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Kumar Ambuj

Atikraman

  • Author Name:

    Kumar Ambuj

  • Book Type:
  • Description: हमारे दौर की कविता के बारे में कभी-कभी एक आलोचना यह भी सुन पड़ती है कि ज़्यादातर कवियों के पहले कविता-संग्रह ही उनके सबसे अच्छे संग्रह साबित होते हैं, दूसरे संग्रहों तक आते-आते उनका प्रकाश मन्द हो जाता है, यथार्थ की काली गहराइयों में जाकर उनकी लालटेनें बुझने लगती हैं। इस बात में अगर कोई सचाई है तो कुमार अंबुज को उसके अपवाद की तरह देखा जा सकता है। अंबुज का पहला कविता-संग्रह 1992 में प्रकाशित हुआ था और सिर्फ़ दस वर्ष के अन्तराल में उनके चौथे संग्रह का छपना सबसे पहले यह बतलाता है कि इस कवि के पास कहने के लिए बहुत कुछ है : निरवधि काल और विपुल पृथ्वी है, बल्कि एक पूरा सौरमंडल है, निर्वात और सघन पदार्थों में से गुज़रना उसका रोज़ का काम है। वायुमंडल की सैर करते-करते वह ग्रह-नक्षत्रों को खँगाल लेता है, मंगल ग्रह के लोहे को अपने शरीर और रक्त में महसूस करता है और अन्तत: अपनी पृथ्वी पर लौट आता है। इस अछोर कायनात को खोजने-जानने के लिए कुमार अंबुज के पास उतनी ही विस्तृत भाषा भी है जिस पर उन्हें इतना विश्वास है कि एक कविता में वे ‘भाषा से परे का यह दुर्गम पहाड़’ भी ‘भाषा की लाठी के सहारे ही’ पार करना चाहते हैं। इस संग्रह की पहली और बीज-कविता जैसी रचना में वे ख़ुद को एक ऐसे पुराने ताँबे के पात्र की तरह देखते हैं जिसे कोई ‘इतिहास की राख से माँजता है’ और ‘एक शब्द माँजता है मुझे/एक पंक्ति माँजती रहती है/अपने खुरदुरे तार से।’

    जीवन और कविता की उदात्तता को कुमार अंबुज बार-बार रचते हैं, प्राय: उसका एक नया स्थापत्य बनाने की कोशिश करते हैं लेकिन इतना-भर इस कविता का अभीष्ट नहीं है, बल्कि एक महाविमर्श के छोटे-छोटे ब्योरों, उसके बारीक ताने-बाने में प्रवेश करते हुए उसके अर्थों को खोजना ही उसकी मूल प्रतिज्ञा है और इसीलिए अंबुज यह देख पाते हैं कि ‘एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश’ और ‘इस एक के लिए/इस एक के विश्वास से/लड़ता हूँ हज़ारों से/इस एक की परवाह करता हूँ।’ एक महाजीवन के इसी ‘एक’ को लेकर कुमार अंबुज के सरोकार इतने व्यापक हैं कि वे ‘अभी-अभी दर्ज हुई एक नई ऋतु’ को ‘एक कीड़े के अपूर्व राग में गाते हुए’ सुन पाते हैं और यह संकल्प भी व्यक्त कर सकते हैं कि ‘यह एक कमज़ोर इच्छा है जिसकी चहलक़दमी की आवाज़/एक तानाशाह की इच्छा की आवाज़ से टकराती है।’ दरअसल इस एक का हालचाल जानने की तड़प ही कुमार अंबुज को अनेकता के सौरमंडल तक ले जाती है। अनेक कविताओं में वे जीवन का एक रूपक खड़ा करते प्रतीत होते हैं लेकिन सहसा उस रूपक को भेदकर उसके दारुण यथार्थ में प्रवेश कर जाते हैं।

