Rammanohar Lohia
Arthshastra : Marks Se Aage
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Rammanohar Lohia
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Book Type:

- Description: मार्क्सवाद या साम्यवाद का जोर सामाजिक न्याय पर है। उनके मुताबिक, यह कार्य होगा संसाधनों के उत्पादन और वितरण में व्याप्त असमानता को दूर कर वर्गविहीन समाज की स्थापना से, और वर्गविहीन समाज स्थापित होगा पूँजीवादी विकास के उच्चतम स्तर पर। व्यावहारिक अनुभवों ने इस सैद्धान्तिक दावे के अन्तर्विरोधों को उजागर किया जिन्हें सुलझाने की कोशिश, बेहतर दुनिया का सपना देखने वाले तमाम चिन्तक-विचारक करते रहे हैं। ‘अर्थशास्त्र : मार्क्स के आगे’ ऐसा ही एक उल्लेख प्रयास है जिसमें अर्थशास्त्र सम्बन्धी मार्क्सवादी सिद्धान्त का गम्भीर परीक्षण किया गया है। लोहिया मार्क्सवाद और गांधीवाद दोनों को अधूरा मानते थे लेकिन उनके महत्त्व को स्वीकार करते थे। उन्होंने स्वयं लिखा है—‘स्वीकृति और अस्वीकृति—दोनों ही अन्धविश्वास के बदलते पहलू हैं... गांधीवादी अथवा मार्क्सवादी होना मतिहीनता है और गांधीवादी विरोधी या मार्क्सवादी विरोधी होना भी उतनी ही बड़ी मूर्खता है। गांधी और मार्क्स दोनों के ही पास अमूल्य ज्ञान-भंडार है, किन्तु तभी ज्ञान प्राप्त हो सकता है, जब विचारों का ढाँचा एक युग या व्यक्ति के विचार तक ही सीमित न हो।’ इसी दृष्टि से, उन्होंने इस प्रबन्ध में अर्थशास्त्र में एक ऐसी विचारधारा की आवश्यकता पर बल दिया है जो मौजूदा सभी विचारों से भिन्न और समस्त विश्व को समान कल्याण के एक सुखी इकाई में बदलने वाली हो।
Arthshastra : Marks Se Aage
Rammanohar Lohia
Vichar Ka Aina : Kala Sahitya Sanskriti : Ram Manohar Lohia
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Rammanohar Lohia
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Book Type:

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विचार का आईना शृंखला के अन्तर्गत ऐसे साहित्यकारों, चिन्तकों और राजनेताओं के ‘कला साहित्य संस्कृति’ केन्द्रित चिन्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इसके पहले चरण में हम मोहनदास करमचन्द गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारपरक लेखन से एक ऐसा मुकम्मल संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर लिहाज से संग्रहणीय है।
स्वतंत्रता आन्दोलन की कोख से जन्मे राममनोहर लोहिया ऐसे विचारक राजनेता हैं जिन्होंने अपने लिए लोकतंत्र की आत्मा यानी एक सक्षम और निडर विपक्ष की भूमिका चुनी। जवाहरलाल नेहरू जैसे लोकप्रिय जननेता की असफलताओं को खुलकर सामने रखते हुए उन्होंने दिखाया कि विपक्ष को सरकार की तथ्यात्मक आलोचना करते हुए किस कदर निर्मम होना चाहिए। समाजवाद का भारतीयकरण करते हुए उसे उन्होंने संस्कृति और परम्परा से जोड़ा। धर्म और संस्कृति के अनेक मिथकों को डिकोड करते हुए उन्होंने परम्परा के जरूरी हिस्सों को पुनर्नवा बनाने का काम किया। हमें उम्मीद है कि उनके प्रतिनिधि निबन्धों की यह किताब उन सबको रास्ता दिखाएगी जो अपनी सुदीर्घ परम्परा और संस्कृति से प्रेम करते हैं और धर्म के राजनीतिक दुरुपयोग और लोकतंत्र को संकुचित करने वाली शक्तियों के हावी होने के खतरों से समाज को बचाना चाहते हैं।
Vichar Ka Aina : Kala Sahitya Sanskriti : Ram Manohar Lohia
Rammanohar Lohia
Hindu Banam Hindu
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Rammanohar Lohia
