Namvar Singh
Aalochak Ke Mukh Se
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description: डॉ. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना की वाचिक परम्परा के आचार्य कहे जाते हैं। जैसे बाबा नागार्जुन घूम-घूमकर किसानों और मजदूरों की सभाओं से लेकर छात्र-नौजवानों, बुद्विजीवियों और विद्वानों तक की गोष्ठियों में अपनी कविताएँ बेहिचक सुनाकर जनतांत्रिक संवेदना जगाने का काम करते रहे, वैसे ही नामवर जी घूम-घूमकर वैचारिक लड़ाई लड़ते रहे; रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, कलावाद, व्यक्तिवाद आदि के खिलाफ चिन्तन को प्रेरित करते रहे; नई चेतना का प्रसार करते रहे हैं। इस वैचारिक, सांस्कृतिक अभियान में नामवर जी एक तो विचारहीनता की व्यावहारिक काट करते रहे, दूसरे वैकल्पिक विचारधारा की ओर से लोक शिक्षण भी करते रहे। नामवर जी ने मार्क्सवाद को अध्ययन की पद्धति के रूप में, चिन्तन की पद्धति के रूप में, समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लानेवाले मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में, जीवन और समाज को मानवीय बनानेवाले सौन्दर्य-सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया था। एक मार्क्सवादी होने के नाते वे आत्मालोचन को भी स्वीकार करके चलते रहे। वे आत्मालोचन करते भी रहे। उनके व्याख्यानों और लेखन में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। आलोचना को स्वीकार करने में नामवर जी का जवाब नहीं। यही कारण है कि हिन्दी क्षेत्र की शिक्षित जनता के बीच मार्क्सवाद और वामपंथ के बहुत लोकप्रिय नहीं होने के बावजूद नामवर जी उनके बीच प्रतिष्ठित और लोकप्रिय रहे। इस पुस्तक में नामवर जी के पाँच व्याख्यान संकलित हैं जो उन्होंने पटना में प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से विभिन्न अवसरों पर दिए थे। इन व्याख्यानों को सम्पादित करते हुए भी व्याख्यान के रूप में ही रहने दिया गया है, ताकि पाठक नामवर जी की वक्तृत्व कला का आनन्द भी ले सकें। नामवर जी हिन्दी के सर्वोत्तम वक्ता रहे और माने भी गए। उनके व्याख्यान में भाषा के प्रवाह के साथ विचारों की लय है। इस लय का निर्माण विचारों के तारतम्य और क्रमबद्धता से होता है। अनावश्यक तथ्यों और प्रसंगों से वे बचते थे और रोचकता का भी ध्यान हमेशा रखते थे। आज के साहित्य, विचारधारा, सौन्दर्य, राजनीति और आलोचना से जुड़े तथा उनके अन्तरसम्बन्धों के बारे में महत्त्वपूर्ण बातें इन व्याख्यानों में कही गई हैं। हिन्दी आलोचना की यह एक महत्त्वपूर्ण किताब मानी जाएगी।
Aalochak Ke Mukh Se
Namvar Singh
Baton Mein Beete Din
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description: ‘बातों में बीते दिन’ पुस्तक नामवर सिंह के साक्षात्कारों का संकलन है। इस किताब में शामिल साक्षात्कारों का विषय क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। पेरेस्त्रोइका-ग्लासनोस्त और आधुनिकतावाद से लेकर कविता, कहानी, उपन्यास और निजी जीवन तक। साहित्य और देश-दुनिया की नामवर जी की समझ का एक स्पष्ट प्रतिबिम्ब यहाँ मिलता है। उनकी विश्व-दृष्टि का रूपायन इन साक्षात्कारों में हुआ है। पुस्तक तीन खंडों में बँटी हुई है। मध्यम आकार के और विषय केन्द्रित साक्षात्कार पहले खंड में हैं। दूसरे खंड में रचनाकारों और रचनाओं पर केन्द्रित बातचीत है। प्रेमचन्द, सुमित्रानन्दन पंत, त्रिलोचन और अमृतराय तथा सुमित्रानन्दन पंत की कृति ‘गुंजन’ और कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’—इन साक्षात्कारों के केन्द्र में है। तीसरे खंड में महावीर अग्रवाल द्वारा लिये गए नौ साक्षात्कार हैं जो उनके निजी जीवन से लेकर आलोचना और विविध विषयों से सम्बन्धित हैं। आलोचना लिखित हो या वाचिक—उसके पीछे बुनियादी प्रक्रिया है—पढ़ना, विवेचना, विचारना। तर्क और संवाद। नामवर जी के इन साक्षात्कारों में इसका व्यापक समावेश है। इनसे गुजरते हुए हम महसूस करते हैं कि वह किसी रचना को हमेशा नई और अपनी तरह से पढ़ने की कोशिश करते हैं और इस तरह ‘पढ़ते’ हुए वे लगातार नई तरह से ‘सोचते’ और ‘विचारते’ हुए सामने आते हैं। उनकी वाचिक आलोचना मूल्यांकन की ऊपरी सीढ़ी तक पहुँचती है। निकष बनाती है। प्रतिमानों पर बहस करती है। उसमें ‘लिखित’ की तरह की ‘कौंध’ मौजूद होती है। नहीं होता तो बस पूरापन।
Baton Mein Beete Din
Namvar Singh
Chhayavad
