Tarapath
Author:
Sumitranandan PantPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 556
₹
695
Available
‘तारापथ’ का यह परिवर्धित संस्करण पंत जी के समग्र काव्य-साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है। ‘वीणा’ से लेकर अधुनातन कृति ‘संक्रान्ति’ तक के काव्य-संग्रहों से उनकी रचनाओं का सुरुचिपूर्ण चयन इसमें प्रस्तुत किया गया है। इस संकलन की विशेषता यह है कि इसमें पंत जी की नवीनतम कृतियों का प्रतिनिधित्व पाठकों को मिलेगा।</p>
<p>पंत जी ने इस युग को एक ‘महासंक्रान्ति युग’ कहा है। इस महासंक्रान्ति काल की कविता में आस्था और लोकमंगल को प्रतिष्ठित करना किसी भी साधारण प्रतिभा और जीवन-दृष्टि के कवि के बूते के बाहर की बात है। जबकि विघटन, विशृंखलता, नैतिक मूल्यों का ह्रास चारों ओर दिखाई पड़ रहा है, उसमें महाकवि पंत का यह स्वप्न (‘मुझे स्वप्न दो, मुझे स्वप्न दो’) एक महान जीवन और विराट आस्था की परिकल्पना करता है। यही वह सन्देश है, जो समस्त पंत-काव्य के अन्दर-ही-अन्दर प्रवाहित होता हुआ हमें मिलता है।</p>
<p>उनका समस्त काव्य अन्तर्मुखता का काव्य न होकर आत्मोत्कर्ष का काव्य है। यह आत्मोत्कर्ष अपनी समग्र संरचना में एक सार्वभौमिक शुभेच्छा तक ले जाता है। इसीलिए उनका काव्य अतीतोन्मुख न होकर वर्तमान के फलक पर भविष्योन्मुखी काव्य है। यह सार्वभौमिक शुभेच्छा ही वह तत्त्व है, जिसके भीतर से कवि पंत ने विश्व-मानव और नव-मानव की परिकल्पना को अपनी कविता में सार्थक किया है। अपनी सम्पूर्ण काव्य-सम्पदा के भीतर से उन्होंने एक नए और निजी अध्यात्म की रचना की है। यह अध्यात्म अपनी मंगलकामना में निजी होते हुए भी ‘स्व’ भावना से पूर्णतया मुक्त है।
ISBN: 9788180313653
Pages: 192
Avg Reading Time: 6 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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टी.एस. इलियट ने कहीं कुछ ऐसा कहा है कि जब कोई प्रतिभा या पुस्तक साहित्य की परम्परा में शामिल होती है तो अपना स्थान पाने की प्रक्रिया में वह उस पूरे सिलसिले के अनुक्रम को न्यूनाधिक बदलती है—वह पहले जैसा नहीं रह पाता—और ऐसे हर नए पदार्पण के बाद यह होता चलता है। नरेश सक्सेना के साथ जटिल समस्या यह है कि यद्यपि वे पिछले चार दशकों से पाठकों और श्रोताओं में सुविख्यात हैं और सारे अच्छे—विशेषत: युवा—कवि उन्हें बहुत चाहते हैं किन्तु अपना पहला संग्रह वे हिन्दी को उस उम्र में दे रहे हैं जब अधिकांश कवि (कई तो उससे भी कम आयु में) या तो चुक गए होते हैं या अपनी ही जुगाली करने पर विवश होते हैं। अब जबकि नरेश के कवि-कर्म की पहली, ठोस और मुकम्मिल क़िस्त हमें उपलब्ध है तो पता चलता है कि वे लम्बी दौड़ के उस ताक़तवर फेफड़ोंवाले