Desh
Author:
Harprasad DasPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Unavailable
‘देश’ को उत्तर–आधुनिक महाकाव्य माना गया है। बल्कि इसे सिर्फ़ एक संरचना ही कहा जाए तो कवि को कोई आपत्ति नहीं होगी, यदि इसकी वास्तुकला में पाठक मेद, खनिज और काष्ठ के प्रयोग को पहचान ले। इस विलक्षण संरचना में बहुमुखी कल्पना का प्रयोग है, यथार्थ की एक मुख्य धारा इसमें कल्पना का स्रोत बनकर प्रवाहित होती है। किसी स्थिर बिन्दु से देश को देखने का तरीक़ा इसमें अद्भुत रूप से बदलता है। इस बदलाव में एक तीव्र और जादुई शक्ति है जो कविताओं को एकात्मकता प्रदान करती है, हालाँकि यह संरचना किसी पूर्व–निर्धारित काव्यवस्तु को प्रतिष्ठित नहीं करना चाहती।</p>
<p>देश की कविताओं में अनेक आरम्भ हैं और अनेक अन्त, परन्तु यह सब किसी एक निर्दिष्ट समाप्ति की ओर अग्रसर नहीं होता, बल्कि एक व्यापक असमाप्ति का निर्माण करता है। इसका उत्तर–आधुनिक रूप इसी असमाप्त निर्मिति से बनता है। ‘देश’ भूखंड है, भाग्य है, निवास है, निर्वासन है, यहाँ तक कि ‘देश’ देशान्तर है और देशोत्तर भी। विविधता के बीच अस्तित्व की यह खोज वस्तुपरकता के परे शुद्ध कविता के अन्त:करण को प्रस्तुत करती है। समकालीन भारतीय साहित्य में इस कृति को अपनी कलात्मकता की लय, लोक–चेतना की मिथकीय पुन:प्रतिष्ठा और मार्मिक अस्तित्वबोध के लिए पहचाना जाएगा।
ISBN: 9788126703067
Pages: 256
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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दिनेश कुशवाह हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उनकी काव्य-प्रतिभा का क्या कहना! निरन्तर अमूर्त, नीरस, उजाड़ और अपठनीय होती हिन्दी कविता को उन्होंने 'इसी काया में मोक्ष' जैसा मुहावरा दिया जो समकालीन हिन्दी कविता के लिए नया अध्याय साबित हुआ। उनका दूसरा कविता-संग्रह 'इतिहास में अभागे' मानुष सत्यों की बेजोड़ कविताई है। दिनेश जी 'असिधाराव्रती' हैं। तलवार की धार पर चलने में उन्हें मज़ा आता है।
अद्भुत कथन-शैली, देशी मिठास और शास्त्रीय परिर्माजन से भरी भाषा का जो मणिकांचन योग दिनेश कुशवाह की कविता में उपस्थित होता है, अन्यत्र दुर्लभ है। कल्पना, प्रतीकों और बिम्बों से सज्जित अपनी कविता में वे वैज्ञानिक-दार्शनिक तर्कों के साथ ऐसी सरसता न जाने कहाँ से लाते हैं। जबकि वैचारिक आधार और राजनीतिक दृष्टि ही उनकी कविता के पाथेय हैं। प्रेम एवं करुणा की जो पुकार दिनेश कुशवाह की कविता में मिलती है, उसके अनुकरण में बार-बार अनेक कवि कंठ फूट पड़ते हैं। वे कबीर की तरह सच को सबसे बड़ा तप मानते हैं, और मुक्तिबोध की तरह अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाना जानते हैं।
'चल्लू भर पानी का सनातन प्रश्न', 'भूमंडलीकृत आषाढ़ का एक दिन', 'महारास', 'आज भी खुला है अपना घर फूँकने का विकल्प', 'उजाले में आजानुबाहु', 'इतिहास में अभागे', 'मैंने रामानन्द को नहीं देखा', 'बहेलियों को नायक बना दिया', 'अच्छे दिनों का डर', 'विश्वग्राम की अगम अँधियारी रात', 'भय सेना', 'प्रेम के लिए की गई यात्राएँ', 'ईश्वर के पीछे', 'प्राणों में बाँसुरी' 'हर औरत का एक मर्द है', 'हरिजन देखि', 'यह पृथ्वी बच्चों के लिए है' तथा 'पूछती है मेरी बेटी' आदि कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं।
काव्य विषयों के नवाचार के मामले में तो दिनेश कुशवाह का कोई शानी नहीं है। वे वाणी के उद्भट पंडित और काव्य के मर्मज्ञ कवि हैं। रूढिय़ों, अवैज्ञानिक धारणाओं, अन्धविश्वासों, अविचारित आस्थाओं, नियोजित पाखंडों, सुनियोजित षड्यंत्रों तथा कपट कुचालों पर कठिन कुठाराघाट करने से वे कभी नहीं चूकते। कविता और जीवन, दोनों में उनकी वाक्शक्ति से हतप्रभ विरोधी भी सहज बैर बिसराकर उनका बखान करने लगते हैं।
—शिवमूर्ति
Kamal Ki Auratein
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Shailja Pathak
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कमाल की औरतें हैं वो जो कितना कुछ सहकर बनी रहीं; कमाल की औरतें हैं वो जिन्होंने अपने मन की किसी हौंस के लिए सारे ज़माने को ठेंगे पर रख उड़ा दिया; कमाल की औरतें हैं वो जो अपनी हर ख़ूबी को छिपाकर पति को बड़ा बनने का मौक़ा देती रहीं; कमाल की औरतें हैं वो जो बच्चों के मज़ाक़ का विषय बनती, रहीं फिर भी उन्हें असीसती रहीं; और कमाल की औरतें हैं वो जो हमारी छोटी या बड़ी बहनें हैं, बुआ हैं, दादी फुआ हैं, जिनकी ज़िन्दगी का कितना समय इस इन्तज़ार में बीत गया कि नैहर से बुलावा आएगा कि उनके भाई-पिता-माँ-भाभियाँ, भतीजे-भतीजियाँ उन्हें गले से लगा सुनेंगे उनके दुख, पूछेंगे कि कैसी बीत रही है, कि कोई दुख तो नहीं है तुम्हें...
कमाल की औरतें संग्रह में सब तरह की औरतें मौजूद हैं—पीड़ित, अकेली, विद्रोही, दाम्पत्य को छिन्न-भिन्न करने को आतुर भी, और दाम्पत्य में खप जाने को तत्पर भी—जिन्हें शैलजा पाठक की भाव-प्रवण भाषा में अभिव्यक्ति मिली है—बिलकुल ऐसे जैसे दोपहर बाद के सुस्ताते समय की बतकहियों में।
इनमें से कई औरतें हैं जिन्हें प्रचलित स्त्री-विमर्श अच्छे से जानता है, लेकिन कुछ हैं जिनके दुख पर आधुनिक दृष्टि उस तरह नहीं पड़ी। यह अच्छी बात है कि उन्हें लेकर इस संग्रह में पर्याप्त कविताएँ हैं। समय से पहले बूढ़ी होती बहनें-बुआएँ—नैहर और ससुराल के बीच की धूल उड़ाती पगडंडियों पर जिनके असंख्य दुख अदेखे ग़ायब हो जाते हैं—इन कविताओं में उन्हें पढ़ना दुख के किसी टापू पर अचानक पहुँच जाने जैसा है...स्तब्धकारी!
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