    एक मूलभूत सरलता से संश्लिष्टता की ओर कुमार अंबुज की यह यात्रा एक उल्लेखनीय अनुभव है जिसका साक्ष्य उनकी इन कविताओं की संरचना, उनके ख़ास पैटर्न में भी मिलता है। वे शुरू में प्राय: एक शान्त-सुन्दर प्रवेश-द्वार की तरह दिखती हैं लेकिन उसके खुलते ही जैसे एक जटिल यथार्थ के आयाम प्रकट होने लगते हैं, जहाँ ‘ग़रीब की बुदबुदाहट का अनुवाद’ कुछ इस तरह होता है कि ‘लकड़ी का बुरादा भी जगा देता है मेरी भूख’ और ‘जीवन में एकदम ख़ाली’ एक दिन भी पूरे जीवन की गतिविधि में इतना स्पन्दित और स्मृति में इतना चिन्हित दिखता है कि उसे ‘न उम्र में से घटाया जा सकेगा/और जोड़कर देखने में होगा एक अपराध।’ यह एक लगभग सिनेमाई शिल्प है जिसमें एक सुन्दर शुरुआत एक विरूप विस्तार की ओर जा सकती है, एक प्रतीक, एक अमूर्तन हमें एक यथार्थपरक और ठोस संसार में ले जाता है, फिर सहसा अपने मूल बिम्ब में लौटता है और दूसरी वास्तविकता की ओर बढ़ने लगता है। इस संग्रह की एक कविता ‘रेखागणित’ अंबुज की इस काव्य-प्रविधि का उकृष्ट उदाहरण है जिसमें एक सीधी-सरल रेखा के गणित में एक पूरे जीवन को, उसके आश्चर्यों और रोमांचों, उसकी निश्छलता और ऐन्द्रियता को, उसके न्याय और अन्याय की परस्पर न मिलनेवाली समान्तर लकीरों को अन्तत: इस उम्मीद के साथ देखा गया है कि ‘वहीं कहीं छिपा हो सकता है/ज़िन्दगी को आसान कर सकनेवाला प्रमेय।’

    किसी भी रचनाकार के लिए अपने शिल्प को लाँघना कठिन काम होता है, लेकिन अंबुज की संवेदना अपने कथ्य के अनुरूप शिल्प सहजता से उपलब्ध कर लेती है, क्योंकि एक समृद्ध काव्य-भाषा उनका सबसे कारगर औज़ार है। इसीलिए ‘रेखागणित’, ‘चुम्बक’, ‘जीवाश्म’, ‘मेढक’, ‘मुर्गी’, ‘हस्तलिपि’ जैसे नए अनुभवों की मार्मिक शक्लें निर्मित होती हैं और ‘एक कम है’, ‘अतिक्रमण’, ‘मानकीकरण’, ‘मैं एक आततायी को जानता हूँ’, ‘कवि व्याप्ति’, ‘कला का कोना’, ‘भाषा से परे’, ‘एक और शाम’ और ‘मध्यवर्गीय ओट’ जैसी किंचित् परिचित भावभूमि के अपरिचित आयाम खुलते हैं। करुणा और नैतिकता, जो कि कविता के स्थायी-अपरिवर्तनीय सुर हैं, जैसे अंबुज की कविताओं में ताने-बाने की तरह मौजूद हैं—इसीलिए ‘असाध्य रोग’ में सहज, गद्यात्मक लोकोक्ति जैसी बात को वे विचलित करनेवाले तरीक़े से लिख सकते हैं : ‘आँसुओं से कोई दवा तैयार हो सकती होती/तो कोई रोग असाध्य नहीं रह जाता।’ ‘पगडंडी’ कविता बताती है कि ‘जब सारी दुनिया चमकदार सड़कों से भर जाएगी, तब भी एक राह को दूसरी राह से जोड़ती पगडंडी बची रहेगी।’ कुमार अंबुज ख़ुद किसी राजमार्ग पर नहीं, बल्कि कविता की एक पगडंडी पर चलते उसी हाशिये, उसी किनारे से राजमार्गों के जाल को देखते आए हैं, क्योंकि न्याय और अन्याय की समान्तर रेखाएँ भले ही आपस में न मिलें, अन्याय का प्रतिरोध और न्याय की प्रतिष्ठा इसी राह से सम्भव है।

Atikraman

Atikraman

Kumar Ambuj

250

₹ 200

Ichchhayen

  • Author Name:

    Kumar Ambuj

  • Book Type:
  • Description: मैं कुमार अंबुज की कविताओं का तो प्रशंसक रहा हूँ लेकिन मुझे दूर-दूर तक यह ख़याल नहीं था कि वे कहानी की दुनिया में भी क़दम रखेंगे। क़दम भी ऐसा कि कहानी की परिभाषा ही बदल दी है। ये चित्रों में कही गई कहानियाँ हैं। एक कैमरे की आँख है जो एक-एक बारीक दृश्य को देखती है। भाषा अंबुज की इन कहानियों की सबसे बड़ी ताक़त है जो हर दृश्य की सूक्ष्म परतों को खोलती चली जाती है।

