Dus Baras Ka Bhanwar
Author:
Ravindra VermaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 556
₹
695
Available
बाबरी मस्जिद विध्वंस (1992) और गुजरात नरसंहार (2002) के बीच फैले दस वर्ष हमारे समकालीन इतिहास का ऐसा समय रचते हैं, जिसकी प्रतिध्वनियाँ देर और दूर तक जाएँगी। इस दशक में केवल साम्प्रदायिकता ही परवान नहीं चढ़ी, बल्कि नव-उदारवाद ने भी हमारे समाज में जड़ें पकड़ीं—जैसे दोनों सगी बहनें हों। उपभोक्तावाद मूल्य बना। सामाजिक सरोकार तिरोहित होने लगे। यह उपन्यास इसी आरोह-अवरोह को एक परिवार की कहानी द्वारा पकड़ने की कोशिश है, जिसके केन्द्र में रतन का तथाकथित ‘शिज़ोफ्रिनिया’ है और उसका सामना करते बाँके बिहारी <br>हैं। रतन के भाइयों की संवेदनहीनता जाने-अनजाने एक चक्रव्यूह की रचना करती है, जिससे बाँके बिहारी अपने छोटे बेटे को निकालते हैं। रतन अपने उन्माद में अपनी प्रेमिका का बलात्कार करता है। पत्रकार बाँके बिहारी के लिए यह ‘गुजरात’ का रूपक बन जाता है। इन्हीं कथा-सूत्रों के इर्द-गिर्द लेखकीय चिन्ताएँ बिखरी हैं, जो समकालीनता का अतिक्रमण करती हुई मनुष्य की नियति की पड़ताल करती हैं। यह प्रकृतिवाद से परहेज़ करती हुई क़िस्सागोई है, जो नए यथार्थ के मुहावरे को रचने का प्रयास करती है। उपन्यास में समय और शिल्प का लचीलापन इसी मुहावरे की तलाश है।
ISBN: 9788126713028
Pages: 207
Avg Reading Time: 7 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: , ऋचा थी—अतुलनीय, अनिंद्य, उसका हृदय एक छलछलाता हुआ प्रवाह था—प्रेम और निष्ठा के पारदर्शी जल से लबालब। उसकी आत्मा जैसी सहजता, वैसी पवित्रता को आजीवन बनाए रखना सरल नहीं। न वैसा आवेग, न वैसी अकुंठ तत्परता और न दूसरों के प्रति ऐसा नि:संकोच स्वीकार जीवन जीते हुए अक्षुण्ण रखना सम्भव है। जीवन की यात्रा में अक्सर मन और जीवन के पैर मैले हो ही जाते हैं, लेकिन ऋचा के नहीं। और वीरेश्वर जैसे उसी के लिए बना हुआ, उतना ही दृढ़, उसी अनुपात में स्वाभिमानी और ईमानदार। मन और वचन के संकल्पों को लेकर उतना ही गम्भीर और भरोसेमन्द। ऋचा और वीरेश्वर की यह कहानी स्त्री-जीवन के साथ-साथ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के बारे में एक नई दृष्टि देती है। स्त्री यहाँ पूर्णत: एक जिजीविषा का स्वरूप ग्रहण कर लेती है जो अपने आत्म की खोज-यात्रा में जीवन और मूल्यों के नए-नए सोपान चढ़ती चली जाती है। ब्राह्मण होते हुए वह दलित युवक वीरेश्वर से प्रेम करती है और पूरा जीवन उस प्रेम को अपनी आस्था का अवलम्बन बनाए रखती है और स्वयं भी उसके लिए एक स्तम्भ बनी रहती है। इसी रिश्ते से जन्मी उनकी बेटी प्रज्ञा पुन: समाज की रूढ़ियों और स्वयं उनके लिए एक मानक बनकर सामने आती है। नए मूल्यों की स्थापना करता सहज भाषा और शिल्प में अत्यन्त पठनीय उपन्
Goshalak
- Author Name:
Rajendra Ratnesh
- Book Type:

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Description:
वैदिक ही नहीं, बौद्ध और जैन दर्शनों को भी चुनौती देनेवाले गोशालक बुद्ध और महावीर के समकालीन थे। स्वभाव से विद्रोही और आचरण में तर्क तथा नवाचार की उँगली थामकर नई राहों का अन्वेषण करनेवाले गोशालक के विषय में कहा जाता है कि अपने समय में उनके अनुयायियों की संख्या बुद्ध से भी ज़्यादा थी। जनसाधारण में उनका विशेष आदर था।
एक ख़ानाबदोश जाति के निर्धन परिवार में जन्मे गोशालक ने आध्यात्मिकता के प्रति अपने जन्मजात रुझान के चलते युवावस्था के दौरान सात वर्ष भगवान महावीर के सान्निध्य में तपस्या की। लेकिन बाद में महावीर से उनके गहरे मतभेद हुए और महावीर के पुरुषार्थ के सिद्धान्त के मुक़ाबले उन्होंने नियतिवाद को स्थापित किया। कहते हैं कि महावीर से उनका विरोध इस हद तक बढ़ा कि अपनी सिद्धियों में उन्होंने महावीर पर प्राणघातक हमले भी किए, हालाँकि जीवन के अन्तिम क्षणों में उन्हें इस पर गहरा पश्चात्ताप भी हुआ जिसके प्रमाण जैन ग्रन्थों में पर्याप्त रूप में उपलब्ध हैं।
लेकिन जैन-मत के साथ बौद्ध ग्रन्थों में भी उनकी निन्दा अधिक मिलती है जहाँ न सिर्फ़ उनके विचारों की कड़ी आलोचना की गई बल्कि उनके चरित्र-हनन का भी प्रयास किया गया।
यह उपन्यास आजीवक गोशालक के बारे में सम्भवतः पहली रचना है जिनके बारे में अनेक पाठकों ने शायद कभी सुना भी नहीं होगा। आत्मकथात्मक शैली में निबद्ध यह कृति न सिर्फ़ गोशालक के जीवन-चरित्र को तमाम रंगों के साथ चित्रित करती है, बल्कि उन भ्रांतियों को भी दूर करती है जिनके आधार पर उस नवोन्मेषकारी विचारक को एक खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
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