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description:
आलोचकों के विवेचन से कहीं यह स्पष्ट नहीं होता कि छायावादी स्वानुभूति संतों-भक्तों के आत्मनिवेदन से किस बात में भिन्न है; छायावादी कल्पना में प्राचीन कवियों की अप्रस्तुत-विधायिनी कल्पना से क्या विशेषता है; प्रकृति का मानवीकरण करने में छायावाद ने संस्कृत कवियों से कितनी अधिक स्वच्छंदता दिखलाई है, आदि। इन प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर दिए बिना छायावाद के काव्य-सौंदर्य का कोई विवेचन पूर्ण नहीं कहा जा सकता।
इस पुस्तक में छायावाद की काव्यगत विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए छाया-चित्रों में निहित सामाजिक सत्य का उद्घाटन किया गया है। छायावाद पर अनेक पुस्तकों के रहते हुए भी यह पुस्तक दृष्टि की मौलिकता; विवेचन की स्पष्टता तथा आलोचना-शैली की सर्जनात्मकता के लिए लोकप्रिय रही है।
पुस्तक में कुल बारह अध्याय हैं जिनके शीर्षक क्रमश: इस प्रकार हैं : प्रथम राशि, केवल मैं केवल मैं, एक कर दे पृथ्वी आकाश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश, देवि माँ सहचरि प्राण, जागोफिर एक बार, कल्पना के कानन की रानी, रूप-विन्यास, पद विन्यास, खुल गए छंद के बंध, जिसके आगे राह नहीं तथा परंपरा और प्रगति।
Chhayavad
Namvar Singh
Shrilal Shukla Sanchayita
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description: स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज को समझने के लिए जिन रचनाकारों ने अपने तर्क निर्मित किए हैं, उनमें श्रीलाल शुक्ल का महत्त्व अद्वितीय है। विलक्षण गद्यकार श्रीलाल शुक्ल वस्तुतः हमारे समय का विदग्ध भाष्य रचते हैं। उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि वह जटिल और संश्लिष्ट जीवन के प्रति पूर्ण सचेत दिखते हैं। उनका लेखन किसी आन्दोलन या विचारधारा से प्रभावित नहीं रहा, वह भारतीय समाज के आलोचनात्मक परीक्षण का रचनात्मक परिणाम है। राग दरबारी उनकी ऐसी अमर कृति है जिसने हिन्दी रचनाशीलता को राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय सुयश दिलाया। इस संचयिता के छह भाग हैं, जिनमें उनके उपन्यास, कहानी, व्यंग्य, निबन्ध, विनिबन्ध और आलोचनात्मक रचनाएँ समाहित हैं। उन तमाम चीज़ों को इस पुस्तक में शामिल करने का प्रयास किया गया है, जिनकी सार्थकता सार्वकालिक है।
Shrilal Shukla Sanchayita
Namvar Singh
Prithveeraj Raso : Bhasha Aur Sahitya
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description:
‘पृथ्वीराज रासो’ को हिन्दी का आदि महाकाव्य कहलाने का गौरव प्राप्त है। भाषा की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ में अपभ्रंशोत्तर पुरानी हिन्दी के विविध भाषिक रूपों के प्रयोग प्राप्त होते हैं।
‘पृथ्वीराज रासो : भाषा और साहित्य’ नामक शोधग्रन्थ में इस काव्य-ग्रन्थ की भाषा का व्यवस्थित और सांगोपांग भाषा-वैज्ञानिक विश्लेषण करने का पहला प्रयास किया गया है।
वर्तमान स्थिति में जबकि रासो के सुलभ संस्करण सन्तोषप्रद नहीं हैं और वैज्ञानिक संस्करण अभी भी होने को हैं, भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन के लिए सर्वोत्तम मार्ग यही है कि प्राचीनतम पांडुलिपियों में से किसी एक को आधार बना लिया जाए।
प्रस्तुत ग्रन्थ में धारणोज की लघुतम रूपान्तर वाली प्रति को आधार माना गया है, क्योंकि एक तो इसका प्रतिलिपि-काल (सं. 1667 वि.) अब तक की प्राप्त प्रतियों में प्राचीनतम है और दूसरे, इसमें भाषा के रूप भी अपेक्षाकृत प्राचीनतर हैं। इसके साथ ही नागरी प्रचारिणी सभा में सुरक्षित बृहत् रूपान्तर की उस प्रति से भी सहायता ली गई है जिसका प्रतिलिपि-काल सम्पादकों के अनुसार सं. 1640 या 42।
इस ग्रन्थ में भाषा-वैज्ञानिक विवेचन के साथ ही ‘कनवज्ज समय' का सम्पादित पाठ और उसके सम्पूर्ण शब्दों का सन्दर्भसहित कोश भी दिया गया है। इसके अतिरिक्त यथास्थान शब्द-रूपों की ऐतिहासिकता तथा प्रादेशिकता की ओर संकेत भी किया गया है।
विश्लेषण के क्रम में एक ओर डिंगल-पिंगल तत्त्व स्पष्ट होते गए हैं, तो दूसरी ओर हिन्दी की उदयकालीन तथा अपभ्रंशोत्तर अवस्था की भाषा का स्वरूप भी उद्घाटित हुआ है। साथ ही तुलना के लिए तत्कालीन अन्य रचनाओं के भी समानान्तर शब्द-रूप दिए गए हैं।
नवीन परिवर्धित संस्करण का एक अतिरिक्त आकर्षण यह भी है कि इसमें परिशिष्ट-स्वरूप ‘पृथ्वीराज रासो’ की संक्षिप्त साहित्यिक समालोचना भी जोड़ दी गई है।