    —नामवर सिंह

    इन कहानियों की रेंज बहुत व्यापक है, प्राय: ही अपने समय, समाज और जीवन का बहुत कुछ घेरते हुए। छोटे-छोटे उदाहरण या ब्यौरों से कुमार अंबुज क़िस्सागोई की कला को जैसे एक नया आयाम देते हैं। इन्हीं छोटी-छोटी चीज़ों से वे समाज और राष्ट्र की बड़ी चिन्ता से जुड़ते हैं, यहीं से वे भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के बढ़ते संक्रमण के प्रतिवाद और प्रतिरोध के सूत्र उठाते हैं। ये प्रच्छन्न इच्छाएँ ही वस्तुत: एक दुनिया के प्रतिवाद के साथ दूसरी वैकल्पिक दुनिया का संकेत देती हैं। ये गहरे में जाकर मनुष्य को मानवीय बनाने और बने रहने के उद्यम के अंग हैं। कुमार अंबुज की ये कहानियाँ बार-बार पढ़े जाने को उकसाएँगी।

    —मधुरेश

    ये कहानियाँ हमारे जीवन के बेहद मामूली अनुभवों के बीच से असाधारणता का विरल तत्त्व खोजने का जो साहस दिखाती हैं, वह हिन्दी के सन्दर्भ में बेहद औचक और नया है। समूचे सामाजिक एवं बौद्धिक जीवन में जो ठहराव धीरे-धीरे घर कर रहा है, उसकी तह तक पहुँचने, उसे तोड़ने और उसका सर्जनात्मक विकल्प तैयार करने का महत्त्वपूर्ण काम ये कहानियाँ सहजता और बेहद सादगी के साथ करती हैं। यही इन विलक्षण कहानियों की सबसे बड़ी सफलता भी है।

    —जितेन्द्र भाटिया

Ichchhayen

Ichchhayen

Kumar Ambuj

300

₹ 240

Kivaar

  • Author Name:

    Kumar Ambuj

  • Book Type:
  • Description: कुमार अंबुज की कविताओं में एक तरह की ऐसी ताज़गी, सहजता और ओढ़ी हुई वैचारिक मुद्रा की अनुपस्थिति है जो उन्हें बहुत से समकालीन युवा कवियों से अलग करती है। 'किवाड़' में सामान्य परिचित वस्तुएँ और स्थितियाँ ऐसे गहरे लगाव और अभिव्यक्ति के संयम के साथ प्रस्तुत हुई हैं कि उनसे मानवीय सम्बन्धों और सच्चाइयों की सूक्ष्म अनुगूँज सुनाई पड़ती है।

    —नेमिचन्द्र जैन

    कुमार अंबुज के पास दृष्टि की तलाश और बोध का धरातल है और यही बात उनकी कविताओं में व्यक्त अनुभव लोक को मूर्त और सार्थक बनाती है। कवि की चिन्ताएँ ज़्यादा बड़ी हैं, उनकी जड़ें दूर तक फैली हुई हैं—अपने आसन्न परिवेश से मनुष्य के सुदूर इतिहास तक। यहाँ अपने समय के अतुकान्त जीवन के लिए तुकें ढूँढ़ने की यह रचनात्मक लड़ाई पाठक को ऐसे बिन्दु तक ले जाती है जहाँ जीवन और काव्य के बीच का पार्थक्य समाप्त हो जाता है।

    —केदारनाथ सिंह

Kivaar

Kivaar

Kumar Ambuj

250

₹ 200

Kroorata

  • Author Name:

    Kumar Ambuj

  • Book Type:
  • Description: ‘क्रूरता’ संग्रह की कविताएँ अपने प्रकाशन के साथ ही ध्यानाकर्षण का केन्द्र बन गई थीं। ये कविताएँ हमारे समय में नागरिक होने के संघर्ष, चेतना और व्यथा को गहरे काव्यात्मक आशयों के साथ विमर्श का विषय बनाती हैं। इसी क्रम में कुमार अंबुज, हिन्दी कविता में पहली बार, ‘क्रूरता’ पद को व्यापक सामाजिक एवं राजनैतिक अर्थों में, ऐतिहासिक समझ के साथ व्याख्यायित और परिभाषित करते हैं। यहीं वे काव्य-विषयों की कोमल और सकारात्मक समझी जानेवाली पदावली की परिधियों को भी तोड़ते हैं।

