Kaath Ka Ullu

Kaath Ka Ullu

Authors(s):

Pallavi Prasad

Language:

Hindi

Pages:

192

Country of Origin:

India

Age Range:

18-100

Average Reading Time

384 mins

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Book Description

‘काठ का उल्लू’ को ‘दोआबा’ पत्रिका में प्रकाशित करते हुए, सम्पादकीय के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की गई थी कि यह उपन्यास अपनी थीम के कारण पाठकों के बीच लोकप्रिय होगा। प्रश्न उठता है कि इस उपन्यास की ‘थीम’ है क्या? निःसन्देह इसका उत्तर एक शब्द में नहीं दिया जा सकता है। ‘काठ के उल्लू’ की थीम के कई स्तर हैं जो प्याज के छिलके की भाँति परत दर परत खुलते चले जाते हैं। सपनों में पलती नौकरशाही, अभिजात्य वर्ग की ढँकी-छुपी सच्चाई, स्याह-सफेद के बीच खिलवाड़ करती राजनीति... और एक सामान्य-सी लड़की को ‘दलित इकाई’ के रूप में बदल देने की चतुराई। अर्थात इस उपन्यास में हमारे समाज के इतने रंग हैं कि उन सबको मिला कर यदि ‘रंगामेज़ी’ शैली में कोई चित्र बनाया जाए तो वह बदरंग ही होगा, आकर्षक भले हो। जाहिर है कि यह एक जटिल यथार्थ है, जिसे एक छोटे से उपन्यास में व्यक्त कर देना आसान काम नहीं था। मगर, पल्लवी प्रसाद ने उसे बखूबी कर दिखाया है। इस उपन्यास में कई अन्य यथार्थ भी दर्ज हैं। जैसे गाँवों का ‘आधुनिक’ हो जाना, हर व्यक्ति का लगभग ‘आम आदमी’ हो जाना और अन्ततः कृष्णकान्त जैसे महत्वाकांक्षी व्यक्ति का ‘काठ का उल्लू’ बन जाना। उल्लू का पसन्दीदा समय ‘अँधेरा’ पूरे उपन्यास में आदि से अन्त तक छाया हुआ है। मगर लेखिका ने उसमें भी रोशनी की एक ‘झिरी’ देख ली है। वह है एक बूढ़ी स्त्री जो गाँव में रहती है और जो किसी की माँ है, किसी की दादी तो किसी की परदादी। वास्तव में इस ‘झिरी’ ने ही इस उपन्यास को वह सार्थकता बख्शी है, जो उसका मूल उदेश्य प्रतीत होती है। पल्लवी प्रसाद का यह उपन्यास ऐसे समय में आया है जबकि अभिजात्य वर्ग में ही नहीं बल्कि सामान्य जीवन में भी पारिवारिक सम्बन्धों की दीवारें दरक रही हैं। इसलिए इस उपन्यास का अपना अलग ही महत्त्व है। —अब्दुल बिस्मिल्लाह

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