Aatmbodh Ke Ayam : Bhartiya Sangeet Ke Anahatnad
Author:
Smriti SharmaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Religion-spirituality0 Reviews
Price: ₹ 400
₹
500
Available
ज्ञान मनुष्य के लिए तभी सहायक होता है, जब वह अपने साथ-साथ समाज को ऊँचा उठाने का सामर्थ्य रखता हो और ब्रह्मज्ञान की सार्थकता तब होती है जब साधक अपने-आपको इतनी ऊँचाई तक ले जाए कि वह त्रिकालज्ञ बनाकर समाज को आत्मकल्याण के मार्ग में ले जाए। ब्रह्मज्ञानी के लोक और परलोक दोनों सुन्दर और सुखद हो जाते हैं, किन्तु ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। यह अध्यात्म के रास्ते चलकर भक्ति और रोग के धर्म को स्वीकृति प्रदान करके, कठिन साधना द्वारा प्राप्त किया जा सकता। अनाहतनाद की साधना ऐसी ही कठिन तपस्या है जिसे स्मृति शर्मा ने अपने अगम्य कार्य निष्ठा व अटूट मेहनत से पूर्ण किया। अनाहतनाद से आज के संगीत का जन्म हुआ है। भारतीय संगीत केवल मनोविनोद का साधन न होकर आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के भक्ति मार्ग का परम कल्याणकारी साधन है। 'आत्मबोध के आयाम’ रचना संगीत एवं अध्यात्म के पाठकों का पथ प्रशस्त करेगी। सुधीजन इससे निश्चित ही लाभान्वित होंगे।
ISBN: 9789386863836
Pages: 192
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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दया धर्म के पथ पर जो न चलता
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चोरी न करो, हत्या न करो, झूठ मत बोलो
क्रोध न करो, दूसरों से घृणा न करो,
स्वप्रशंसा न करो, सम्मुख ताड़ना न करो,
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लीला के विवेचन के बिना हिन्दी भक्ति-कविता की समीक्षा सम्भव नहीं है। लीला भक्तिरस का प्राण है। हिन्दी के आलोचकों ने लगभग आठ दशकों से हिन्दी वैष्णव भक्तिकाव्य की समीक्षा शुरू की है, किन्तु उनका ध्यान इस प्राणवान तत्त्व की ओर नहीं जा सका है। प्रायः अंग्रेज़ी साहित्य से सम्बन्ध सिद्धान्तों तथा प्रकृत लोक मान्यताओं के प्रकाश में भक्ति-कविता की अब तक जो समीक्षाएँ हुई हैं, उनसे इस विशाल साहित्य की मूल प्रकृति स्पष्ट नहीं हो सकी है। इसका मुख्य कारण यह है कि भक्तिकाव्य के अध्यात्म एवं लोक का द्वन्द्व केवल लीला एवं मात्र लीला के माध्यम से ही विवेचित होना सम्भव है। उसके मन्तव्य, अर्थ-रचना एवं भावद्वन्द्व को इस लीलाधर के अभाव में देखा जाना इस भारतीय कविता के साथ अन्याय है। भक्तिरस इसी लीलाधर्मिता की निष्पत्ति है। आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल जैसे भक्ति-कविता के प्रख्यात समीक्षक भी भक्तिकाव्य की इस मूल अवधारणा से अपनी दृष्टि बचाकर दूसरी ओर जाते दिखाई पड़ते हैं।
प्रस्तुत कृति का मूल मन्तव्य लीला तथा भक्तिरस के इसी सारवान तत्त्व की सैद्धान्तिकता की स्थापना करना है ताकि इसके प्रकाश में हिन्दी भक्तिकाव्य की पुनर्व्याख्या करके उसके साहित्य की ही नहीं, भारतीय संस्कृति और अस्मिता के साथ न्याय किया जा सके।
Prayag Ki Ramlila
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
- Book Type:

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Description:
प्रयाग की रामलीला कब से आयोजित हो रही है, इसका साक्ष्य मुगल शासक अकबर काल से मिलने लगता है, किन्तु अर्थ यह नहीं कि प्रयाग की रामलीला अकबर के समय से शुरू हुई थी। प्रयाग में रामलीला का आयोजन मुगल काल के पहले से होता रहा है। जहाँ तक, भारत का प्रश्न है, इस देश में रामलीला ईसा की आरम्भिक शतियों से होती चली आ रही है। इसका सबसे प्राचीन साक्ष्य पंतजलि का महाभाष्य है, जिसमें वानरों तथा राक्षसों एवं उनके दलों के युद्धों का संकेत मिलता है—एते श्वेतमुखा: एते कृष्णमुखा:.....आदि। नाट्य परम्परा में इसके सबसे प्राचीनतम साक्ष्य भास कृत प्रतिमा तथा अभिषेक नाटक के हैं। यही नहीं, यह रामकथा नाट्य तथा लीला के साथ-साथ प्रारम्भ से ही मधुर संगीत परम्परा से भी सम्बद्ध रही है। वाल्मीकि स्वयं कहते हैं, रामकथा में प्रवीण कुशीलव नामक चारण जातियाँ राजदरबारों में इसका तंत्रीस्वरों के साथ गायन करती रही हैं।
इस संदर्भ को केन्द्र में रखते हुए ‘ऐतिहासिकता तथा समसामयिकता’ इन दोनों से समन्वित पुस्तक ‘प्रयाग की रामलीला’ आपके सामने है। आज प्रयाग नगर के प्रत्येक मुहल्लों तथा जनपद की प्रत्येक तहसीलों के विविध कस्बों तथा गांवों में इस समय जिस उत्साह के साथ लीला आयोजन की चमक दिखाई पड़ती है, लगता है, लोक-जीवन की त्यागमयी, आदर्श आचरणमयी तथा कल्याणमयी नयी चेतना फिर से ग्यारह दिनों के लिए जन-जन के बीच परमोन्मेष के साथ उमंगित हो उठी है।
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