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हिन्दुस्तान बहुत बड़ा है और पुराना देश है। मनुष्य की इच्छा के अलावा कोई शक्ति इसमें एकता नहीं ला सकती। कट्टरपन्थी हिन्दुत्व अपने स्वभाव के कारण ही ऐसी इच्छा नहीं पैदा कर सकता, लेकिन उदार हिन्दुत्व कर सकता है, जैसा पहले कई बार कर चुका है। हिन्दू धर्म संकुचित दृष्टि से राजनीतिक धर्म, सिद्धान्तों और संगठन का धर्म नहीं है। लेकिन राजनीतिक देश के इतिहास में एकता लाने की बड़ी कोशिशों को इससे प्रेरणा मिली है और उनका यह प्रमुख माध्यम रहा है। हिन्दू धर्म में उदारता और कट्टरता के महान युद्ध को देश की एकता और बिखराव की शक्तियों का संघर्ष भी कहा जा सकता है।
इधर हिन्दुत्व पूरी तरह समस्या का हल नहीं कर सका। विविधता में एकता के सिद्धान्त के पीछे सदन और बिखराव के बीज छिपे हैं। कट्टरपन्थी तत्त्वों के अलावा, जो हमेशा ऊपर से उदार हिन्दू विचारों में घुस आते हैं और हमेशा दिमाग़ी सफ़ाई हासिल करने में रुकावट डालते हैं, विविधता में एकता का सिद्धान्त ऐसे दिमाग़ को जन्म देता है जो समृद्ध और निष्क्रिय दोनों ही है।
प्रस्तुत पुस्तक में जातिवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, ग़ुलामी, आज़ादी और उत्थान, जातिप्रथा समस्या की जड़, छोटी जातियाँ और भाषा आदि महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।
Hindu Banam Hindu
Rammanohar Lohia
Lohiya Ke Vichar
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Rammanohar Lohia
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- Description: लोहिया भारतीय राजनीति के विचार-पुरुषों में अपना एक अलग स्थान रखते हैं। गांधी और नेहरू की तरह उनका भी देश तथा विश्व को लेकर एक बड़ा विज़न था। विभिन्न विचारधाराओं के गहन अध्ययन और अपने देश-काल के अन्वीक्षण से उन्होंने अपने विचारों को लगातार धार दी और प्रत्येक विचारधारा से आगे बढ़कर एक सन्तुलित दृष्टि के विकास पर ज़ोर दिया। वे स्वप्नदर्शी थे, और मानते थे कि परिस्थितियों की विपरीतताओं से संघर्ष करते हुए भी, हमें एक बड़े सपने को अपने सामने जीवित रखना चाहिए। विश्व नागरिकता उनका ऐसा ही सपना था। वे चाहते थे कि मानव किसी एक देश का नहीं, बल्कि विश्व का नागरिक हो। एक से दूसरे देश में जाने के लिए कोई क़ानूनी रुकावट न हो। विश्व सभ्यता का सपना यह होना चाहिए। यह सपना लोहिया की विराट मनीषा का द्योतक है। इसमें हर तरह के विभाजन और विरोध का निषेध शामिल है। यह पुस्तक लोहिया के ऐसे ही विचारों का पुंज है। विभिन्न अवसरों पर लिखे गए उनके आलेखों का यह संकलन उनकी मौलिक सोच का प्रमाण है। संस्कृति, दर्शन, इतिहास, भाषा के साथ-साथ स्त्री-पुरुष असमानता और जाति जैसी समस्याओं पर भी उन्होंने नवीन दृष्टि से विचार किया है। वे लकीर के फकीर नहीं थे। किसी भी वाद को उन्होंने आँख मूँदकर न समर्थन दिया और न उसका अनुकरण करने को कहा। गांधीवाद, मार्क्सवाद, सभी को उन्होंने तटस्थ दृष्टि से पढ़ने की सलाह दी क्योंकि हर विचार की अपनी एक काल-संगति होती है, और नए समय में हर विचार के नवीकरण की आवश्यकता होती है।
Lohiya Ke Vichar
Rammanohar Lohia
Bharatmata : Dhartimata
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Rammanohar Lohia
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प्रस्तुत पुस्तक 'भारतमाता-धरतीमाता' समाजवादी विचारक और चिन्तक
