Ravindra Verma
Dus Baras Ka Bhanwar
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Ravindra Verma
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बाबरी मस्जिद विध्वंस (1992) और गुजरात नरसंहार (2002) के बीच फैले दस वर्ष हमारे समकालीन इतिहास का ऐसा समय रचते हैं, जिसकी प्रतिध्वनियाँ देर और दूर तक जाएँगी। इस दशक में केवल साम्प्रदायिकता ही परवान नहीं चढ़ी, बल्कि नव-उदारवाद ने भी हमारे समाज में जड़ें पकड़ीं—जैसे दोनों सगी बहनें हों। उपभोक्तावाद मूल्य बना। सामाजिक सरोकार तिरोहित होने लगे। यह उपन्यास इसी आरोह-अवरोह को एक परिवार की कहानी द्वारा पकड़ने की कोशिश है, जिसके केन्द्र में रतन का तथाकथित ‘शिज़ोफ्रिनिया’ है और उसका सामना करते बाँके बिहारी
हैं। रतन के भाइयों की संवेदनहीनता जाने-अनजाने एक चक्रव्यूह की रचना करती है, जिससे बाँके बिहारी अपने छोटे बेटे को निकालते हैं। रतन अपने उन्माद में अपनी प्रेमिका का बलात्कार करता है। पत्रकार बाँके बिहारी के लिए यह ‘गुजरात’ का रूपक बन जाता है। इन्हीं कथा-सूत्रों के इर्द-गिर्द लेखकीय चिन्ताएँ बिखरी हैं, जो समकालीनता का अतिक्रमण करती हुई मनुष्य की नियति की पड़ताल करती हैं। यह प्रकृतिवाद से परहेज़ करती हुई क़िस्सागोई है, जो नए यथार्थ के मुहावरे को रचने का प्रयास करती है। उपन्यास में समय और शिल्प का लचीलापन इसी मुहावरे की तलाश है।
Dus Baras Ka Bhanwar
Ravindra Verma
Krantikakka Ki Janm-Shatabdi
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Ravindra Verma
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यह उपन्यास जिस समय में अवस्थित है, वह 1857 की डेढ़ सौवीं जयन्ती के आस-पास है। इसी समय क्रान्ति कक्का की जन्म-शताब्दी भी है। युवा कक्का झाँसी में चन्द्रशेखर आज़ाद के क्रान्ति के हेडक्वार्टर के सदस्य थे जब आज़ाद काकोरी कांड के बाद इस शहर में कुछ बरस भूमिगत रहे। शिक्षक कक्का रिटायर होकर अपने दूर के भतीजे के साथ आ गए थे। झाँसी का यह मध्यवर्गीय घर इस भूमंडलीकृत समय में मध्यवर्गीय विडम्बनाओं का केन्द्र बन जाता है : इसके एक छोर पर क्रान्ति कक्का हैं जिनकी स्मृति में अपने क्रान्तिकारी दल के नौजवानों की यह शर्त है कि कौन पहले देश पर क़ुर्बान होगा; दूसरे छोर पर कक्का का प्यारा पोता है जिसके दिल्ली के पास स्थित पानी के कारखाने की बोतलों पर झाँसी की रानी की तस्वीर है—इस तस्वीर में घोड़े पर बैठी रानी का चेहरा अभिनेत्री रानी मुखर्जी का बिकाऊ चेहरा है! इसी नव-उदारवादी प्रपंच में कक्का का दूसरा पोता दिल्ली में ही अपनी नौकरी खो देता है, क्योंकि वह जिस पुरानी कपड़े की मिल में काम करता है, वह सोने के भाव बिक जाती है ताकि उस ज़मीन पर मॉल खड़ा हो सके। इसी बेकार बाप का इकलौता पुत्र अमरीका पहुँचकर स्वायत्त हो जाता है।
यह इस भूमंडलीकृत दौर में एक पुराने मध्यवर्गीय परिवार के टूटने का आख्यान है, जैसे कोई आज़ादी का शीराज़ा बिखर रहा हो। यहाँ इसी दौर की नव-औपनिवेशिक त्रासदी की आहें और कराहें हैं।
यह भारतीय नव-उदारवाद की आभ्यन्तरीकृत कथा है।
Krantikakka Ki Janm-Shatabdi
Ravindra Verma
Aakhiri Manzil
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Ravindra Verma
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वरिष्ठ क़लमकार रवीन्द्र वर्मा के उपन्यास ‘आख़िरी मंज़िल’ के कवि-नायक में एक ओर ऐसी आत्मिक उत्कटता है कि वह अपने शरीर का अतिक्रमण करना चाहता है, दूसरी ओर अपनी अन्तिम आत्मिक हताशा में भी उसे आत्महत्या से बचे किसान का सपना आता है जो उसका पड़ोसी है और जिसका घर ‘ईश्वर का घर’ है। हमारे कथा-साहित्य में अक्सर ये आत्मिक और सामाजिक चेतना के दोनों धरातल बहुत-कुछ अलग-अलग पाए जाते हैं। यह उपन्यास मनुष्य की चेतना के विविध स्तरों की पूँजीभूत खोज है—उनकी सम्भावनाओं और सीमाओं की भी। इसमें चेतना के आत्मिक-आध्यात्मिक और सामाजिक पहलू एक-दूसरे से अन्तर्क्रिया करते हुए एक-दूसरे से अपना रिश्ता ढूँढ़ते हैं। ऐसा लगता है जैसे चेतना के विभिन्न स्तर एक-दूसरे से मिलकर एक संश्लिष्ट, पूर्ण, बेचैन मानव-अस्मिता रच रहे हैं जिसमें सारे तार एक-दूसरे में गुँथे हैं।
इस भोगवादी समय में कलाकार की नियति से जुड़ा सफलता और सार्थकता का द्वन्द्व और भी तीखा हो गया है। यह द्वन्द्व इस आख्यान का एक मूलभूत आयाम है जिसके माध्यम से मनुष्य की नियति की खोज सम्भव होती है। यह खोज अन्ततः एक त्रासद सिम्फ़नी में समाप्त होती है।
रवीन्द्र वर्मा अपने क़िस्म के अनूठे रचनाकार हैं। कथ्य और शिल्प के मामले में परम्परा और आधुनिकता का जो सम्मिलन उनके इस नए उपन्यास में दिखाई देता है, वह अद्वितीय है।
साहित्य-समाज की मौजूदा तिक्तता और संत्रास तथा प्रकाशन और पुरस्कार की राजनीति को जानने-समझने का अवसर मुहैया करानेवाला अत्यन्त ज़रूरी उपन्यास।
Aakhiri Manzil
Ravindra Verma
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