इस प्रकार यह प्रबन्ध शोधार्थी अध्येताओं के साथ ही हिन्दी के प्रबुद्ध पाठकों के लिए भी एक आवश्यक सन्दर्भ-ग्रन्थ है।
Prithveeraj Raso : Bhasha Aur Sahitya
Namvar Singh
Karl Marx : Kala Aur Sahitya Chintan
- Author Name:
Namvar Singh
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Book Type:

- Description:
कार्ल मार्क्स की दिलचस्पी के मुख्य विषय दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र थे, लेकिन प्रसंगतः उन्होंने कला और साहित्यशास्त्र की समस्याओं पर भी गम्भीर और महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। पिछले सात-आठ दशकों के दौरान इन बिखरे हुए विचारों को एकत्र करके उनकी मीमांसा करने का प्रयास लगातार चलता रहा और विश्व की अनेक भाषाओं में इस विषय पर बहुत कुछ लिखा गया तथा मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र का एक समग्र रूप विकसित किया गया। इस प्रक्रिया में मार्क्स के कला और साहित्य विषयक विचारों पर मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी दोनों ही तरह के लेखकों ने अपने विचार प्रकट किए हैं, और डॉ. नामवर सिंह द्वारा सम्पादित प्रस्तुत संकलन में इन दोनों ही धाराओं के लेखकों के विचारों को संकलित किया गया है।
कार्ल मार्क्स ने कला और साहित्य विषयक जिन प्रश्नों पर विचार किया है, उनमें से कुछ हैं—कला का मनुष्य के कर्म से सम्बन्ध; सौन्दर्यशास्त्र का स्वरूप, कला के सामाजिक और रचनात्मक पहलू, सौन्दर्यानुभूति का सामाजिक स्वरूप, विचारधारात्मक अधिरचना में कला; कला या साहित्यिक कृति का वर्गीय आधार और उसकी सापेक्षिक स्वायत्तता; कला का यथार्थ से सौन्दर्यशास्त्रीय रिश्ता, विचारधारा और संज्ञान; पूँजीवादी व्यवस्था में कलात्मक सृजन तथा माल का उत्पादन, कला में दीर्घजीविता के तत्त्व और उपकरण, रूप और अन्तर्वस्तु का रिश्ता; कला के सामाजिक उद्देश्य, कला की लौकिकता का स्वरूप आदि। प्रस्तुत पुस्तक में संकलित लेखों को पढ़कर पाठक साहित्य और कला से सम्बन्धित इन सभी मुद्दों से परिचित हो सकेगा। मोटे तौर पर यह पुस्तक मार्क्सवादी कला और साहित्य-चिन्तन में होनेवाली बहसों से पाठक का परिचय कराएगी तथा एक हद तक इस विषय में उनकी दृष्टि निर्मित करने में भी मदद करेगी। इस पुस्तक से मार्क्सवादी साहित्य और कला-चिन्तन की गहराई में जाकर उसका अध्ययन करने का रास्ता भी साफ़ होगा।
Karl Marx : Kala Aur Sahitya Chintan
Namvar Singh
Tumhara Namvar
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description:
नामवर सिंह आधुनिक हिन्दी के सबसे बड़े संवादी थे। इस पुस्तक में संकलित पत्र उनके संवादी-भाव को समझने की एक नई दृष्टि देते हैं।
‘तुम्हारा नामवर’ के पहले खंड में परिजनों को लिखे पत्र हैं। मझले भाई रामजी सिंह को सम्बोधित पत्र अनेक दृष्टियों से विशिष्ट हैं। इन पत्रों में आधुनिक एवं पारम्परिक जीवन के द्वन्द्वों के दबावों की अनेक झलकें संकेत रूप में मौजूद हैं। सबसे छोटे भाई काशीनाथ सिंह को लिखे पत्र उन स्थितियों और जीवन-प्रसंगों पर रोशनी डालते हैं जिनमें नामवर सिंह का निर्माण हुआ। व्यक्तिगत पत्रों में बेटी समीक्षा को दार्जिलिंग से लिखे गए दस पत्रों का एक अलग ही महत्त्व है। अठहत्तर वर्ष की अवस्था में गहन भावनाओं से भरे हुए ये पत्र ‘चिट्ठी भी हैं और डायरी भी’। इन्हें हिन्दी की हँसमुख और दिलख़ुश गद्य परम्परा में सम्मान के साथ रखा जा सकता है।
दूसरे खंड में साहित्य-सहचरों—केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, राजेन्द्र यादव, विश्वनाथ त्रिपाठी, रवीन्द्र कालिया, कमला प्रसाद, नंदकिशोर नवल और महेन्द्रनाथ राय—को लिखे गए पत्र संकलित हैं। इन पत्रों में एक पाठक के रूप में नामवर जी अपने समय-साहित्य के विभिन्न मुद्दों पर न सिर्फ़ बातचीत की एक वृहद् ज़मीन तैयार करते दिखते हैं, बल्कि लेखक व सम्पादक के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी भी निभाते नज़र आते हैं। तीसरे खंड में श्रीनारायण पांडेय के नाम लिखे गए पत्रों को व्यक्तिगत-पारिवारिक पत्रों की शृंखला में ही रखा जा सकता है। पांडेय जी 1952-1954 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में नामवर जी के छात्र रहे हैं। ये पत्र काशीनाथ सिंह के नाम पत्रों की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। नामवर जी के व्यक्तित्व के छिपे हुए रूपों के साथ ही उनके राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक विचारों की गम्भीर झलक इन पत्रों में मौजूद है।
