Vijayshankar Chaturvedi
Prithavi Ke Liye To Ruko
- Author Name:
Vijayshankar Chaturvedi
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Book Type:

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विजयशंकर चतुर्वेदी ऐसे कवि हैं जो अपने को आज के सूर्योदय के साथ-साथ उस सुबह से भी जोड़कर देखते हैं जो निर्माणाधीन सृष्टि की पहली सुबह रही होगी। इतने विराट समय में अपनी निरंतरता को देखना कवि की अद्भुत विशेषता है, जो ध्यान खींचे बिना नहीं रहती। प्राकृतिक विपत्तियों से लड़ते, सीखते मनुष्य की कूवत कैसे-कैसे अपने को अभिव्यक्ति के लायक तरासती रही है और कैसे उन सारे द्वंद्वों से मनुष्य ने एक निर्द्वंद्व सभ्यता के लिए अपने को संघर्षरत रखा है; इस तरह के तमाम संधि-समयों से गुजरते हुए कैसे वह मनुष्य आज तक के समय में पहुंचा है—कवि अपनी उस युद्धगाथा को एक बार फिर से कहने की बेचैनी से भरा हुआ दिखता है।
इस सांस्कृतिक यात्रा और यातना में मनुष्य ने कितने असुंदर के बदले कितना सुंदर गंवाया है—उस भूल-चूक भरे अंधकार को कवि ने अपनी अभिव्यक्ति के विस्फोटक उजालों से भर दिया है। सामाजिक दिक् और काल के बीच इस ब्रह्मांड के शंख को सुनने की शक्ति हमें कवि की बिम्बपूर्ण भाषा से मिलती है। कुछ लोगों ने इस पृथ्वी को एक परिवार की जगह सिर्फ़ बाज़ार और कार्यालय की मेज़ बनाकर रख दिया है। कवि इस पृथ्वी पर एक मनुष्योचित सूर्योदय की प्रतीक्षा में है। अपनी सुंदर, प्यारी और वैचारिक पृथ्वी को कवि रसातल में जाने से रोकना चाहता है। यही चिंता और संघर्ष इन कविताओं के केंद्र में है।
विजयशंकर की कविता में माइथोलॉजी और टेक्नॉलॉजी, दोनों का अंगीकार दिखता है। यह बात तब और साफ हो जाती है जब कवि कहता है कि 'शोकाकुल परिजन ले जायें तो ले जायें, मैं जलूंगा नहीं।' पर विज्ञापन का दंश कवि की चेतना का पीछा वहां भी नहीं छोड़ता।
स्त्री के तीन रूप विजय की कविताओं में अक्सर आते हैं—बेटी, स्त्री और मां। स्त्री के तीनों रूप इन कविताओं में ख़तरों से घिरे हुए दिखते हैं।
विजयशंकर को मैं उनके पहले कविता-संग्रह के प्रकाशन के अवसर पर हार्दिक बधाई देता हूं क्योंकि उनकी इन कविताओं को देखकर उनके विकास और बदलाव की प्रबल संभावनाएं अपनी ओर खींचती हैं। विजयशंकर अपने भीतर के संदेहशील कवि को निरंतर खोजते और तराशते जा रहे हैं इसलिए उनकी यात्रा निश्चय ही अर्थपूर्ण और लंबी होगी।
—लीलाधर जगूड़ी