डॉ. राममनोहर लोहिया के सामाजिक, सांस्कृतिक (ग़ैर राजनीतिक) लेखों का संग्रह है जो लोहिया के सांस्कृतिक मन और सोच को उजागर करता है। संग्रह के सभी लेख मूल रूप में ग़ैर राजनीतिक हैं, लेकिन कहीं-कहीं राजनीति की झलक ज़रूर दिख जाती है, वह लोहिया की मजबूरी थी। रामायण, राम, कृष्ण तीर्थों और अन्य विषयों पर उनकी जो दृष्टि थी उनमें वे आधुनिक सन्दर्भ को जोड़ते थे, इसलिए कहीं-कहीं राजनीति की झलक मिलती है। संग्रह के सभी लेख लोहिया जी के जीवन-काल में सन् 1950 से 1965 तक के कालखंड के ही हैं, अत: बीच-बीच में आबादी आदि के जो आँकड़े प्रस्तुत किए गए हैं, वे उसी समय के हैं।प्रस्तुत पुस्तक निःसन्देह पठनीय और संग्रहणीय है।
Bharatmata : Dhartimata
Rammanohar Lohia
Samta Aur Sampannta
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Rammanohar Lohia
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Book Type:

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राजनीति के साधारण कार्यकर्ता को मात्र दर्शक नहीं होना चाहिए। उसे पढ़ना-लिखना चाहिए। देश-विदेश की जानकारी और छोटी-बड़ी सूचनाओं पर उसकी नज़र रहनी चाहिए। दरबारगीरी, चापलूसी और चुगलखोरी उसके सबसे बड़े दुश्मन हैं। इन्हीं के चलते भारतीय राजनीति पर यथास्थितिवाद का आवरण पड़ गया है।
बातें जो लोहिया ने 1967 में लिखे एक लेख में कही थीं, इस बात का सबूत हैं कि वे अपने देश की समस्याओं को कितनी गहराई से देख-समझ रहे थे। ‘गैरकांग्रेसवाद और समाजवाद’ शीर्षक इस आलेख में उन्होंने उन विसंगतियों की तरफ़ उसी समय इशारा कर दिया था जो आगे चलकर बहुत नुकसानदेह साबित होनेवाली थीं।
इसी पुस्तक में ‘अंग्रेज़ी हटाओ’ के मुद्दे पर विचार करते हुए वे लिखते हैं : ‘मेरी अपनी राय है कि एक दफ़ा अंग्रेज़ी को हटा करके सभी भाषाओं को मौक़ा दे दिया जाए।’ लोग अंग्रेज़ी में काम न करें, या तो हिन्दी में करें या फिर अपनी मातृभाषा में। इसी आलेख में हिन्दी और उर्दू के विषय में उनका कहना है कि ‘हिन्दुस्तानियों में हिम्मत रही तो हिन्दी-उर्दू एक ही भाषा के दो नाम, रूप और शैलियाँ होकर रहेंगी।’
इस पुस्तक में उनके ऐसे ही अनेक विचार हमें पढ़ने को मिलते हैं जो उनकी दूरदृष्टि और मौलिक सोच के परिचायक हैं। समाज में छोटी मशीनों की उपयोगिता, समता और सम्पन्नता के सम्बन्ध आदि सैद्धान्तिक विषयों के अलावा यहाँ ‘नक्सलबाड़ी’, ‘विद्यार्थी आन्दोलन’, ‘चाँद की यात्रा’ और ‘हिमालय बचाओ’ जैसी तात्कालिक घटनाओं और उनसे जुड़े मुद्दों पर भी उनकी टिप्पणियाँ शामिल हैं।
यह पुस्तक लोहिया के चिन्तन के आधारभूत तत्त्वों को रेखांकित करती हैं।
Samta Aur Sampannta
Rammanohar Lohia
Itihas Chakkra
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Rammanohar Lohia
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- Description: वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में ऐसे नेताओं की कमी बहुत खलती है जो सत्ता की तिकड़मों के बजाय समाज और देश की वास्तविक चिन्ताओं को लेकर न सिर्फ़ सोचने की प्रवृत्ति रखते हों, बल्कि उनमें तमाम परिस्थितियों को एक व्यापक नज़रिए के साथ देखने की क्षमता भी हो। भारतीय राजनीति में एकाधिक व्यक्तित्व ऐसे रहे हैं जो अपनी वैचारिक उद्यमिता में विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता रखते थे। राममनोहर लोहिया ऐसे ही नेता थे। अपने तकरीबन चार दशकों के राजनीतिक जीवन में वे ज़मीनी हक़ीक़तों के अध्ययन और चिन्तन-मनन में इस तरह व्यस्त रहे कि सत्ता-केन्द्रित राजनीति ने उन्हें बहुत अहमियत नहीं दी। न ही उन्होंने इसके लिए कोई हड़बड़ी दिखाई। और जब देश की निगाह उनकी सामर्थ्य की ओर गई, वे चले गए। लेकिन उनकी वैचारिक थाती उनके लेखन के रूप में आज भी हमारे पास है, और हम चाहें तो एक सम्पूर्ण तथा न्यायसंगत समाज का विज़न उनके आधार पर गढ़ सकते हैं। इस पुस्तक में हम इतिहास को लेकर उनकी दृष्टि तथा विचारों से अवगत होते हैं। देखने लायक