किन्तु विनम्र धावक की तरह अचानक एक वेग-विस्फोट में आगे आ गए हैं जिसके मैदान में बने रहने को अब तक कुछ रियायत, अभिभावकत्व, कुतूहल और किंचित् परिहास से देखा जा रहा था। उनकी जल की बूँद जैसी अमुखर रचनाधर्मिता ने आख़िरकार हिन्दी की शिलाओं पर अपना हस्ताक्षर छोड़ दिया है और काव्येतिहास के पुनरीक्षण को उसी तरह लाज़िमी बना डाला है जैसे हमारे देखते-देखते मुक्तिबोध और शमशेर ने बना दिया था।
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- Description: हिंदी साहित्य जगत में विलक्षण प्रयोगों, नए-नए मुहावरों, अछूते प्रतीकों, पैनी और व्यंग्यात्मक भाषाशैली के साथ-साथ जनसापेक्ष रचनाशीलता के बल पर श्री रमेशराज ने एक महत्वपूर्ण मुक़ाम हासिल किया है। आपके मौलिक चिंतन में एक तरफ जहां असीम गहराई है, वहीं सम्प्रेषणशीलता सर्वत्र मौजूद होने के कारण पाठक-मन ऊबता नहीं। हर तथ्य आसानी के साथ ग्रहण करते हुए वह आत्मतोष से भर जाता है। तेवरी विधा के सूत्रधार श्री रमेशराज एक तेवरीकार के रूप में ही विख्यात हों, ऐसा कदापि नहीं है। आपने बेहतरीन मुक्तछंद कविताएं लिखी हैं। बालगीत कार के रूप में भी आपकी पहचान है। आपके गीत-नवगीत मन को गहराइयों तक छूते हैं। व्यंग्य व्यंजना का अद्भुत रंग लिए होते हैं। आपका चिंतन 'कविता क्या है?' जैसे मूलभूत प्रश्न को सुलझाता है। रस पर आपकी सूक्ष्म पकड़ है। समकालीन यथार्थवादी काव्य की रस-समस्या का समाधान खोजते हुए आपने एक नए रस "विरोधरस" की मौलिक खोज की है। काव्य की आत्मा पर चिंतन करते हुए "साधारणीकरण" के स्थान पर एक नया सिद्धांत "आत्मीयकरण" दिया है। नए-नए छन्दों को प्रतिष्ठापित करने वाले श्री रमेशराज की ताजा काव्यकृति मधु-सा ला (चतुष्पदी-शतक) है, जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विकृतियों और विसंगतियों पर तीखे प्रहार किए गए हैं।यथा- नसबंदी पर देते भाषण, जिनके दस लल्ली-लाला हाला पीकर बोल रहे हैं, ‘बहुत बुरी होती हाला’। अंधकार के पोषक देखो, करने आये भोर नयी नयी आर्थिक नीति बनी है, आज प्रगति की मधुशाला।। कवि ने अधर्मी साधुओं मौलवियों के दुराचरण पर बिना भेदभाव किये तटस्थ भाव से तीखे व्यंग्य कसे हैं- मुल्ला-साधु-संत ने चख ली, राजनीति की अब हाला गुण्डे-चोर-उचक्के इनके, आज बने हैं हमप्याला। जनसेवक को शीश नवाते, झट गिर जाते पाँवों पर ये उन्मादी-सुख के आदी, प्यारी इनको मधुशाला।। दूषित होते पारिवारिक परिवेश का सजीव चित्रण देखिए- बेटे के हाथों में बोतल, पिता लिये कर में प्याला इन दोनों के साथ खड़ी है, कंचनवर्णी मधुबाला। गृहणी तले पकौड़े इनको, गुमसुम खड़ी रसोई में नयी सभ्यता बना रही है, पूरे घर को मधुशाला।। पारिवारिक मूल्यों में आयी गिरावट पर कवि की पैनी पकड़ इसप्रकार