
Madhya Pradesh Ki Lokkathayen
Author:
Vasant NirgunePublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
प्रस्तुत पुस्तक में मध्य प्रदेश की चार संस्कृतियों और बोलियों की लोककथाओं का संकलन है। ये संस्कृतियाँ और बोलियाँ अपने-अपने वाचिक परंपरागत साहित्य का अकूत भंडार हैं। निमाड़ी, मालवी, बुंदेली और बघेली बोलियाँ अपनी-अपनी संस्कृति और साहित्य का संचरण तथा संरक्षण करती आई हैं। इनमें गीत, कथा, गाथा, लोकोक्ति, नृत्य, नाट्य, शिल्प आदि सभी शामिल हैं, जो वाचिक हैं।
कथाएँ ज्ञान का सागर हैं। उनमें मानव जिज्ञासा के हर प्रश्न के उत्तर मिल जाते हैं। इसलिए कथारस को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, पर इस रस को पाने के लिए अपने मस्तिष्क में वैसा ही निर्मल भाव उत्पन्न करने की जरूरत होगी।
निमाड़ी लोककथाएँ विंध्य और सत्पुड़ा की मध्यभूमि की ऊष्म जलवायु की तपती कहानियाँ हैं, जो नर्मदा के दोनों तटों के पवित्र जल में बारहों महीने डुबकियाँ लगाती हैं। मालवी लोककथाएँ मालवा की शस्य-श्यामला भूमि की वार्त्ताएँ हैं। बुंदेली लोककथाएँ बुंदेलखंड के शौर्य, साहस और शृंगार की भूमि की पारदर्शी कथाएँ हैं। बघेली लोककथाएँ एक अर्थ में रिमही, यानी नर्मदा संस्कृति की ही बघेलखंडी कथाएँ हैं। रीवा का नाम भी रेवा के ‘रव’ से बना है।
इन लोककथाओं में प्रदेश के जनजातीय जीवन के आदिम स्वर और छवियाँ अंकित हैं, क्योंकि लोककथाओं का मूल उत्स तो आदिम कथाएँ ही हैं।
ISBN: 9789355210326
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: ‘हिन्दू’ शब्द के असीम और निराकार विस्तार के भीतर समाहित, ‘अपने-अपने ढंग’ से सामाजिक रूढ़ियों में बदलती ‘उखड़ी-पुखड़ी’, ‘जमी-बिखरी’ वैचारिक धुरियों, सामूहिक आदतों, ‘स्वार्थों’ और ‘परमार्थों’ की आपस में उलझी पड़ी अनेक बेड़ियों-रस्सियों, सामाजिक-कौटुम्बिक रिश्तों की पुख्तगी और भंगुरता, शोषण और पोषण की एक दूसरे पर चढ़ीं अमृत और विष की बेलें, समाज की अश्मीभूत हायरार्की में ‘साँस लेता-दम तोड़ता जन’, और इस सबके ऊबड़-खाबड़ से राह बनाता समय—मरण-लिप्सा और जीवनावेग की अतलगामी भँवरों में डूबता-उतराता, अपने घावों को चाटकर ठीक करता, बढ़ता काल... देसी अस्मिता का महाकाव्य यह उपन्यास भारत के जातीय 'स्व’ का बहुस्तरीय, बहुमुखी, बहुवर्णी उत्खनन है। यह न गौरव के किसी जड़ और आत्ममुग्ध आख्यान का परिपोषण करता है, न 'अपने’ के नाम पर संस्कृति की रगों में रेंगती उन दीमकों का तुष्टीकरण, जिन्होंने 'भारतवर्ष’ को भीतर से खोखला किया है। यह उस विराट इकाई को समग्रता में देखते हुए चलता है जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं। यह समूचा उपन्यास हममें से किसी का भी अपने आप से संवाद हो सकता है—अपने आप से और अपने भीतर बसे यथार्थ और नए यथार्थ का रास्ता खोजते रास्तों से। इसमें अनेक पात्र हैं, लेकिन उपन्यास के केन्द्र में वे नहीं, सारा समाज है, वही समग्रता में एक पात्र की तरह व्यवहार करता है। संवाद भी, पूरा समाज ही करता है, लोग नहीं। एक क्षरणशील, फिर भी अडिग समाज भीतर गूँजती, और 'हमें सुन लो’ की प्रार्थना करती जीने की ज़िद की आर्त पुकारें। कृषि संस्कृति, ग्राम व्यवस्था और अब, राज्य की आकंठ भ्रष्टाचार में लिप्त नई संरचना—सबका अवलोकन करती हुई यह गाथा—इस सबके अलावा पाठक को अपनी अँतड़ियों में खींचकर समो लेने की क्षमता से समृद्ध एक जादुई पाठ भी है।
