कोई व्यवस्थित परम्परा भी नहीं बन सकी। शास्त्रीय संगीत के रसिक सम्प्रदाय में अनेक विधाओं के लोग भी शामिल रहे हैं। उन्हीं में से एक हैं इतिहासकार सुधीर चन्द्र जिनकी संगीत की समझ, संवेदना और व्याख्या को कई लोग जानते रहे हैं। उनके अनुभवों, स्मृतियों, समझ आदि को सहेजते हुए यह सुर-संसार प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता है। —अशोक वाजपेयी
Sur-Sansar : Sudhir-Sanjay samvad
Sudhir Chandra
Bhupen Khakhkhar : Ek Antrang Sansmaran
- Author Name:
Sudhir Chandra
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भूपेन पर पहली किताब महेन्द्र देसाई ने लिखी। गाढ़े दोस्त थे भूपेन और महेन्द्र। लिखनेवाला हो महेन्द्र जैसा औघड़, और लिखा जा रहा हो भूपेन जैसे खिलन्दड़े और उसकी कला पर तो किताब असामान्य होनी ही थी। हुई। विलक्षण, मस्त, अपने विषय की आत्मा में प्रवेश करने को आतुर और, उसी कारण, अपनी विश्वसनीयता के प्रति लापरवाह। अकारण नहीं कि इससे बिलकुल उलट संवेदना से लैस अँग्रेज़ टिमथी हाइमन ने महेन्द्र की किताब से बहुत कुछ पाने के बावजूद महेन्द्र के वर्णन को 'गार्बल्ड’ कहा। काश! मैं भी देखने, सोचने और लिखने में महेन्द्र जैसा दुस्साहस बरत पाता।
भूपेन पर दूसरी किताब है इन्हीं टिमथी हाइमन की। ब्रिटिश कलाकार, कला मर्मज्ञ और भूपेन के परम मित्र। एक पारखी की पैनी नज़र है टिमथी की किताब में। ऐसी किताब भी नहीं लिख पाऊँगा मैं।
फिर भी लिख रहा हूँ। महेन्द्र जैसा फक्कड़ी सृजनशील न सही, दुस्साहस तो है ही मेरे इस प्रयास में। दोषी दरअसल भूपेन है। अपने जीते जी देश और विदेश में होनेवाली अपनी प्रदर्शनियों के आधे दर्जन ब्रोशर मुझसे लिखवाकर बगैर कुछ कहे समझा गया कि मण्डन मिश्र के तोता-मैना शास्त्रार्थ कर सकते थे तो मैं अपने दोस्त के अन्तरंग संस्मरण तो लिख ही सकता हूँ।
23 साल की निरन्तर गहराती दोस्ती रही भूपेन के साथ। अनेक रूप देखे उसके। उन सब के बेबाक विवरण हैं यहाँ। वह भी है जो इस किताब को लिखने के दौरान जाना : कि भूपेन नितान्त विलक्षण लेखक है और उसके साहित्य के साथ न्याय नहीं हुआ है। —इसी पुस्तक से
Bhupen Khakhkhar : Ek Antrang Sansmaran
Sudhir Chandra
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