है- बेटे की आँखों में आँसू, पिता दुःखों ने भर डाला मजा पड़ोसी लूट रहे हैं, देख-देख मद की हाला। इन सबसे बेफिक्र सुबह से, क्रम चालू तो शाम हुयी पूरे घर में महँक रही है, सास-बहू की मधुशाला।। आज हमारा समाज सभ्यता के नाम पर कितना संस्कारविहीन हो गया है- मरा पड़ौसी, उसके घर को दुःख-दर्दों ने भर डाला हरी चूड़ियाँ टूट गयीं सब, हुई एक विधवा बाला। अर्थी को मरघट तक लाते, मौन रहे पीने वाले दाहकर्म पर झट कोने में, महँकी उनकी मधुशाला।। एक चतुष्पदी में सियासत का षडयंत्र देखिए- उसने की है यही व्यवस्था, दुराचरण की पी हाला प्याला जिसके हाथों में हो, बन जा ऐसा मतवाला। मत कर चिन्ता तू बच्चों की, मत बहरे सिस्टम पर सोच तेरी खातिर जूआघर हैं, कदम-कदम पर मधुशाला।। समाज को चेतना प्रदान करने वाले कवि का आचरण आज कैसा जनविरोधी हो गया है- कलमकार भी धनपशुओं का, बना आजकल हमप्याला दोनों एक मेज पर बैठे, पीते हैं ऐसी हाला। निकल रहा उन्माद कलम से, घृणा भरी है लेखों में महँक छोड़ती अब हिंसा की, अलगावों की मधुशाला।। दुष्टों, दुराचारियों के सम्मुख नतमस्तक होते क़लम के सिपाहियों पर तंज कसते हुए कवि कहता हैं- सबसे अच्छी मक्खनबाजी, हुनर चापलूसी का ला तुझको ऊँचा पद दिलवाये, चाटुकारिता की हाला। स्वाभिमान की बात उठे तो, दिखला दे तू बत्तीसी कोठी बँगला कार दिलाये, बेशर्मी की मधुशाला।। सारा परिवेश विषैला हो चुका है। हर सियासी दल से जनता को धोखा मिल रहा है। पूरा का पूरा सिस्टम एक अनसुलझा सवाल बन गया है। फिर भी कवि हार न मानते हुए रहनुमाओं से यह सवाल करता है तो करता है- कब तक सपना दिखलाओगे, गांधी के मंतर वाला और पियें हम बोलो कब तक, सहनशीलता की हाला। अग्नि-परीक्षा क्यों लेते हो, बंधु हमारे संयम की कब तक कोरे आश्वासन की, भेंट करोगे मधुशाला।। कुल मिलाकर रमेशराज जी के इस मधु-सा ला (चतुष्पदी-शतक) का साहित्य-जगत में उनकी अन्य कृतियों की तरह स्वागत होगा, ऐसा विश्वास है। ~अनिल 'अनल'
Kahi Ankahi (Poems)
- Author Name:
Nandita Shukla Bhaskar
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- Description: "यह नियति ही है जिसे भोगना है सोचती हूँ हँसकर झेलूँ पर जब भी ये सोचती हूँ रो पड़ती हूँ भरे गले से तुम्हारा नाम लेना चाहती हूँ तुम्हें कृतज्ञता के दो शब्द कहना चाहती हूँ। कितना तो हमें कहना-सुनना है कह-सुन भी लेंगे इर्द-गिर्द के लोगों की दृष्टि में हम मौन हैं सिर्फ बरसों बाद मिले अपरिचितों की भाँति। देखते-देखते नीले आकाश में बादल रुई के फाहे-से छा गए हैं एकाएक सफेद परोंवाले पक्षी अपने पंख फड़फड़ा के उड़ने लगे हैं मैं दुबककर तुम में और समा जाती हूँ अपने बसेरे में, चिडि़या-सी! बस यों ही जीना सीख लिया है अपने काँधों पर अपने ही अस्थिकलशों