है कि उनकी इतिहास-दृष्टि जन-गण के जीवन को कभी अपने सामने से ओझल नहीं होने देती। उनके शब्द हैं : “इतिहास को बनाने व समझने में एक हानिकारक भूल यह होती है कि आंशिक कौशल को पूर्ण कौशल समझ लिया जाए और संसार के एक भाग की स्थिति को समस्त संसार पर लागू मान लिया जाए। हम इतिहास के अब तक सूखे रेगिस्तान को ऐसी मृग मरीचिकाएँ और सपनों के ऐसे बाग़ न पैदा करने दें कि दिमाग़ को ऐसे बीजों को अंकुरित होते देखने का भ्रम हो जाए जो अभी बोए भी नहीं गए हैं।” यह पुस्तक लोहिया के इतिहास बोध और दृष्टि की परिचायक है।
Itihas Chakkra
Rammanohar Lohia
Bharat Vibhajan Ke Gunaghar
- Author Name:
Rammanohar Lohia
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भारत की आज़ादी के साथ जुड़ी देश-विभाजन की कथा बड़ी व्यथा-भरी है। आज़ादी के सुनहरे भविष्य के लालच में देश की जनता ने देश-विभाजन का ज़हरीला घूँट दवा की तरह पी लिया, लेकिन यह प्रश्न आज तक अनुत्तरित ही बना हुआ है कि क्या भारत- विभाजन आवश्यक था ही? इस सम्बन्ध में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अवश्य लिखा है और उन्होंने विभाजन की ज़िम्मेदारी तत्कालीन अन्य नेताओं पर लादी है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने विभाजन के निर्णय के समय होनेवाली सभी घटनाओं को प्रत्यक्ष देखा था और इस पुस्तक में उन्होंने देश-विभाजन के कारणों और उस समय के नेताओं के आचरण पर बड़ी निर्भीकता से विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
लोहिया जी इस देश-विभाजन को नक़ली मानते थे और उनका विश्वास था कि एक दिन फिर देश के बँटे हुए टुकड़े एक होकर पूरा भारत एक बनाएँगे। लोहिया का यह सपना सच हो, यही कामना हम भी करते हैं।
—ओंकार शरद
Bharat Vibhajan Ke Gunaghar
Rammanohar Lohia
Bharat Ke Shashak
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राममनोहर लोहिया द्वारा गोवा हाईकोर्ट के चीफ़ जज को लिखे एक ख़त को ‘हरिजन सेवक’ के अक्टूबर, ’46 के एक अंक में पुनर्प्रकाशित करते हुए गांधी ने लिखा था कि ‘डॉ. लोहिया कोई मामूली आदमी नहीं’। यह तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य में लोहिया की महत्ता को रेखांकित करता है। लोहिया उन दिनों गोवा में आज़ादी की पैरवी कर रहे थे और गिरफ़्तार भी हुए थे।
इस पुस्तक में लोहिया के वे आलेख संकलित किए गए हैं जो उन्होंने समय-समय पर राजनीति, समाज, संस्कृति और भाषा आदि विषयों पर विचार करते हुए लिखे। भाषा और शब्दावली के लिहाज से उनका लेखन एक ऐसे व्यक्ति का लेखन है जिसके विचार उसके व्यवहार से पुष्ट होकर आते हैं और इसलिए अत्यन्त स्पष्ट रूप में व्यक्त होते हैं।
यहाँ संकलित लेखों में सबसे ध्यानाकर्षक हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की एकता की इच्छा को लेकर लिखे गए उनके लेख हैं जो उन्होंने बँटवारे के मात्र तीन-चार साल बाद लिखे थे। उनकी कामना थी कि अगर दोनों देशों के लोग थोड़ी भी विद्या-बुद्धि से काम करते चले गए तो दस-पाँच बरस में फिर से एक होकर रहेंगे। लेकिन दुखद है कि यह विद्या-बुद्धि प्रयोग में नहीं लाई जा सकी। इस सकारात्मक दृष्टि की हमें आज और ज़्यादा ज़रूरत है।
इसके अलावा भारत में शासक-परम्परा, समाजवाद, गांधीवाद और समाजवाद, जाति, स्त्री-पुरुष समानता, मातृभाषा की स्थिति, छुआछूत और मन्दिर प्रवेश जैसे विषयों पर भी आप यहाँ (उनके विचार) पढ़ सकेंगे। यह पुस्तक चिन्तक लोहिया के समग्र का एक प्रतिनिधि संकलन है।
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Rammanohar Lohia
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