Jagdish Chandra
Kabhi Na Chhodain Khet
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Jagdish Chandra
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Kabhi Na Chhodain Khet
Jagdish Chandra
Narakkund Mein Baas
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Narakkund Mein Baas
Jagdish Chandra
Zameen Apni To Thi
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Jagdish Chandra
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जगदीश चन्द्र के पूर्व प्रकाशित ‘नरककुंड में बास’ और ‘धरती धन न अपना’—इन दोनों उपन्यासों के विस्तार के पीछे भारतीय दलित समाज की अवस्था–दुरावस्था को उसके विविध चरणों में विकासात्मक रूप से पकड़ने का भाव छिपा था। आज़ादी के पहले का घोड़ेवाहा का दलित काली ‘धरती धन न अपना’ से जब ‘नरककुंड में बास’ के तहत सामने आता है तो युग स्थितियों का परिवर्तन ही साफ़ लक्षित नहीं होता, इस परिवर्तन के सम्बन्धगत और भावगत रूपाकार भी पकड़ में आने लगते हैं।
काली अब निरे सामन्तीय सम्बन्धों से बाहर आकर जालन्धर के अर्ध–सामन्तीय, अर्ध–पूँजीवादी हालातों
का शिकार है, यहाँ उसका शोषण करनेवाले टेनरीज़ के उसी के वर्ग से सम्बन्ध रखनेवाले मालिक ही नहीं, दलितों का नेतृत्व करने का दावा करनेवाले उनके अपने राजनेता भी हैं।
आज़ाद भारत में अब दलित वर्ग के उभार के अनेक सकारात्मक पहलुओं के साथ–साथ कुछ ऐसे पहलू भी उभरने शुरू हो गए थे, जिनमें प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों के बीज छिपे थे। जगदीश जी अक्सर यह बात दोहराते थे कि ‘नरककुंड में बास’ के आख़िरी खंडों में काली अपने साथी मज़दूरों का छोटा–मोटा लीडर ज़रूर बनता है पर मज़दूरों से एलिएनेट हो रहा है क्योंकि वे उसे मालिकों का पिट्ठू समझते हैं। जगदीश जी इस गहरी सामाजिक प्रक्रिया को और ब्योरे व तफसील के साथ समझना चाह रहे थे जिसकी परिणति अन्तत: ‘ज़मीन अपनी तो थी’ के रूप में हुई।
इस उपन्यास का काली साहसी है, निडर है, क्रोध करने में सक्षम है, अपने काम और अपनी परम्परा पर गर्व करता है, और आख़िर में अपने बेटे के रूप में अपनी परम्परा को बदलते और एक नितान्त भिन्न राह पकड़ते देखता है।
Zameen Apni To Thi
Jagdish Chandra
Laat Ki Vapsi
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- Description: अच्छे लोगों की अच्छी दुनिया; बड़ी दुनिया जहाँ सब कुछ खुला-खुला हो, बिलकुल प्रकृति की तरह, बिलकुल ईश्वर की तरह हर वक़्त, हर किसी के लिए। ऐसी ही एक दुर्लभ दुनिया का पुनःसृजन यह उपन्यास करता है। इसके पात्र अपनी सादगी, सच्चाई और सीधे हृदय से उठे आवेगों के चलते हमें कुछ ही समय के लिए सही, एक ऐसी दुनिया में खींच लेते हैं जहाँ कोई हद ऐसी नहीं जिसे लाँघा न जा सके, कोई कुंठा ऐसी नहीं जिसे पिघलाया न जा सके और कोई आँसू इतना अड़ियल नहीं कि दिल में कील गाड़कर बैठ जाए—हर आँसू यहाँ आशीर्वाद की तरह बह जाता है। सुनील के पास भी ऐसे अनेक अनबहे आँसू थे, जो न तो तब बहे जब उसके कठोर पिता उस पर तानों के तीर चलाते थे, न तब बहे जब उसकी माँ किसी दूरस्थ अज्ञात जगह नौकरी के लिए जाते बेटे को देख बिलख पड़ी थी और न तब जब दाएँ हाथ से विकलांग होने पर उसका वायलिनवादक बनने का सपना टूटा था। वे सब आँसू सरदारा सिंह के थप्पड़ खाकर बहे; मौलाबख़्श का बनाया नक़ली हाथ पहनकर बहे; और मुद्दतों बाद वायलिन के तार छेड़कर बहे। अपनी सरल, सुगम और यथार्थवादी भाषा के ज़रिए यह उपन्यास हमें रुके हुए आँसुओं के बह जाने के साथ-साथ उन विराट हृदयों से भी मिलवाता है जो उन आँसुओं का सम्मान करते हैं, सरलता और विनम्रता को मनुष्यता की धरोहर की तरह सँजोकर रखते हैं।
Laat Ki Vapsi
Jagdish Chandra
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