को ढोना शुरू कर दिया है। —इसी संग्रह से बचपन में ही माँ के साए से संचित हो गई एक बालिका के मनोभावों का संकलन है यह पुस्तक। पिता की स्नेहिल छाँव और ममत्व से जिसका पालन हुआ, उस बालिका की आशा-उत्कंठाओं का संकलन है यह पुस्तक। ईश्वर सबकुछ ले ले, पर माता-पिता के साए से वंचित न करे क्योंकि वही दुनिया का सबसे सुरक्षित कवच होते हैं—यह प्रार्थना करनेवाली बालिका की ‘कही-अनकही’ भावनाओं का संकलन है यह पुस्तक। "
Ek Janam Mein Sab
- Author Name:
Anita Verma
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Description:
जिस जीवन के भीतर से चलकर अनीता वर्मा और उनकी कविताएँ हमारे पास आती हैं वह एकांगी या द्वि-आयामीय नहीं है, बल्कि वे उसके दुर्निवार वैविध्य को पहचानने, स्वीकारने और फिर उसे हमें देने की चुनौती और जोखिम उठाती हैं। वे हिंदी के उन बहुत कम रचनाकारों में हैं जो आत्म-मोह या आत्म-रति के परे अपनी अंदरूनी दुनिया का भी अन्वेषण करते हैं और उसे स्वपीड़न या सुखवाद की चाशनी में पाग कर पेश नहीं करते। अनीता वर्मा को ‘आत्मा’, ‘प्रेम’, ‘शून्य’, ‘चुंबन’, ‘यातना’, ‘विषाद’, ‘पवित्र’, ‘उजास’, ‘दुख’, ‘देह’, ‘रूप’, ‘मृत्यु’, ‘निराशा’, ‘स्पंदन’, ‘अनंत’, ‘वृंत’, ‘सिहरन’, ‘एकांत’, ‘छाया’, ‘स्पर्श’, ‘उदासी’, ‘प्राण’, ‘बेसुध’, ‘स्निग्ध’ जैसे आज की कविता से लगभग निर्वासित प्रत्ययों के हठीले और दुस्साहसिक इस्तेमाल से कोई गुरेज़ नहीं है जिनसे वे एक ऐसा भीतरी, निजी–एकांत नहीं–संसार बसाती हैं जिससे गुज़रते हुए कभी महादेवी-शिम्बोर्स्का जैसी कवयित्रियों की याद आती है तो कभी शमशेर-लोर्का की जटिल, ऐन्द्रिक बिम्बात्मकता की। उनकी ऐसी कविताओं में कोमल मानवीय भावनाओं और रिश्तों के कई संवेदनशील चित्र हैं लेकिन वे लगभग हमेशा भावुकता, दैन्य तथा आत्मावसाद से बच पाई हैं और उन्हें एक मननशील आत्माभिव्यक्ति में बदल सकी हैं। परिणामस्वरूप हिंदी को ‘प्रार्थना’, ‘प्रेम’, ‘व्यर्थ’, ‘अभी’, ‘भीतर’, ‘पानी के दरवाज़े’, ‘खेल’, ‘वह’, ‘विकलता’, ‘सुंदरता’, ‘अवसान’, ‘पृथ्वी के ऊपर’, ‘जुलाई’, ‘चुंबन’, ‘स्पर्श’, ‘लक्ष्यहीन’, ‘इसी तरह’ तथा ‘न बोलो’ जैसी अपूर्व रचनाएँ मिल पाई हैं जिनमें भावनाओं, विचारों, शब्दों, चित्रों, बिम्बों, संगीत तथा गीतिमयता का एक विस्मयकारी सामंजस्य नज़र आता है। चित्रांकन और बिम्बसृष्टि अनीता वर्मा को बहुत आकृष्ट करते लगते हैं और वे कभी-कभी अभिव्यक्तिवादियों-बिम्बवादियों-प्रतीकवादियों की तरह उनके तर्कातीत सौंदर्य के लिए एक निजी, स्वायत्त, परिष्कृत भाषा के प्रयोग का ख़तरा उठा लेती हैं और हिंदी की नई उद्रेक-क्षमता को उजागर करती हैं। लेकिन ऐसी कविता में हर्ष-विषाद तथा प्रेम की अनूठी, यथार्थ अभिव्यक्तियाँ भी हैं।