    उचित ही प्रबुद्ध आलोचकों-पाठकों ने इन कविताओं को ‘विडम्बना के नए आख्यान’ तथा ‘विचारधारा के सर्जनात्मक उपयोग’ का उदाहरण माना है। ये कविताएँ भाषा के सम्प्रेषणीय प्रखर मुहावरों, अभिव्यक्ति के संयम और वर्णन की चुम्बकीय शक्ति के लिए भी पहचानी गई हैं। कवि-कर्म की नई चुनौतियों का स्वीकार यहाँ स्पष्ट है। ये कविताएँ हमारे समय में उपस्थित तमाम क्रूरताओं की शिनाख़्त करने का गम्भीर दायित्व उठाती हैं। यही कारण है कि वे पाठक की चेतना में प्रवेश कर वैचारिक स्तर पर उद्विग्न करती हैं। सांस्कृतिक प्रतिरोध की दृष्टि से सम्पृक्त ये कविताएँ अनुभवों के वैविध्य और विस्तार में जाकर एकदम अछूते काव्यात्मक वृत्तान्तों को सम्भव करती हैं।

    जो कुछ न्यायपूर्ण है, सुन्दर है, सभ्य सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है, उसे पाने की आकांक्षी और पक्षधर ये कविताएँ सहज ही साम्राज्यवादी, औपनिवेशिक, उपभोक्तावादी, साम्प्रदायिक और पूँजीवादी शक्तियों को अपने सूक्ष्म रूप में भी उजागर करती हैं। ‘क्रूरता की संस्कृति’ को चिह्नित करते हुए वे संवेदना, मनुष्यता, लौकिकता और करुणा का विशाल फलक रचती हैं, अपने काव्यात्मक अभीष्ट तक पहुँचती हैं।

    मनुष्य समाज के साथ रागात्मक सम्बन्धों के ठोस आधार कुमार अंबुज की निगाह से कभी ओझल नहीं होते हैं, इसलिए उनकी ये कविताएँ सर्जना के नए पड़ावों तक यात्रा करती हैं। इन कविताओं की प्रासंगिकता और प्रतिबद्धता इन्हें नए सिरे से विचारणीय बनाती है। वे इस पक्ष के लिए भी रेखांकित की जाती रही हैं कि हिन्दी कविता का यह नया विकास है, विशेष अर्थ में एक नया प्रस्थान।

Kroorata

Kroorata

Kumar Ambuj

250

₹ 200

Anantim

  • Author Name:

    Kumar Ambuj

  • Book Type:
  • Description: किसी ने कहा था कि दुनिया के मज़दूरो, एक हो जाओ—खोने के लिए तुम्हारे पास अपनी ज़ंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है। कुमार अंबुज की ‘ज़ंजीरें’ उन असंख्य साँकलों का ज़‍िक्र करती हैं जिनसे हमारा समूचा चिन्‍तन, सृजन तथा समाज बँधा हुआ है और उन्हें वन्‍दनीय मानने लगा है, हालाँकि कुछ लोग आख़‍िर ऐसे भी थे जो अपनी-अपनी आरियाँ लेकर उन्हें काटते थे और बार-बार कुछ आज़ाद जगहें बनाते थे। स्वयं कुमार अंबुज के कवि के लिए यह एक उपयुक्त रूपक है। उनकी कविताओं में कोई असम्‍भव, हास्यास्पद आशावाद या क्रान्तिकारिता नहीं है बल्कि ‘एक राजनीतिक प्रलाप’, ‘झूठ का संसार’ और ‘समाज यह’ जैसी रचनाओं में वे समसामयिक भारतीय स्थितियों के वस्तुनिष्ठ, निर्मम और लगभग निराश कर देनेवाले आकलन तक पहुँचते हैं, फिर भी करोड़ों लोग हैं जो जीवित रहने के रास्ते पर हैं जिनमें से कुछ को पूरी उम्र ज़ंजीरों को काटते ही जाना है। यह उस समाज की कविताएँ हैं जहाँ पाँच-तारा होटलों जैसे अस्पतालों में घुसा तक नहीं जा सकता, जिसमें आदमी को खड़े होने की जगह भी मयस्सर नहीं है। झूठ के रोज़गार ने इस समाज को ख़ुशहाल बना डाला है। अपनी श्रेष्ठता से इनकार करता हुआ कवि अपने प्रति भी इतना कठोर है कि जानता है कि इस सबमें हमारी भूमिका भी इस तरह एक-सी है कि हम अपने ही क़रीब ठीक अपने ही जैसा अभिनय देखकर चौंक उठते हैं। कुमार अंबुज की ऐसी कविताएँ हमारे आज तक के हालात का सीधा प्रसारण हैं जिसमें देखती हुई आँख कभी यथार्थ से बचती नहीं है। लेकिन हिन्‍दी कविता में देखा गया है कि राजनीति और समाज को समझने और अभिव्यक्त करनेवाली प्रतिभा भी सिर्फ़ उन्हीं तक सीमित हो जाती है और उन्हें भी एक अमूर्तन में ही देख-दिखा पाती है। कुमार अंबुज की साफ़निगाही एकस्तरीय और एकायामी नहीं है। उनकी इस तरह की और दूसरी कविताओं में कथ्य और अनुभवों का ऐसा विस्तार है जो आज की उत्कृष्ट कविता की पहली शर्त है। आज हिन्‍दी में बेहतरीन कविता लिखी जा रही है लेकिन उसमें भी जिन युवा कवियों ने अस्सी के दशक के बाद अपनी स्पष्ट अस्मिता अर्जित की है उनमें वही रोमांचक वैविध्य है जो कुमार अंबुज के यहाँ है। यदि कविता की निगाह व्यक्ति और समाज के सूक्ष्मतम पहलुओं तक नहीं जाती तो वह अन्‍ततः अधूरी ही कही जाएगी। जब कुमार अंबुज ‘जब दोस्त के पिता मरे’ जैसी कविता लाते हैं तो हमारे अनुभव के दायरे को बढ़ाते हैं। ‘सेल्समैन’ में शीर्षक का प्रयोग एक स्निग्ध विडम्‍बना को जन्म देता है। ‘आयुर्वेद’, ‘होम्योपैथी’, ‘माइग्रेन’ तथा ‘हारमोनियम की दुकान से’ सरीखी कविताएँ कुमार अंबुज की अद्वितीय दृष्टि और अप्रत्याशित जगहों में कविता खोज लेने की कूवत का प्रमाण हैं और आज की हिन्‍दी कविता को अनायास आगे ले जाती हैं। ‘छिपकलियों की स्मृति’ हमें अपने घरों, परिवारों और समाज में लौटाती है जबकि ‘जैसे मेरे ही शहर में’ एक अजनबी जगह में अपने क़स्बे को धीरे-धीरे पहचानने-पाने की प्रक्रिया है जिसके निजी और सामाजिक निहितार्थ अद्भुत हैं।

    अस्तित्व के रहस्य पर चिन्‍तन हमारी परम्‍परा का एक मौलिक सरोकार रहा है लेकिन पता नहीं क्यों, इसे कुछ दशकों से हिन्‍दी कविता के लिए अस्पृश्य समझ लिया गया है। इसलिए जब कुमार अंबुज बिना किसी छद्म रहस्यवाद या अध्यात्म के ‘मैं क्या हूँ’ जैसी रचना लाते हैं जिसमें ‘मैं’ कभी एक पत्ता है, झुकी हुई मीनार, दु:ख का एक थक्का रक्त की तरह, काली मिट्टी का ढेला, अपने ही अचेतन का अनचीन्हा अटकता सुर, कोई पराजित जीवन अटका हुआ नैतिक वाक्य में, या एक संकल्प गिरता-पड़ता-उठता हुआ बार-बार, तो यह अज्ञेय के आत्मचिन्‍तन का नहीं, मुक्तिबोध और शमशेर के आत्मचिन्‍तन का प्रसार है और आज की हिन्‍दी कविता के एक परहेज़ को तोड़ना है। ‘सापेक्षता’, ‘सब शत्रु सब मित्र’, ‘धुंध’, ‘शाम’, ‘रात’, ‘चमक’, ‘चोट’, ‘अनुवाद’, ‘काल-बोध’ आदि कुमार अंबुज की ऐसी कविताएँ हैं जिनमें वे अपने नितान्‍त निजी अनुभवों, जायज़ों, आकलनों, संशयों, अवसादों और पराजयों तक गए हैं। उन्होंने धीरे-धीरे एक ऐसी भाषा और शिल्प अर्जित कर लिए हैं जिनमें नितान्‍त अनायासिता और किफ़ायतशारी से वे बहुत लगती हुई बातें कह डालते हैं। अंबुज की कुछ ही रचनाओं में आंशिक अचकचाहट, वह भी कविता को एक सम पर ले आने में ही, नज़र आती है वरना वर्णनात्मक या इतिवृत्तात्मक रचनाओं में भी वे विस्तार को निभा ले जाते हैं। कोई भी कवि हमेशा बेहतरीन कविताएँ नहीं दे पाता लेकिन कुमार अंबुज के यहाँ थोड़ी-सी ही कमतर रचना ढूँढ़ पाना कठिन है। ऐसा सजग आत्म-निरीक्षण हिन्‍दी में विरल है।