इस पुस्तक से बाहर भी अभी हज़ारों पत्र लोगों के निजी संग्रह में मौजूद होंगे। उन्हें भी प्राप्त होने के बाद अगले संस्करण में शामिल कर लिया जाएगा। बावजूद इसके ‘तुम्हारा नामवर’ में संकलित पत्र हिन्दी आलोचना में ‘दूसरी परम्परा की खोज’ करनेवाले नामवर सिंह के जीवन-अनुभव से निकला वह जीवन-दर्शन हैं जिनके आलोक में केवल अतीत, वर्तमान ही नहीं बल्कि भविष्य का भी बहुत कुछ पढ़ा, समझा और रचा जा सकता है।
Tumhara Namvar
Namvar Singh
Namvar Ke Notes
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description:
आज के विमर्शवादी दौर में नामवर जी के कक्षा-व्याख्यान शास्त्र-निर्माण की भारतीय परम्परा के चिह्न की तरह हैं।
भारतीय आचार्यों के प्रति उनका अनाक्रान्त भाव विस्मित करता है। वे स्वाभाविक रूप से उन स्थानों को बताते हैं जहाँ काव्यशास्त्र की परम्परा में उलट-फेर हुआ है। दूसरे जहाँ बचकर निकलते हैं, नामवर जी वहीं रुकते हैं।
पश्चिम में इंडोलॉजी के प्रति आकर्षण रहा है। इसमें काव्यशास्त्र भी एक है। इस आकर्षण के वस्तुगत कारण कौन से हैं? विचार करने पर स्पष्ट होता है कि वहाँ काव्यशास्त्र सम्बन्धी कुछ प्रस्तावनाएँ, आनुषंगिक चर्चाएँ ही रही हैं। भारतवर्ष में काव्यशास्त्र एक विधिवत् शास्त्र रहा है।
भारतीय काव्यशास्त्र शास्त्र-निर्माण की एकान्तिक साधना का फल नहीं है।
संस्कृत काव्यशास्त्र पर विभिन्न अनुशासनों का प्रभाव और अपने को असाधारण सिद्ध करने की बेचैनी दोनों प्रत्यक्ष हैं।
—इसी पुस्तक से
Namvar Ke Notes
Namvar Singh
Ramvilas Sharma
- Author Name:
Namvar Singh
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Book Type:

- Description:
रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के कृतित्व की विकास-यात्रा में एक-दूसरे की अपरिहार्य भूमिका और उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है। यदि नामवर सिंह नहीं होते तो सम्भवतः रामविलास शर्मा के कृतित्व की विशिष्टता, उनकी उपलब्धि और मूल्यांकन कुछ और प्रतीत होते। उसी तरह रामविलास शर्मा की अनुपस्थिति में नामवर सिंह का व्यक्तित्व और कृतित्व शायद कुछ और प्रतीत होता।
रामविलास शर्मा और नामवर सिंह जीवन, संस्कृति, साहित्य और राजनीति से जुड़ी यात्रा में ‘हमराही' से हैं। दोनों एक-दूसरे के चिन्तन और समालोचना को गहराई से प्रभावित करते प्रतीत होते हैं। शीर्षस्थ समीक्षकों ने एक-दूसरे को प्रभावित करने के साथ-साथ एक-दूसरे का मूल्यांकन भी किया है।
सच तो यही है कि रामविलास शर्मा के कृतित्व, उपलब्धि, प्रासंगिकता और सीमाओं का बोध साहित्य-जगत को लगभग उतना ही है, जितना नामवर सिह ने अपनी समीक्षा से प्रस्तुत किया है। तथ्य है कि आज भी हम रामविलास शर्मा के कृतित्व को ‘...केवल जलती मशाल’ और ‘इतिहास की शव-साधना’ के दो ध्रुवान्तों के मध्य ही विश्लेषित करने को मजबूर हैं। रामविलास शर्मा के सन्दर्भ में यह नामवर सिह की समीक्षा की अपरिहार्यता और केन्द्रीयता का दुर्निवार तथ्य और प्रमाण हैं।
रामविलास शर्मा को समीक्षित करने के क्रम में यह संस्कृति, भारतीयता, साहित्य, आलोचना, विचारधारा और अन्ततः जीवन को समीक्षित करनेवाली अपरिहार्य एवं अविस्मरणीय समालोचना पुस्तक प्रतीत होती है।
Ramvilas Sharma
Namvar Singh
Dwabha
- Author Name:
Namvar Singh
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Book Type:

- Description:
नामवर सिंह जीते-जी विशिष्ट शख़्सियत की देहरी लाँघकर एक लिविंग ‘लीजेंड' हो चुके थे। तमाम तरह के विवादों, आरोपों और विरोध के साथ असंख्य लोगों की प्रसंशा से लेकर ‘भक्ति-भाव तक को समान दूरी से स्वीकारने वाले नामवर जी ने पिछले दशकों में मंच से इतना बोला कि शोधकर्ता लगातार उनके व्याख्यानों को एकत्रित कर रहे हैं और पुस्तकों के रूप में पाठकों के सामने ला रहे हैं। यह पुस्तक भी इसी तरह का एक प्रयास है लेकिन इसे किसी शोधार्थी ने नहीं उनके पुत्र विजय प्रकाश ने संकलित किया है।