ऐसी रचनाएँ ही कवयित्री को महत्त्वपूर्ण बनाने में अपर्याप्त न होतीं लेकिन उसकी निगाह केवल अभ्यंतर और व्यष्टि तक सीमित नहीं है, वह बाह्य विश्व और समष्टि को भी देखती है। यह इसी दृष्टिसम्पन्नता का परिणाम है कि अनीता वर्मा वान गॉग, दा विंची और रेन्वा की सुप्रसिद्ध कृतियों के चाक्षुष पक्ष को ही नहीं देखतीं, उनमें छिपी तकलीफ़देह कहानियों और जटिल ज़िंदगियों को भी पहचानती-महसूस करती हैं। कलाकृतियों के पीछे के समाज और जीवन को हिंदी कविता में इस तरह कम ही देखा गया है। इससे भी आगे, अनीता वर्मा को अपने आसपास ‘इसी समय’ चलते ‘कोमलता और दर्द के व्यापक संसार’ का पूरा भान है जिसमें नवजात शिशु हैं, पूँजी के भयावह व्यापार हैं, वहशियों के बीच चीख़ती स्त्री है, ईर्ष्या, लालच और मासूम सपने हैं, मृत्यु की परछाइयों से परे हँसी और प्रेम हैं। यह दृष्टि महज़ एक ‘टूटता मकान’ नहीं देखती, उसके गिरते अतीत, भयानक भविष्य, मज़दूरों, भिखारियों, जानवरों तथा उस घर की गृहिणी को भी देखती है जिसकी ईंटें ले जाने के लिए अब एक ट्रक रात गये आता है। ‘घर’ में कवयित्री आज के बसेरे से शुरू कर आदिम आसरों तक जाती है, सारी पृथ्वी को निवास की तरह देखती है लेकिन इस क्रूर वास्तविकता को जानती है कि अब समझौतों से घर बनता है, जिसमें प्रेम संस्कारों पर टिका हुआ है। यथार्थ को देखती हुई कवयित्री की दृष्टि सर्वसंशयी नहीं है। कवयित्री अपने कथ्य, भाषा तथा शिल्प पर हमेशा एक संतुलित नियंत्रण रख पाने में सफल हो पाती है। वृहत्तर संसार की उसकी कविताएँ असंदिग्ध रूप से वंचितों, औरतों और बच्चों के पक्ष में हैं और पूँजी, मुनाफ़े, नियमों, बाज़ार, विज्ञापन, शोषण और नृशंसताओं के खिलाफ़ हैं। यदि ‘अमीर’ में विलासिता का जीवन उसके निशाने पर है तो ‘एक और प्रार्थना’ में उसे यह आत्म-विडंबनापूर्ण एहसास भी है–“प्रभु मेरी दिव्यता में/सुबह-सवेरे ठंड में काँपते/रिक्शेवाले की फटी कमीज ख़लल डालती है।” ‘तर्पण’ में धर्म और सभ्यता को मानवताविरोधी बताने का दुस्साहस है जबकि ‘विज्ञापन’ में उपभोक्तावाद से बर्बाद होते आदमी और समाज की तस्वीर है। स्त्रियों और बच्चों पर कुछ निहायत अलग ढंग की कविताएँ अनीता वर्मा के पास हैं। ‘अब भी विरोध’ में एक ऐसी औरत की कहानी है जो पहले ‘पैसे कमाती और दुआ माँगती थी’ लेकिन जब खुले, सुंदर संसार में आती है तो भी उसकी मुखालिफ़त की जाती है। ‘स्त्रियों से’ कविता का उद्बोधन लोकप्रिय नारीवादी पदावली का इस्तेमाल नहीं करता बल्कि ‘अपनी निबिड़ताओं से निकाल लानी होगी उजली हँसी’ का आह्नान करता है। स्त्री-शरीर के बाज़ारीकरण का गहरा आकलन ‘इस्तेमाल’ में है जिसकी “शुक्र करो कि खूबसूरत माँएँ बच्चे नहीं बेचतीं/यह काम बदसूरत माँओं के लिए तय किया गया है” सरीखी मार्मिक पंक्तियाँ भयावह हैं। लक्ष्मणपुर बाथे और शंकर बिगहा के दलित हत्याकांडों पर लिखी गयी कविता एक रोती हुई स्त्री से शुरू होती है। स्कूली बच्चों पर लिखी अनीता वर्मा की ‘अपनी कक्षा’, ‘ज़ाहिद अली का पन्ना’ (जो बचपन और साम्प्रदायिकता दोनों विषयों के बीच अद्भुत आवाजाही करती है), ‘स्कूल’ तथा ‘हम जो हैं’ सरीखी रचनाएँ एक विरल कोमलता से बच्चों के जटिल वर्तमान तथा अनिश्चित भविष्य को देखती हैं। ज़मीन सार्वजनीन हो या निजी, विषय समसामयिक हों या देश-कालातीत, अनीता वर्मा ने एक ऐसी भाषा और शैली अर्जित की है, पूरी मानवीय सहानुभूति देने और अपनी अंतर्तम बात को कह पाने का ऐसा तरीक़ा, कि वे पिछले दो दशकों में उभरी हिंदी युवा कवियों की बड़ी पीढ़ी में भी अगली पंक्तियों में अपनी विशिष्ट पहचान और स्थायी जगह बना चुकी हैं। — विष्णु खरे
Man Ki Nadi Me Bheege Shabd
- Author Name:
Rekha Bhatia
- Book Type:

- Description: Book
ADHOORA RASHTRAGAN
- Author Name:
Dr. Omprakash Singh Shant
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- Description: Collection of poems
Nepali Kavitayen
- Author Name:
Sarveshwardayal Saxena
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Description:
नेपाली साहित्य या भाषा की प्राचीनतम रचना चौदहवीं शती का एक ताम्रपत्र माना जाता है। लेकिन मल्लकाल के अन्त के साथ ही नेपाली में साहित्य सर्जना होने लगी। सुवानन्द दास की पहली कविता, जिसमें पृथ्वीनारायण शाह (प्रथम नेपाल नरेश) की विजय-यात्रा इत्यादि का वर्णन है, नेपाली साहित्य की प्रथम कविता है। लेकिन नेपाली साहित्य की वास्तविक शुरुआत भानुभक्त आचार्य और उनके महाकाव्य ‘नेपाली रामायण’ से माननी चाहिए, जिसे भानुभक्त आचार्य ने जेल के अन्दर लिखा था।
इस काल को हम नेपाली मानस के निराशा-युग, पराजय-काल के रूप में ले सकते हैं। अंग्रेज़ों के साथ अपमानजनक सुगौली सन्धि (1816) के समय अनेक दरबारी षड्यंत्रों की बीभत्सता चरम रूप में थी। सत्ता के लिए हर कोई दूसरे की लाश पर खड़े रहने को तत्पर था। नेपाली इतिहास के लहूलुहान पन्ने इन्हीं दिनों लिखे गए। भानुभक्त की ‘रामायण’ इसी भक्तिकाल (1853) की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है।
सत्ता और शास्त्रीयता के विरुद्ध भयंकर युद्ध के नायक गोपालप्रसाद रिमाल प्रथम कवि हैं जिनका प्रभाव आज तक बरकरार है। 1940 में ही महाकवि लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा भी स्वतंत्रता युद्ध में कूद गए। रिमाल और देवकोटा दो ऐसे अद्वितीय कवि हैं, वे अब हमारे मध्य नहीं रहे, जिन्होंने नेपाल को नई जागृति दी। 1950 में नेपाल में प्रजातंत्र की स्थापना हुई। 1950-60 के दशक को हम नेपाली साहित्य का अभूतपूर्व दशक कह सकते हैं।