    कुमार अंबुज की ये कविताएँ भारतीय राजनीति, भारतीय समाज और उसमें भारतीय व्यक्ति के साँसत-भरे वजूद की अभिव्यक्ति हैं। इनमें कोई आसान फ़ार्मूले, गुर या हल नहीं हैं—इनके केन्‍द्र में करुणा, फ़िक्र और लगाव हैं जिनसे हिन्‍दुस्तानी आदमी के पक्ष की कविता बनती है। साथ में यह भी है कि जनकातरता की वेदी पर संसार और अस्तित्व के बहुत-सारे पहलुओं और सवालों को बलिदान नहीं किया गया है—सब कुछ के बीच अपने निजीपन को, विशेषतः अपनी जागरूकता और उत्सुकता को, जीवन को अधिकाधिक जानने-समझने-जीने की अभिलाषा को बचाए रखने की एक सहज मानवीय कोशिश इनमें मौजूद है। कुमार अंबुज की ये कविताएँ हिन्‍दी कविता की ताक़त का सबूत हैं और इक्कीसवीं सदी में हिन्‍दी की उत्तरोत्तर प्रौढ़ता का पूर्व-संकेत हैं।

    —विष्णु खरे

Anantim

Anantim

Kumar Ambuj

250

₹ 200

Amiri Rekha

  • Author Name:

    Kumar Ambuj

  • Book Type:
  • Description: न्याय और अन्याय, अभाव और रईसी, इच्छा और यथार्थ, पुरातन और नई सभ्यता जैसे अनेक विलोम प्रत्ययों के बीच वैचारिक आवागमन को ये कविताएँ अप्रत्याशित अनूठेपन एवं द्वंद्वात्मकता के साथ सम्‍भव बनाते हुए नए प्रस्ताव प्रस्तुत करती हैं। यहाँ भाषा, विचार, नैतिकता और स्वप्नशीलता के साथ कलाकर्म की वही अप्रतिम सर्जनात्मकता दृष्टव्य है जिसे कुमार अंबुज की कविता ने लगातार अर्जित किया है और अंबुज हर बार उसे नई ऊँचाइयों, अभिनव जगहों तक ले गए हैं। ये कविताएँ सक्रिय और सकर्मक प्रतिरोध की रचनात्मक कार्रवाई हैं। इनमें जीवन के संगीत, उत्तराधिकार, वैश्विकता, राजनीति, बाज़ार, मनुष्यता, प्रेम और अपमान की, हमारे समय और हमारी भाषा की पुनर्परिभाषाएँ हैं, उनकी आधुनिक पहचान है। साहसिक आत्मावलोकन और प्रवंचनाएँ भी हैं। इन कविताओं से अपने भीतर के टूटे-फूटे मनुष्य की मरम्मत की जा सकती है। इन्हें इनके खुरदुरेपन के लिए प्यार किया जा सकता है और इस बात के लिए भी कि इनके भीतर कितना कुछ है—शान्‍त, चपल और भविष्य से लबालब भरा हुआ। संवेदित, व्यग्र अभिव्यक्ति, अचूक दृष्टि और पक्षधरता से पुष्ट कविता कुमार अंबुज की अपनी उपलब्धि है, जिसे यहाँ समूची हिन्दी कविता के सन्‍दर्भ में कुछ अधिक शक्ति के साथ औचक, विस्मयकारी, दुर्लभ, हार्दिक और नव्यतर भंगिमाओं के साथ देखा जा सकता है। किंचित् लम्‍बे अन्‍तराल और प्रतीक्षा के बाद प्रकाशित यह संग्रह निश्चय ही नई बहसों, रुझानों, प्रस्थानों और चुनौतियों का कारण बनेगा।