इस संकलन में मुख्यत: उनके व्याख्यान हैं और साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखे-छपे उनके कुछ आलेख भी हैं। नामवर जी ने अपने जीवन-काल में कितने विषयों को अपने विचार और मनन विषय बनाया होगा, कहना मुश्किल है। अपने अपार और सतत अध्ययन तथा विस्मयकारी स्मृति के चलते साहित्य और समाज से लेकर दर्शन और राजनीति तक पर उन्होंने समान अधिकार से सोचा और बोला। इस पुस्तक में संकलित आलेख और व्याख्यान पुन: उनके सरोकारों की व्यापकता का प्रमाण देते हैं। इनमें हमें सांस्कृतिक बहुलतावाद, आधुनिकता, प्रगतिशील आन्दोलन, भारत की जातीय विविधता जैसे सामाजिक महत्त्व के विषयों के अलावा अनुवाद, कहानी का इतिहास, कविता और सौन्दर्यशास्त्र, पाठक और आलोचक के आपसी सम्बन्ध जैसे साहित्यिक विषयों पर भी आलेख और व्याख्यान पढ़ने को मिलेंगे।
पुस्तक में हिन्दी और उर्दू के लेखकों-रचनाकारों पर केन्द्रित आलेखों के लिए एक अलग खंड रखा गया है जिसमेँ पाठक मीरा, रहीम, संत तुकाराम, प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, त्रिलोचन, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, परसाई, श्रीलाल शुक्ल, ग़ालिब और सज्जाद ज़हीर जैसे व्यक्तित्वों पर कहीं संस्मरण के रूप में तो कहीं उन पर आलोचकीय निगाह से लिखा हुआ गद्य पढ़ेंगे।
बानगी के रूप में देश की सांस्कृतिक विविधता पर मँडरा रहे संकट पर नामवर जी का कहना है : ‘संस्कृति एकवचन शब्द नहीं है, संस्कृतियाँ होती हैं...सभ्यताएँ दो-चार होंगी लेकिन संस्कृतियाँ सैकड़ों होती हैँ...सांस्कृतिक बहुलता का नष्ट होते हुए देखकर चिन्ता होती है और फिर विचार के लिए आवश्यक स्रोत ढूँढ़ने पड़ते हैं।’ यह पुस्तक ऐसे ही विचार-स्रोतों का पुंज है।
Dwabha
Namvar Singh
Poorva-Rang
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description:
“ऐसे युग में जहाँ मान्यताएँ विवादग्रस्त और अनिश्चित हों, ऐन्द्रिय विषय ही निश्चित हैं और उन्हीं का यथातथ्य चित्रण सम्भव भी है। यही वजह है कि आज के अधिकांश किशोर तथा किशोर-मति कवि प्राकृतिक चित्रों की खोज में विकल हैं। झंझटों से बाहर निकलने का यह आसान तरीक़ा है। समाज से कम झंझट प्रकृति में है और प्रकृति में भी इन्द्रियग्राह्य प्रभावों के चित्रण में सबसे कम झंझट है।” नामवर जी ने यह टिप्पणी 1957 में 'कवि' पत्रिका के 'विशिष्ट कवि' शीर्षक स्तम्भ में मुक्तिबोध से अन्य कवियों की तुलना करते हुए की थी। उल्लेखनीय है कि इस काल-खंड में उन्होंने श्री विष्णुचन्द्र शर्मा द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘कवि' के लिए ‘कविमित्र' नाम से काफ़ी समय तक एक स्तम्भ लिखा था जिसमें वे समकालीन कविता और कवियों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ करते थे। इस संकलन में उनमें से ज़्यादातर को ले लिया गया है।
पुस्तक में शामिल अन्य आलेख भी ज़्यादातर पाँचवें दशक में लिखे गए थे जिनमें से कुछ प्रकाशित हैं और कुछ अप्रकाशित। ऐसे अधूरे आलेख भी यहाँ जुटाए गए हैं जो किसी कारण से पूरे नहीं लिखे जा सके और जिन्हें काशीनाथ जी ने अपने पास सहेजकर रखा था। कहना न होगा कि इस पुस्तक में उस दौर के नामवर जी से हमारा परिचय होगा जब वे अपनी स्थापनाओं को आकार दे रहे थे और जिन्हें हमने बाद में आई उनकी पुस्तकों में देखा।
Poorva-Rang
Namvar Singh
Itihas Aur Aalochana
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description: ‘इतिहास और आलोचना’ स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य के प्रथम दशक में साहित्य के प्रगतिशील मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए किए जानेवाले संघर्ष का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। आरम्भ के आठ निबन्धों में उन व्यक्ति-स्वातंत्र्यवादी साहित्यिक मान्यताओं का तर्कपूर्ण खंडन किया गया है जो शीतयुद्ध की राजनीति के प्रभाव में साहित्य के अन्दर वास्तविकता के स्थान पर ‘अनुभूति’ को, वस्तु के ऊपर रूप को और व्यापकता से अधिक गहराई को स्थापित करने का प्रयत्न कर रही थीं। अन्त के चार निबन्धों में इतिहास के एक नए दृष्टिकोण के साथ साहित्यिक इतिहास के पुनर्मूल्यांकन की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है, जिससे समकालीन समस्याओं के समाधान के लिए एक वस्तुगत सैद्धान्तिक आधार उपलब्ध होता है। नई कविता और छायावाद के कुछ पक्षों की व्यावहारिक आलोचना इस ग्रन्थ का अतिरिक्त आकर्षण है। कुल मिलाकर विचारों की ताज़गी और द्वन्द्वात्मक विवेचन शैली के कारण ‘इतिहास और आलोचना’ आज भी प्रासंगिक पुस्तक है।
Itihas Aur Aalochana
Namvar Singh
Wad Vivad Samwad
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description:
पुस्तक की भूमिका ‘अनभै साँचा’ में एक वाक्य है—‘हिन्दी संस्कृति में वाद-विवाद को अच्छा नहीं समझा जाता।’ बावजूद इसके यदि डॉ. नामवर सिंह वाद-विवाद को करणीय मानते हैं तो उद्देश्य उनका संवाद ही है, क्योंकि साहित्य हो या समाज, संवादहीनता ठहराव और घुटन को जन्म देती है।
‘वाद विवाद संवाद’ के तमाम निबन्धों की रचना इसी पृष्ठभूमि में हुई है और वह भी इस महत्त्वपूर्ण, आत्मस्वीकृति के साथ कि ‘अपने आप से असहमति का जोखिम उठाकर भी दूसरे के साथ संभाव्य सहमति की तलाश वांछनीय है और मानवीय भी। सुसंगति की वेदी पर इस मानवीय दुर्बलता की बलि देने का मन नहीं होता।’ क्योंकि साहित्य न तो तर्कशास्त्र है और न मनुष्य। वस्तुतः यही वह भावना है जो संवाद को रचनात्मक बनाती है। उल्लेखनीय है कि यहाँ संकलित निबन्धों में से अधिसंख्य पिछले तीन दशकों के दौरान हिन्दी आलोचना के अन्तर्गत तीव्र वाद-विवाद के केन्द्र में रहे हैं। नामवर जी ने इनमें अत्यन्त बारीकी और बेबाकी से उन मुद्दों पर विचार किया है जो कि समकालीन भाषा, साहित्य और आलोचना-कर्म की बुनियादी चिन्ताओं से सम्बद्ध हैं जिन्हें प्रायः अनदेखा कर दिया जाता है। ऐसे निबन्धों में ‘आलोचना की संस्कृति और संस्कृति की आलोचना’, ‘प्रासंगिकता का प्रमाद’, ‘प्रगतिशील साहित्य-धारा में अंध लोकवादी रुझान’, ‘प्रगीत और समाज’, ‘युवा लेखन पर एक बहस’, ‘विश्वविद्यालय में हिन्दी’ तथा ‘आलोचना और संस्थान’ विशेष रूप से पठनीय हैं।
निश्चय ही यह एक ऐसी आलोचनात्मक कृति है जो हमारे साहित्यिक संस्कार और समझ को अधिकाधिक सार्थक और प्रासंगिक बनाती है।
Wad Vivad Samwad
Namvar Singh
Hindi Ka Gadhyaparv
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description:
नामवर सिंह न सीमित अर्थों में साहित्यकार थे और न आलोचक। वे हिन्दी में मानवतावादी, लोकतांत्रिक और समाजवादी विचारों की व्यापक स्वीकृति के लिए सतत संघर्षशील प्रगतिशील आन्दोलन के अग्रणी विचारक थे।
यह पुस्तक साक्ष्य है नामवर जी के लेखन-जीवन का—एक दस्तावेज़ी साक्ष्य। इसमें उनका पहला प्रकाशित निबन्ध है और अन्तिम निबन्ध ‘द्वा सुपर्णा...’ और ‘पुनर्नवता की प्रतिमूर्ति’ भी।
पूर्व प्रकाशित ख्यातिनाम और लोकप्रिय पुस्तकों के बावजूद इस तरह की पुस्तक का विशेष महत्त्व इसलिए भी है कि इस एक अकेली पुस्तक में नामवर जी की विकास-यात्रा के प्राय: सभी पड़ावों की झलक मौजूद है। निबन्धों के लेखन-काल की ही तरह उनके विषय भी विस्तृत क्षेत्र में फैले हैं। परन्तु इस पुस्तक के केन्द्र में है—आलोचना। वैश्विक पृष्ठभूमि वाले आलोचकों जॉर्ज लूकाच, लूसिएँ गोल्डमान और रेमंड विलियम्स से लेकर भारतीय परम्परा को पुनर्नवा करनेवाले गौरव नक्षत्रों—आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और डॉ. रामविलास शर्मा पर लिखे गए निबन्ध यहाँ एक साथ मौजूद हैं। दीर्घ सक्रियता की अवधि में नामवर जी ने पुस्तक समीक्षाएँ प्राय: नहीं लिखीं। इस पुस्तक में अलग-अलग अवसरों पर लिखी गईं पाँच समीक्षाएँ भी मौजूद हैं।
Hindi Ka Gadhyaparv
Namvar Singh
Kahani Nai Kahani
- Author Name:
Namvar Singh
-
Book Type:

- Description:
प्रस्तुत पुस्तक लगभग एक दशक की चिन्तन-यात्रा की पगडंडी है जिसमें कथा-समीक्षा की एक पद्धति निकालने की कोशिश की गई है।
इस कहानी में आलोचना की वही विश्लेषणात्मक पद्धति अपनाई गई है जो पिछले कुछ दशकों से छोटी कविताओं के विश्लेषण में सफल पाई गई थी। इस निबन्ध से, मेरे निकट, उन लोगों के लिए भी उत्तर प्रस्तुत था जिनका यह आरोप था कि मैं कहानी-समीक्षा में काव्य-समीक्षा की पद्धति का बलात् उपयोग करके भूल कर रहा हूँ।
हिन्दी आलोचना जो अभी तक मुख्यतः काव्य-समीक्षा रही है, कविता से कथा-नाटक आदि साहित्य-रूपों का विधिवत् विश्लेषण करके ही अपने को सुसंगत एवं समृद्ध बना सकती है। कहानी-समीक्षा सम्बन्धी ये निबन्ध इसी दिशा में विनम्र प्रयास हैं। इसीलिए इनका महत्त्व केवल कहानियों की समीक्षा तक सीमित न होकर एक व्यापक समीक्षा-पद्धति के निर्माण की दिशा में है।
Kahani Nai Kahani
Namvar Singh
Kavita Ki Zameen Aur Zameen Ki Kavita
- Author Name:
Namvar Singh
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Book Type:

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‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ’, ‘छायावाद’ और ‘कविता के नए प्रतिमान’ जैसी कविता-केन्द्रित पुस्तकों के लेखक प्रो. नामवर सिंह के अब तक असंकलित कविता-केन्द्रित निबन्धों का संकलन है—‘कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता’। ये निबन्ध लगभग पाँच दशकों की विस्तृत अवधि में लिखे गए थे। संस्कृत कविता से लेकर प्रगतिशील काव्यधारा और नई कविता के कवियों पर केन्द्रित निबन्ध यहाँ एक साथ संकलित हैं। साथ ही साथ कविता के प्रतिनिधि कवियों ब्रेख़्त और विशेषत: पाब्लो नेरुदा पर केन्द्रित अनेक निबन्ध यहाँ मौजूद हैं। पुस्तक का केन्द्र प्रगतिशील और नई कविता है। ‘ज्ञानोदय’ में ‘नई कविता पर क्षण भर’ शृंखला तथा उस समय के अन्य निबन्धों में हमें सहज ही ‘कविता के नए प्रतिमान’ जैसी प्रबन्धात्मक और संवादी पुस्तक के आलोचनात्मक मानस का विकास दिखाई देता है। बाद में विकसित हुई अनेक अवधारणाएँ यहाँ बीज रूप में मौजूद हैं।
नागार्जुन-शमशेर पर लिखे गए निबन्धों से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि ये निबन्ध ‘कविता के नए प्रतिमान’ पुस्तक की काव्य-दृष्टि का विस्तार और स्पष्टीकरण एक साथ है। एक हद तक उसमें छूट गए महत्त्वपूर्ण रचना-संसार को फ़ोकस में लाने का एक गम्भीर प्रयास भी। एक तरह का प्रत्याख्यान। एक आलोचना प्रयास के केन्द्र में यदि मुक्तिबोध हैं तो दूसरे के केन्द्र में हैं नागार्जुन और त्रिलोचन। कहना न होगा कि इन शीर्ष कवियों के माध्यम से प्रगतिशील काव्यधारा का खंडित रहा परिदृश्य इस तरह नामवर के आलोचना संसार में रचनात्मक पूर्णता के साथ उपस्थित हो पाया है।
Kavita Ki Zameen Aur Zameen Ki Kavita
Namvar Singh
Kavita Ke Naye Pratiman
- Author Name:
Namvar Singh
-
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‘कविता के नए प्रतिमान’ में समकालीन हिन्दी आलोचना के अन्तर्गत व्याप्त मूल्यान्ध वातावरण का विश्लेषण करते हुए उन काव्यमूल्यों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है जो आज की स्थिति के लिए प्रासंगिक हैं।
प्रथम खंड के अन्तर्गत विशेषतः ‘तारसप्तक’, ‘कामायनी’, ‘उर्वशी’ आदि कृतियों और सामान्यतः छायावादोत्तर कविता की उपलब्धियों को लेकर पिछले दो दशकों में जो विवाद हुए हैं, उनमें टकरानेवाले मूल्यों की पड़ताल की गई है; और इस प्रसंग में नए दावे के साथ प्रस्तुत ‘रस सिद्धान्त’ की प्रसंगानुकूलता पर भी विचार किया गया है।
दूसरे खंड में ‘कविता के नए प्रतिमान’ के नाम पर प्रस्तुत अनुभूति की ‘प्रामाणिकता’, ‘ईमानदारी’, ‘जटिलता’, ‘द्वन्द्व’, ‘तनाव’, ‘विसंगति’, ‘विडम्बना’, ‘सर्जनात्मक भाषा’, ‘बिम्बात्मकता’, ‘सपाटबयानी’, ‘फ़ैंटेसी’, ‘नाटकीयता’ आदि आलोचनात्मक पदों की सार्थकता का परीक्षण किया गया है। इस प्रक्रिया में यथाप्रसंग कुछ कविताओं की संक्षिप्त अर्थमीमांसा भी की गई है, जिनसे लेखक द्वारा समर्थित काव्य-मूल्यों की प्रतीति होती है।
निष्कर्ष स्वरूप नए प्रतिमान एक जगह सूत्रबद्ध नहीं हैं, क्योंकि लेखक इस प्रकार के रूढ़ि-निर्माण को अनुपयोगी ही नहीं, बल्कि घातक समझता है। मुख्य बल काव्यार्थ ग्रहण की उस प्रक्रिया पर है जो अनुभव के खुलेपन के बावजूद सही अर्थमीमांसा के द्वारा मूल्यबोध के विकास में सहायक होती है।
Kavita Ke Naye Pratiman
Namvar Singh
Kitabnama
- Author Name:
Namvar Singh
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नामवर सिंह पाठ से गहरा, आत्मीय और संवादी तादात्म्य स्थापित कर सकने वाले आलोचक थे। अपने व्याख्यानों और साक्षात्कारों में वे उपन्यासों, कहानियों, कविताओं, निबन्धों, नाटकों और आलोचना-निबन्धों पर जिस तरह बात करते थे, उससे इसकी पुष्टि होती है।
पाठ का आस्वाद करने की क्षमता आलोचक के संवेदनात्मक आधारों पर निर्भर करती है और उसका विवेचन कर पाने की शक्ति उसकी ज्ञानात्मक तैयारी पर। यदि वह अपनी तैयारी के दौरान अन्तरानुशासित होकर जीवन-जगत को देखने की दृष्टि विकसित कर पाया है, तभी वह रचना के पाठ के जीवन-जगत में फैले आधारों को देख पाएगा।
प्रत्येक कृति अन्तत: एक विशिष्ट भाषा, उसकी साहित्यिक परम्परा और विधागत विरासत से संबद्ध होती है। एक परम्परा-सजग आलोचक ही इस बात की पहचान कर सकता है कि रचना परम्परा में कहाँ और किस वैचारिक-सौन्दर्यात्मक धारा में स्थित है। नामवर सिंह एक आलोचक के रूप में ‘पाठ’ से ऐसा गहरा और संवादी रिश्ता बना पाते थे, जहाँ उनकी ये सारी खूबियाँ एक साथ देखी जा सकती हैं।
Kitabnama
Namvar Singh