इस संग्रह में 1961 के बाद के कवियों को ही प्रस्तुत किया गया है—अपवाद के रूप में सर्वश्री गोपालप्रसाद रिमाल, लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा और मोहन कोइराला हैं।
संग्रह के कवियों में दुरूहतावादी और ‘कला कला के लिए’ माननेवाले और अपने को प्रगतिशील कहनेवाले किसी वाद के समर्थक कवियों को शामिल नहीं किया गया है।
नेपाली कविता में साठ के दशक के बाद जो पीढ़ी उभरी है, वह साहित्य को आदमी की व्यथा, वेदना, विसंगति, कटुता और जीवन के घिनौने यथार्थ को प्रकट करने का माध्यम स्वीकारती है और उसे आम आदमी तक ले जाना चाहती है। ऐसे सभी कवियों को इस संग्रह में शामिल करने का प्रयास किया गया है जो सौ साल बाद के पाठक के लिए नहीं लिखते बल्कि आज के पाठकों के सामने आज की संवेदना को लेकर जाना चाहते हैं।
Aanch
- Author Name:
Sumita Kumari
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Description:
सुमिता कुमारी प्रतिभावान कवि और गद्यकार हैं। उन्होंने अपने आस-पास के जीवन को कविता में ढाला है और कुछ मर्मस्पर्शी कविताओं की रचना की है। यहाँ स्त्रियों के पारिवारिक जीवन और श्रमिक स्त्रियों के संघर्ष तथा जीवट के नए चित्र मिलते हैं। ‘आँच’ शीर्षक कविता जीवन-संग्राम और प्रतिरोध की विशिष्ट कविता है। धान रोपती स्त्रियों और वृद्धाओं के जीवन के विश्वसनीय रेखांकन द्रवीभूत करते हैं। इन कविताओं की तेज आँच हमें तप्त कर देती है। अधिकांशतः ये कविताएँ गद्यबद्ध हैं। कहीं-कहीं लय का भी मिश्रण है। भाषा सरल, सहज और मुहावरेदार है। मगही के अनेक शब्दों का निपुण व्यवहार कवि की सृजन-क्षमता को दर्शाता है और उनकी रचनाओं को अद्वितीय बनाता है। कुछ नए बिम्ब और अलंकरण भी कवि ने सिरजे हैं। मगही भाषा की समृद्धि का समुचित उपयोग हिन्दी कविता में कम ही हो पाया है।
पेशे से प्रशासनिक पदाधिकारी होते हुए भी सुमिता जी ने निरन्तर काव्य-साधना की है और जीवन को बहुत ध्यान से देखा है। वास्तव में बाहरी दुनिया के साथ-साथ आन्तरिक दुनिया का भी अनवरत अवलोकन करती रहती हैं और अत्यन्त व्यस्त दिनचर्या के बीच काव्य-रचना के लिए किंचित अवकाश निकाल ही लेती हैं। इसीलिए इन कविताओं में आवेग और त्वरा है जो सुमिता जी को बाक़ी सभी समकालीनों से पृथक एक विशिष्ट स्थान पर स्थापित करती है।
आशा है कि सहृदय पाठक इन कविताओं का स्वागत करेंगे। हम यह भी आशा करते हैं कि भविष्य में सुमिता जी से परिपक्वतर एवं श्रेष्ठतर कविताएँ मिलेंगी और एक दिन वह कविता के शिखर की ओर उन्मुख होंगी। अस्तु। —अरुण कमल
Tulsi Rachnawali Vol-2
- Author Name:
Dr. Ramji Tiwari