Rajgharana
- Author Name:
Dhirendra Verma
- Book Type:
-
Description:
यह कहानी है विजयनगर की जिसे आजादी-बाद के भारत के रूपक के तौर पर प्रयोग किया गया है। विजयनगर का एक हिस्सा ऐसा है जहाँ धन-धान्य की प्रचुरता है, आमोद-प्रमोद है, विलास है, उन्नति है, सुख है। लोग उसी को विजयनगर समझते हैं और वहाँ की सत्ता उसी को वास्तविक विजयनगर के रूप में प्रस्तुत-प्रचारित करती है।
लेकिन उसी विजयनगर में एक हिस्सा वह भी है जहाँ इस चमकते विजयनगर को अपनी सेवाओं से समृद्ध करनेवाले लोग बहुत बुरी स्थितियों में रहते हैं। वे अपनी जमीनें खो चुके ऐसे लोग हैं जिनके पास गुलामी के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। वहाँ गन्दगी है, बीमारियाँ हैं। और वही वास्तविक विजयनगर है।
साथ ही एक हिस्सा वह भी है जो अभी अपने वजूद के लिए लड़ रहा है। वह ग्रामीण भारत है जहाँ के खेतों पर महाजनों के कर्जों का साया लगातार गहरा होता जा रहा है। राजा चाहता है कि उन खेतों को विदेशी कम्पनियों को बेचकर वहाँ फैक्ट्रियाँ लगवाए और बीच में जो पैसा मिले, उसे अपने विदेशी खातों में जमा कराए।
लेकिन राजा की समाजवादी बेटी ऐसा नहीं होने देती। वह अपने स्वतंत्रता-सेनानी पूर्वजों का बहुत सम्मान करती है और उनके सपनों को साकार करने के लिए कटिबद्ध है। पत्रकार प्रवीण के साथ मिलकर वह न सिर्फ शोषण और पूँजी के दुश्चक्र को तोड़ती है, बल्कि अपने पिता को भी न्याय के मार्ग पर ले आती है।
इस उपन्यास में स्वातंत्र्योत्तर भारत में लागू की गई विकास की अवधारणा को केन्द्र में रखते हुए एक रोचक कहानी के द्वारा विचार किया गया है और उससे मुक्त होकर एक ज्यादा न्यायसंगत राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था का विकल्प भी सुझाया गया है। राजशाही की पुरानी पृष्ठभूमि में कहानी अपना एक स्वाद लेकर चलती है।
Barfiyan Vyangya Ki
- Author Name:
Mahesh Garg "Bedhadak"
- Book Type:
- Description: "अफसर होना व्यर्थ है अफसर होना व्यर्थ है, घर में पूछ न ताछ पत्र-प्रपोजल छोड़कर, बना रहे हैं छाछ बना रहे हैं छाछ, प्रभु क्या हालत कीन्हीं मैडम का अब काम रह गया नुक्ता-चीनी माँ के संग मिलकर बच्चे भी कोस रहे हैं कुछ आता-जाता नहीं, ये केवल बॉस रहे हैं। पोशाक फ्रंट रो में एक नेता चल रहे थे साथ-साथ झकझकाती ड्रेस उनकी देखकर मैंने कहा तीन पीढ़ी से यही पोशाक, कोई खास बात? वो जरा से मुस्कराए कवि से कोई क्या छुपाए? आजकल इसके बिना पहचान नहीं है अस्ल बात—इसमें गिरेबान नहीं है! "
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