Nai Konplen
Author:
Motilal AlamchandraPublisher:
Shivna PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
Book
ISBN: 9789387310728
Pages: 120
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
यतीश कुमार कविता के कारोबार को जिस तरह से अपनी इस किताब में कर गुज़र रहे हैं, उसे देखकर यह साफ़ हो जाता है कि वह एक रास्ते की तलाश में थे जो उन्हें मिलता हुआ दिख रहा है। उन्होंने हिन्दी के विश्रुत उपन्यासों पर और यदा-कदा गद्य के किसी और जॉनर पर कविताएँ लिखने की ठानी।
अमूमन उपन्यास और कविता को अपनी संरचनाओं में एक-दूसरे का विपरीत और विलोम माना जा सकता है। लेकिन यतीश बहुत मौलिक तरीक़े से दोनों को किसी कृतिकार पारस्परिकता में देखना शुरू करते हैं। वह उपन्यास को कविता की तात्त्विकता में घटित करने का जोखिम उठाते हैं। इसके लिए वह उपन्यास के मानस और मनस्तत्त्व को आविष्कृत करते हैं—उसका विज़न और उसकी अन्तर्दृष्टि, उसकी मेटाफिजिकल अन्तर्धारा और उसकी वैचारिक निर्मिति। यह एक वजह है कि उपन्यास पर लिखी उनकी कविता कथा का सार-संक्षेप नहीं होती। वह वृत्तान्तों में न्यस्त आकांक्षाओं, ललक, उद्वेग, दुविधा, उम्मीद, वियुक्ति, विघटन, आवेग, संघर्ष वगैरह को कविता के स्वगत में ढालना शुरू करते हैं और उस विवेक को ढूँढ़ना शुरू करते हैं जो किसी भी उपन्यास का अग्रसारक होता है। कह लीजिए कि उपन्यासों पर लिखी जाती इन कविताओं की अपनी अन्तर्यात्रा है जो मूल कृति के समानान्तर होते हुए भी स्वायत्त है और कथा के ठोस के समानान्तर संवेग का आवेग। हिन्दी में किसी ने इस तरह का काम किया हो तो मैं नहीं जानता। उनके इस काम की महत्ता उनके इस तरह अनन्य और अपूर्व होने मात्र से निर्धारित हो सकती थी लेकिन यतीश ने जो काम इस फॉरमैट में किया है वह गहन और सूझ भरा है जो अपने दुस्साहस और संश्लिष्ट काव्यगत स्थापत्य के लिए अपनी विरल पहचान बनाएगा, इसमें कोई संशय नहीं। काव्य के इस गद्य युग में इन कविताओं जैसा प्योर पोएट्री की तरफ़ जाता पोएटिसाइज़्ड टेक्स्ट शायद ही किसी कवि के पास हो यह याद दिलाते हुए कि इस शुद्ध दिखती कविता में जीवन के द्वन्द्व और उसकी दुर्वहता और क्षत-विक्षत करती उसकी सांसारिकता कभी ओझल नहीं होती।
Piramidon Ki Tahon Mein
- Author Name:
Suman Keshari
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Description:
सुमन केशरी का काव्य संसार विस्तृत है। यह विस्तार क्षैतिज भी है और उर्ध्वाधर भी। वे ग़म-ए-दौराँ तक भी जाती हैं और ग़म-ए-जाना तक भी। वह भौतिक संसार के चराचर दु:खों की शिनाख़्त के लिए मिथकों से स्वप्नों तक भटकती हैं, तो आत्मा के आयतन के विस्तार के लिए रोज़-ब-रोज़ की जद्दोजेहद में भी मुब्तिला होती हैं। लगभग तीन दशकों के अपने सक्रिय जीवन में उन्होंने लगातार अपने समय और समाज की हलचलों को उनकी जटिल विडम्बनाओं के साथ दर्ज करने का प्रयास तो किया ही है, साथ ही एक स्त्री के लिए, जो साझा और अलग अभिधार्थ हो सकते हैं, उन्हें बहुत स्पष्ट तौर पर अभिलक्षित भी किया है। पिरामिड की तहों के घुप्प अँधेरों में ‘जहाँ नहीं हैं एक बूँद जल भी तर्पण को’ रोशनी के क़तरे तलाशकर मनुष्यता के लिए जीवन-रस संचित करने की अपनी इस कोशिश में परम्परा के साथ उनका सम्बन्ध द्वंद्वात्मक है। एक ओर गहरा अनुराग तो दूसरी ओर एक सतत असन्तोष।
‘शब्द और सपने’ जैसी कविता में सुमन केशरी का चिन्ताओं का सबसे सघनित रूप दृष्टिगत होता है। छोटे-छोटे नौ खंडों में बँटी यह लम्बी कविता अपने पूरे वितान में पाठक के मन में भय ही नहीं पैदा करती, बल्कि समकालीन वर्तमान का एक ऐसा दृश्य निर्मित करती हैं जहाँ इसके शिल्प में अन्तर्विन्यस्त बेचैनी पाठक की आत्मा तक उतरकर मुक्ति की चाह और उसके लिए मनुष्यता के आख़िरी बचे चिन्हों को बचा लेने का अदम्य संकल्प भी भरती है।
स्त्री उनके काव्य-जगत का अभिन्न हिस्सा है। ‘माँ की आँखों के जल में तिरने' की कामना के साथ, अपने जीवन में मुक्ति और संघर्ष करती, स्वप्नों से यथार्थ के बीच निरन्तर आवाजाही करती, ‘किरणों का सिरा थाम लेने’ का स्वप्न देखती वह यह भी जानती है कि 'चोंच के स्पर्श बिना घर नहीं बनता’ और यह भी कि ‘औरत ही घर बनाती है/पर जब भी बात होती है घर की/तो वह हमेशा मर्द का ही होता है।’ इस स्त्री के संवेदना जगत में मनुष्यों के साथ-साथ प्रकृति भी है तो मातृहीन बिलौटे और अजन्मे बच्चे भी।
जीवन के हर सफे़ पर लिखे ‘असम्भव' से टकराती और ‘घर की तरह घर में रहने' ही नहीं ‘संगीनों के साए तले प्रेम करने की अदम्य जिजीविषा से भरी सुमन केशरी की ये कविताएँ समकालीन कविता के रुक्ष वातावरण में मिथक, लोक और स्वप्न का एक भव्य वातायन ही सृजित नहीं करतीं अपितु प्रेम, करुणा और औदार्य के मानवीय जीवन-मूल्यों पर आधारित एक समन्वयवादी वितान भी रचती हैं जिसमें भविष्य के स्वप्न देखे जा सकें। ‘पिरामिडों की तहों में’ में संकलित कविताएँ अनिवार्यतः हिन्दी कविता के पाठक के संवेदनाजगत को और निर्मल करेंगी तथा असहनीय होते जा रहे इस दौर में मनुष्य बने रहने के लिए आवश्यक मानवीय चेतना का संचार भी करेंगी।
—अशोक कुमार पांडेय
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