Kashi Ke Naam
- Author Name:
Namvar Singh
-
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- Description: हिन्दी की कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास और आलोचनाएँ—यहाँ तक कि साहित्यिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक बहसें भी पिछले पचास वर्षों से अपने को टटोलने और जाँचने-परखने के लिए जिस अकेले एक समीक्षक से वाद-विवाद-संवाद करके सन्तोष का अनुभव करती रही थीं, निर्विवाद रूप से उसका नाम नामवर सिंह था। ‘काशी के नाम’ उन्हीं की चिट्ठियों का संकलन है जो उन्होंने काशीनाथ को लिखी थीं। नामवर सिंह हिन्दी के किंवदन्ती पुरुष थे। नब्बे वर्ष की उम्र में भी उतने ही तरो-ताज़ा और ऊर्जावान जितना पहले थे। वे अन्तत: न थके, न झुके। हर समय अपनी कहने को तैयार, दूसरे की सहने को तैयार। असहमति और विरोध तो जैसे उनके जुड़वाँ हों। हर आनेवाली पीढ़ी उन्हें देखना चाहती थी, सुनना चाहती थी लेकिन जानना भी चाहती थी—उनकी शख़्सियत के बारे में, उनके घर-परिवार के बारे में, नामवर के ‘नामवर’ होने के बारे में! क्योंकि वे जितने अधिक ‘दृश्य’ थे, उससे अधिक अदृश्य थे। इसी अदृश्य नामवर को प्रत्यक्ष करता है ‘काशी के नाम’। ऐसे तो, साहित्य के अनेक प्रसंगों से भरी पड़ी हैं चिट्ठियाँ लेकिन सबसे दिलचस्प वे टिप्पणियाँ हैं जो भाई काशी की कहानियों पर की गई हैं। कोई मुरव्वत नहीं, कोई रियायत नहीं, बेहद सख़्त और तीखी। ऐसी कि दिल टूट जाए। लेकिन अगर काशी का कुछ लिखा पसन्द आ गया तो नामवर का आलोचक सहसा भाई हो जाता है—भाव-विह्वल और आत्मविभोर। ‘काशी के नाम’ चिट्ठियों में जीवन और साहित्य साथ-साथ हैं—एक-दूसरे में परस्पर गुँथे हुए। घुले-मिले! कोई ऐसी चिट्ठी नहीं, जिसमें सिर्फ़ जीवन हो, साहित्य नहीं, या साहित्य हो जीवन नहीं। यदि एक तरफ़ नामवर का संघर्ष है, माँ-पिता हैं, भाई हैं, बेटा-बेटी हैं, भतीजे-भतीजियाँ हैं, उनकी चिन्ताएँ और परेशानियाँ हैं, तो उसी में कहीं न कहीं या तो साहित्यिक हलचलों या गतिविधियों पर टिप्पणियाँ हैं या ‘जनयुग’ और ‘आलोचना’ की ज़रूरतें हैं, या किन्हीं लेखों या कहानियों के ज़िक्र हैं या कथाकार को हिदायतें हैं। यानी परिवार हो या साहित्य-संसार या ये दोनों—इनके झमेलों के बीच नामवर के ‘मनुष्य’ को देखना हो तो किसी पाठक के लिए इन चिट्ठियों के सिवा कोई विकल्प नहीं।
Kashi Ke Naam
Namvar Singh
Sath-Sath
- Author Name:
Namvar Singh
-
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‘साथ-साथ’ मुख्यतः परिसंवादों का संकलन है। इन परिसंवादों में नामवर सिंह एक पक्ष के रूप में शामिल हुए हैं। परिसंवाद उपनिषदों और संगीतियों की परम्परा का ही आधुनिक रूप है। संवाद का सर्वाधिक लोकतांत्रिक रूप। इसमें वक्ता को वार्ताकारों के अन्य पक्षों के साथ अपनी बात कहनी होती है। यह एक तरह की बहुपक्षी जुगलबन्दी है।
पुस्तक में चार परिचर्चाएँ हैं। इनसे गुज़रते हुए हम सहज ही देख पाते हैं कि आलोचक के रूप में नामवर सिंह ‘संवाद’ को कितना महत्त्व देते थे। साथी वार्ताकारों के व्यक्तित्व और विचारों को पूरी विनम्रता के साथ सुनना, उनकी उपस्थिति को स्वीकारना और उनके विचारों को ‘लोकतांत्रिक’ जगह के भीतर ही तर्क-वितर्क की परिधि में लाना—उनके संवादी व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा था। सभी संवादों को एक साथ देखने पर हम पाते हैं, ये किसी एक विषय से बँधे नहीं हैं। बातचीत का समय भी दूर तक फैला हुआ है। इस अर्थ में यह पुस्तक एक राग-माला की तरह है। हिन्दी आलोचना के अनेक पक्षों के बीच नामवर जी की पक्षधरताएँ यहाँ स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई हैं।
पुस्तक में विशेष महत्त्व के दो साक्षात्कार सम्मिलित हैं। पहला साक्षात्कार रामविलास शर्मा से लिया गया है। रामविलास शर्मा से दूसरी बातचीत एक परिचर्चा है। पहली बातचीत के क्रम में इसे पढ़ने पर अनेक ऐतिहासिक बहसों के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की वैचारिक स्थिति स्पष्ट होती है। इस बातचीत से वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच मौजूद स्वस्थ लोकतांत्रिकता और ईमानदार बहस-धर्मिता सामने आती है। स्पष्ट होता है कि हमारे समय में क्षीण हो रहे इस निर्भय आलोचनात्मक विवेक के बग़ैर वामपंथी विचार परम्परा का विकास नहीं हो सकता है।
Sath-Sath
Namvar Singh
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