     

Amiri Rekha

Amiri Rekha

Kumar Ambuj

250

₹ 200

Upshirshak

  • Author Name:

    Kumar Ambuj

  • Book Type:
  • Description: कुमार अम्बुज की ये कविताएँ अभूतपूर्व गहराई के साथ इस महाद्वीप के संकटग्रस्त, दुरभिसन्धि-युक्त जीवन और इसमें जी रहे मनुष्य की मुकम्मल अभिव्यक्तियाँ हैं। जो चीज़ें ओट और अँधेरे में रखी जा रही हैं, उन्हें प्रकाशित करते हुए ये उनकी अचूक पहचान करती हैं। उन सत्ता-शक्ति संरचनाओं और प्रविधियों को भी स्पष्टता से उजागर करती हैं जो नागरिकों को नयी दासता, असहिष्णुता और अमानुषिकता में धकेलने की कोशिश कर रही हैं।

    इनमें दैनिक जीवन से उपजा, समकालीन यथार्थ में दूर तक पैठनेवाला एक नया, बहुआयामी शब्द-संसार दिखाई देगा। यहाँ सामाजिक-राजनीतिक चेतना और ऐतिहासिक समझ के साथ एक भविष्य-दृष्टि लगातार सक्रिय है। ये अपनी प्रखर काव्यात्मकता क़ायम रखते हुए, दख़ल और प्रतिरोध की जुझारू ज़मीन तैयार करने का साहस दिखाती हैं। प्राकृतिक और राजनीतिक आपदाओं का फ़र्क़ रेखांकित करती हैं। इनमें लोकतांत्रिक अधिकारों और स्वतंत्रता के पक्ष में एक अथक, असमाप्त जिरह है।

    इनमें वंचितजन की हताशा, जिजीविषा और उनके कारणों की अनवरत पड़ताल है। यहाँ रागात्मक, पारिवारिक सम्बन्धों, प्रेम, विस्थापन, अकेलेपन और अस्मिता की मार्मिक कविताओं में भी सभ्यता की अन्वेषी समीक्षा निहित है। अपने दृष्टिसम्पन्न शिल्प से ये, कविता की लिजलिजी, रूमानी और रूढ़ पदावलियों की परिधि तोड़ देती हैं। स्मृति, मृत्यु, संत्रास, न्याय, आशा और अस्तित्व के प्रश्नों को ये किसी विस्मयकारी अलौकिकता से नहीं बल्कि अविस्मरणीय लौकिक ढंग से सम्बोधित करती हैं।

    व्यापक आशयों की इन रचनाओं से गुज़रते हुए समाज एवं मनुष्यता के प्रति असीम चिन्ता और लगाव का आवेग महसूस किया जा सकता है और यही इन कविताओं का आख्यान और इनका वास्तविक उपशीर्षक भी है। अर्थगर्भी भाषा का यह आत्मानुशासन बहुआयामी नैतिकता, बौद्धिकता और प्रतिबद्धता से उपजता है। 

    सहधर्मी कलाओं से संवादरत और विषय-वैविध्य से भरी ये कविताएँ हमारे समय में ‘विडम्बना के नए वृत्तांत’ तथा ‘विचारधारा के सर्जनात्मक उपयोग’ का भी उदाहरण हैं। ये कविता की नई ताक़त, अनन्यता और प्रौढ़ता का सबूत हैं।

Upshirshak

Upshirshak

Kumar Ambuj

199

₹ 159.2

Thalchar

  • Author Name:

    Kumar Ambuj

  • Book Type:
  • Description: 'यह एक मारक क्षण है। इस बार अधिक सख़्त और बेधक निगाहों के साथ। मैं इसके सामने हूँ। इसके निशाने पर। यह क्षण एक निर्णायक फ़ैसला चाहता है। यह एक अपराजेय क्षण है। मेरे भीतर से ही निकला हुआ। शक्तिशाली और अबोधता से भरा। यह किसी उलझन में नहीं है। यह मैं हूँ जो इसे उलझन में डालने की कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन यह भुलावे में नहीं आ रहा है। 'जैसा मैं हूँ और जो मुझे होना चाहिए' को यह तेज़ धार से काटकर, दो टूक और दो भागों में कर देना चाहता है। यह क्रूर होते हुए भी आकर्षक है और अकाट्य भी। यह ख़ुद एक तर्क है, अपने आपमें एक औचित्य। एक स्वयंसिद्ध काया और विचार। इसका सम्मोहन ज़बर्दस्त है। जानता हूँ यह अवसाद नहीं है। निराशा नहीं है। खिन्नता तो क़तई नहीं। यह एक आदिम आकांक्षा है जो अब अपना आधिपत्य चाहती है। यह हरेक सर्जक में प्रसुप्त रहती है। जब वह जागती है तो पूरा जीवन माँगती है। अपना ही रक्त चाहती है।

    रचनाकार एक तरह की अस्वस्थता में, बुख़ार में और अपने रक्त में कैंसर की कोशिकाएँ लिए ही, सक्रिय और व्यथित रहने के लिए अभिशप्त है। जैसे वह तेज़ गति से मृत्यु की तरफ़ यात्रा कर रहा है लेकिन उसकी चाल में एक उफान है और शमित न हो सकनेवाला उद्वेग। अपने भीतर टाइम-बम को छिपाए हुए, जिसमें लगी घड़ी की टिक-टिक आवाज़ उसे सुनाई देती है लेकिन नहीं पता कि उसके पास कितना समय है। वह बस इतना जानता है कि उसका अन्त एक विस्फोट में होगा। इससे अधिक सांघातिक और क्या हो सकता है। यह पल मुझे साथ लेकर जीवन की किसी नई यात्रा पर ले जाने की ज़िद पर अड़ गया है। इसका बढ़ा हुआ हाथ मेरे सामने है।

    —इसी संग्रह से

Thalchar

Thalchar

Kumar Ambuj

150

₹ 120

Pratinidhi Kavitayen : Kumar Ambuj- Paper Back

  • Author Name:

    Kumar Ambuj

  • Book Type:
  • Description: 1990 के बाद कुमार अंबुज की कविता भाषा, शैली और विषय-वस्तु के स्तर पर इतना लम्‍बा डग भरती है कि उसे ‘क्वांटम जम्प’ ही कहा जा सकता है। उनकी कविताओं में इस देश की राजनीति, समाज और उसके करोड़ों मज़लूम नागरिकों के संकटग्रस्त अस्तित्व की अभिव्यक्ति है। वे सच्चे अर्थों में जनपक्ष, जनवाद और जन-प्रतिबद्धता की रचनाएँ हैं। जनधर्मिता की वेदी पर वे ब्रह्मांड और मानव-अस्तित्व के कई अप्रमेय आयामों और शंकाओं की संकीर्ण बलि भी नहीं देतीं। यह वह कविता है जिसका दृष्टि-सम्‍पन्‍न कला-शिल्प हर स्थावर-जंगम को कविता में बदल देने का सामर्थ्‍य रखता है।

    कुमार अंबुज हिन्दी के उन विरले कवियों में से हैं जो स्वयं पर एक वस्तुनिष्ठ संयम और अपनी निर्मिति और अन्तिम परिणाम पर एक ज़ि‍म्‍मेदार गुणवत्ता-दृष्टि रखते हैं। उनकी रचनाओं में एक नैनो-सघनता, एक ठोसपन है। अभिव्यक्ति और भाषा को लेकर ऐसा आत्मानुशासन जो दरअसल एक बहुआयामी नैतिकता और प्रतिबद्धता से उपजता है और आज सर्वव्याप्त हर तरह की नैतिक, बौद्धिक तथा सृजनपरक काहिली, कुपात्रता तथा दलिद्दर के विरुद्ध है, हिन्दी कविता में ही नहीं, अन्य सारी विधाओं में दुष्प्राप्य होता जा रहा है। अंबुज की उपस्थिति मात्र एक उत्कृष्ट सृजनशीलता की नहीं, सख़्त पारसाई की भी है।

    —विष्णु खरे (भूमिका से)

Pratinidhi Kavitayen : Kumar Ambuj- Paper Back

Pratinidhi Kavitayen : Kumar Ambuj- Paper Back

Kumar Ambuj

150

₹ 120

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