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- Description: गोस्वामी तुलसीदास की विलक्षण प्रतिभा से प्रसूत अनंत काव्य-कीर्ति-कौमुदी में स्नात होकर समस्त विश्व के काव्य-रसिक धन्य, रससिक्त और श्रद्धानवत होते रहे हैं, किंतु सभी के दृष्टि-पथ में 'रामचरितमानस' ही आकाशदीप की भाँति विराजमान है। अन्य ग्रंथरत्न छायावेष्टित ही रह जाते हैं। जबकि लोक-परलोक चिंतन, व्यावहारिक चेतन जीवन और अध्यात्मबोध, संस्कृति और संस्कार, संघर्ष और आस्था तथा जय और पराजय से युक्त विलक्षण व्यक्तित्व उनके सभी ग्रंथ-रत्नों को देखने के बाद ही सगुण साकार हो पाता है। संस्कारशील और सुरुचि-संपन्न पाठक भी इस विश्वकवि के संपूर्ण वाड्मय का रसास्वादन कर लेने के बाद ही पूर्ण परितोष का लाभ ले पाता है। गोस्वामीजी के सभी ग्रंथरत्नों को एकत्र उपलब्ध कराने के पुनीत उद्देश्य से ही इस 'रचनावली' की योजना बनाई गई है। ग्रंथावली का प्रथम खंड सुविज्ञ पाठकों को समर्पित है। इसमें गोस्वामीजी की 'रामलला नहछू', 'वैराग्य संदीपनी', 'बरवै रामायण', 'जानकी मंगल', 'पार्वती मंगल', 'रामाज्ञा-प्रश्न', 'दोहावली', 'श्रीकृष्ण गीतावली' कृतियों का समावेश है। आशा है, सुधी पाठकों को अभीप्सित परितोष मिल सकेगा।
Pratirodh Ka Stree-Swar : Samkaleen Hindi Kavita
- Author Name:
Savita Singh
- Book Type:

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कवयित्री और प्रखर स्त्रीवादी आलोचक सविता सिंह द्वारा सम्पादित ‘प्रतिरोध का स्त्री-स्वर’ में संकलित कविताएँ शक्ति की ऐसी सभी संरचनाओं के विरुद्ध प्रतिरोध की कविताएँ हैं, जो स्त्रियों को उनके अधिकार से वंचित करती हैं। वह चाहे पितृसत्ता हो, धार्मिक सत्ता, जातिवादी या राजनीतिक सत्ता हो। कहा जा सकता है कि ये कविताएँ अस्मिता विमर्श की सीमाओं का अतिक्रमण करती हैं या उसकी परिधि को और व्यापक बनाती हैं। ये विचारों पर फैल रहे कोहरे को भेदने की कोशिश हैं। घर से दफ़्तर तक, संसद से सड़क तक, सचिवालय से न्यायालय तक सारी जगह इनकी निगाह की हद में है। इन कविताओं में बोलने वाली स्त्री मानती है और जानती है कि उसका प्रतिनिधित्व करती हुई दिखती सरकार उसकी नहीं है।
ये कविताएँ स्त्री की स्वतन्त्रता की व्यापक परिभाषा रचती हैं। वहाँ सवर्ण और दलित स्त्री के भेद के सवाल भी हैं और यह समझदारी भी कि राजनीतिक लोकतंत्र जब सामाजिक लोकतन्त्र में परिवर्तित होगा तभी सफल होगा। उनका ग़ुस्सा दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के विरुद्ध भी है और सामाजिक संरचना के ख़िलाफ़ भी।
महामारी से उठे सवाल और कोरोना के दौरान सफ़ाई कामगारों के सवाल भी इन कविताओं की जद में हैं। ये कविताएँ प्रतिरोध का वह स्त्री स्वर हैं जो अपनी धरती से जुड़ा है, जो इस धरती का आदि वासी है।
—राजेश जोशी
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