Ujla Andhera
Author:
Kailash WankhedePublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Contemporary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
उजला अँधेरा उपन्यास को पढ़ना एक ऐसे सच के सामने होना है जिससे पूरी व्यवस्था मुँह चुराती रही है। सामाजिक-व्यवस्था का वह सच जिसने आज़ाद भारत के उस सपने को निरर्थक कर दिया जो इस देश के नागरिकों को समता, स्वतंत्रता और उजाले का आश्वासन देता था।</p>
<p>वह सच है जाति जो हर तरह की सामाजिक-आर्थिक प्रगति को ठेंगा दिखाती हुई हमारे समाज में आज भी जहाँ की तहाँ बनी हुई है। तीन पीढ़ियों के दुःख-दर्द और बदलाव के संघर्षों से रचा हुआ यह पूरा उपन्यास अपने आप में एक तीखा सवाल है जिसे जाति के यथार्थ से आँख मिलाते हुए पूछा गया है।
यह उपन्यास पूछता है कि भारत के लोग आज भी एक समान नागरिकता बोध और व्यवहार के अभ्यस्त क्यों नहीं हो पाए हैं; कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी समाज के एक बड़े हिस्से को अपने जन्म, विवाह एवं मृत्यु संस्कारों और उत्सवों को अपने ढंग से मनाने का अधिकार क्यों नहीं मिला; कि यह कैसी व्यवस्था है जिसमें सार्वजनिक सड़क को भी कुछ लोग अपनी निजी सम्पत्ति समझते हैं और चाहते हैं कि कौन उस पर चलेगा, कौन नहीं ये भी वे तय करें? और सबसे बड़ा यह सवाल कि एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र की सरकारें भी क्यों जाति की इस लक्ष्मण रेखा को नहीं लाँघ पातीं?
ऐसे तमाम सवालों से उपन्यास के पात्र टकराते हैं। बदलाव की बेचैनी हो या बराबरी के सपने, वे यहाँ एक सुलगती हुई आँच में धीरे-धीरे पकते हैं और सघन सामूहिकता के साथ दर्ज होते हैं। हमारे समय और समाज को समझने के लिए एक ज़रूरी उपन्यास.
ISBN: 9789360862312
Pages: 216
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: মূলত 1945 সালে ওড়িয়া ভাষায় লেখা এবং এখানে প্রথমবার অনুবাদ করা হয়েছে, পরজা আধুনিক ভারতীয় কথাসাহিত্যের একটি ক্লাসিক। এটি একটি মহাকাব্যিক স্কেলে উড়িষ্যার পাহাড়ী জঙ্গলে একজন আদিবাসী কুলপতি এবং তার পরিবারের গল্প বলে। এই পরিবারের ভাগ্যের ধীর পতন- স্থানীয় মহাজনের দাসত্বের দিকে নির্বাহের জীবিকা নির্বাহের শান্ত সমৃদ্ধি থেকে- উভয়ই মর্মস্পর্শীভাবে ব্যক্তিকেন্দ্রিক এবং সেইসাথে কৃষক সম্প্রদায়ের মধ্যে সমগ্র জীবনযাত্রার ক্ষয়ের প্রতীক।
Shilakshar Ban Mere Man
- Author Name:
Meena Jha
- Book Type:

- Description: 'शिलाक्षर बन मेरे मन' उपन्यास एक साथ स्त्री-संघर्ष और लड़ते-मरते कृषक समाज की आधुनिक महागाथा है। बिहार के 1967 के विश्व-व्यापी सूखे और अकाल की परिघटनाओं को लेकर मीना झा ने बहुत ही जीवंत और विश्वसनीय ढंग से इस उपन्यास के ताने-बाने को बुना है। अन्नदायिनी धरती की कोख में दरारें पड़ी हैं, खेत में खड़ी फसलें जल गई हैं या उसमें दाने नहीं हैं, नदियों का पानी सूख गया है, मछलियों के जीवन पर भी संकट आ गए हैं और छोटे बच्चों को स्कूलों में मिलने वाली खिचड़ी दुर्लभ पकवान से भी बढ़कर हो गई है और उसी समय सरकारी राशन की कालाबाज़ारी भी चरम पर—ऐसे अमानुषिक अकालबेला के जीवन का चित्रण कथाकार और यात्रा वृत्तांत की सिद्ध लेखिका मीना झा ने इस तरह किया है कि आप उस जीवन के तल में उतरने से खुद को रोक नहीं सकते। यहाँ सूखे और अकाल से जूझते लोगों की भीड़ से मीना झा ने कुछ ऐसे स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियों और बच्चों को अपने कैनवस पर उतारा है जो उस समाज के प्रतिनिधि चरित्र के रूप में सामने आते हैं और जिनके दीर्घ काल तक पाठकों के मन-मस्तिष्क में टिके रहने की प्रबल संभावना है। मिथिला समाज के मिट्टी-पानी में लिथड़े ये पात्र महज़ औपन्यासिक पात्र नहीं, उस समाज के प्रतिनिधि चरित्र हैं—नागार्जुन के 'बलचनमा' और 'वरुण के बेटे' के चरित्रों की तरह। मास्टर काका, विजय, बुढिय़ा दादी, शंभू, रागिनी तक को आप विस्मृत नहीं कर पाएँगे; प्रधान नायिका कुसुम की तो बात ही मत कीजिए। बेहद पठनीय यह उपन्यास जितना ही जीवंत और चाक्षुष है, उतना ही विचारोत्तेजक भी। —श्रीधरम
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