Pukhraj Maroo
Hindi Sahitya Ka Itihas Punarlekhan Ki Avashyakta
- Author Name:
Pukhraj Maroo
-
Book Type:

- Description:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य-लेखन की रामकथा के वाल्मीकि हैं, कोई भी साहित्येतिहासकार उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। यह कहना अनुचित न होगा कि आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल की जैसी रंगारंग और जीवित पारदर्शियाँ हमें उनके इतिहास में मिलती हैं, वैसी आधुनिक साहित्य के बारे में नहीं मिलती हैं। इस दृष्टि से हिन्दी साहित्येतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता महसूस की जाती है।
इसके अलावा शुक्ल जी के बाद कई दशकों में फैला तकनीक क्रान्ति, और संचार तथा सूचनाओं का विस्फोटक दौर हमारे सामने है। इन वर्षों का हिन्दी साहित्य भाषा की दृष्टि से, अनुभव की दृष्टि से, ज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त विविध और सम्पन्न साहित्य है। सभ्यता, संस्कृति और विश्व-साहित्य के संगम-काल के इस साहित्य का विवेचन और दस्तावेज़ीकरण भी अब एक बड़ी आवश्यकता है।
यह पुस्तक ऐसे ही अन्य घटकों पर भी नज़र डालती है जो साहित्येतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। साथ ही इसमें इतिहास-लेखन के अब तक के इतिहास के हर चरण को विस्तार से विवेचित किया गया है जो अध्येताओं और विद्यार्थियों के लिए विशेष पठनीय है। आचार्य शुक्ल लिखित इतिहास के बाद हिन्दी में साहित्येतिहास-लेखन के जो अन्य प्रयास हुए उनका विशद विश्लेषण और तथ्यगत जानकारी भी दी गई है। आधुनिक हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं, और इतिहास-लेखन की दृष्टि से उनका मूल्यांकन भी लेखक ने किया है।
Hindi Sahitya Ka Itihas Punarlekhan Ki Avashyakta
Pukhraj Maroo
Udaan
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Pukhraj Maroo
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ग़ज़ल हिन्दुस्तानी रिवायत की हसीन-तरीन विरासत है, इसको ज़बानों के संकीर्ण दायरों में क़ैद नहीं किया जा सकता। यह न उर्दू है, न हिन्दी—बस, ग़ज़ल तो ग़ज़ल होती है और उसको ग़ज़ल ही होना चाहिए, वरना सारी मेहनत और कोशिश व्यर्थ हो जाएगी। पुखराज मारू की ग़ज़लों का दीवान देखते हुए मेरे इस ख़याल को मज़ीद तक़वियत मिली। उसकी ग़ज़लें सर-सब्ज़ फलदार दरख़्तों की तरह हैं जिनमें ख़ुशज़ायका मुनफ़रिद और ख़ूबसूरत महकदार फल हैं। बाज पककर रस-भरे बन गए हैं, कुछ अधकच्चे हैं और कुछ इब्तिहाई मराहिल में। लेकिन किसी मज़मूए में बड़ी तादाद में अच्छे शे’र और ख़ूबसूरत मिसरे हों तो दाद तो देनी ही पड़ेगी।
पुखराज मारू ग़ज़ल की क्लासिकी रिवायत के रम्ज शनास हैं। उसकी बारीकियों से परिचित और शब्द पर भी उनकी पकड़ है। ख़याल भी नाज़ुक, ख़ूबसूरत और दिलनवाज़ हैं। नई-नई ज़मीनें भी तराशी हैं और ग़ज़ल के गुल-बूटे खिलाए हैं। वह इक्कीसवीं शताब्दी के बर्क़ रफ़्तार अहद में और बाज़ारवाद के युग में रहते हैं। किन्तु उनकी ग़ज़लों की दुनिया क़दीम है, इसमें शिद्दत नहीं है। समकालीन परिस्थितियों की झलक है भी तो बहुत कम-कम। यह शायर दुनिया का और मानवता का भला प्रेम के ढाई अक्षर में ही तलाश करना चाहता है। यद्यपि इश्क़ से बढ़कर और क्या है जो सारी कायनात में छाया हुआ है।
—बशीर बद्र