Kaal Chakra
Author:
Madhu BhaduriPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
कालचक्र हमें इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर ले जाता है, जहाँ आज़ादी के बाद का सबसे तीव्र घटना प्रवाह विद्यमान है, जहाँ खड़ा है एक आदमकद मोहभंग। एक ज्वार जहाँ उफन रहा है, जिसकी उत्तुंग लहरों में फूट रहा है एक अत्यन्त ठोस प्रश्न–यह आज़ादी क्या वास्तविक आजादी है ? या उसे अभी हासिल करना है ? यह माँग और इसी के साथ तमाम मेहनतकशों के राज की माँग जहाँ एक आँधी की तरह उठ रही है। जहाँ पूरे देश को हिला रहा है एक शब्द–अपने समय का सबसे आग्नेय शब्द–नक्सलबाड़ी। लेखिका ने इस महत्त्वपूर्ण उभार को अत्यन्त सघन रूप में व्यक्त किया है। राजनीतिक मूल्यों की सुस्पष्ट पहचान के साथ ही उभरती है निम्नमध्यवर्गीय पात्रों की एक</p>
<p>भरी-पूरी दुनिया, उनकी आशा-आकांक्षाएँ, रुचि-वैचित्र्य और आत्म-संघर्ष, जिन्हें लेखिका ने बड़ी ईमानदारी और आत्मा की पूरी गहराई से एक पहचान देने की कोशिश की है। नक्सलबाड़ी क्रान्ति के असफल हो जाने के कारणों की गम्भीर पड़ताल यहाँ दिखाई देती है। इस प्रयास में सबसे पहले जो चीज़ स्पष्ट होती है, वह यही कि क्रांति केवल कोरे आदर्शों और दुस्साहस के मेल का नाम नहीं है। वह मेहनतकश वर्ग के नेतृत्व के बिना सम्भव नहीं है। अभिजात और मध्यवर्ग के लोगों ने किस तरह इसका वरण किया, फिर किस तरह वे एकदम बिखर गए, टूट गए और उन्होंने राहें बदल लीं, इसका अत्यन्त कलात्मक चित्रण कर लेखिका ने अपनी दृष्टि-सम्पन्नता का ही परिचय दिया है। क्रांति की अनुगूँज इस समूची कृति में निरन्तर सुनाई देती है। और साथ ही यह आशय भी उभरकर आता है कि नारी मुक्ति से लेकर रोज़गार तक की प्रत्येक समस्या का हल इतिहास की इसी प्रक्रिया में–क्रांति की सफलता में–अन्तर्निहित है।
ISBN: 9788171784882
Pages: 164
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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मूलतः कहानीकार और भारतीय स्त्री की जटिल मनोभूमि का उत्खनन करनेवाली अनेक कहानियों की रचयिता मन्नू जी ने उपन्यास कम ही लिखे हैं। जिन दो उपन्यासों, ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’, के लिए उन्हें विशेष तौर पर जाना जाता है, वे हिन्दी उपन्यास के इतिहास में क्लासिक का दर्जा रखते हैं। उनकी उपन्यास-कला ने अपने उसी सहज रास्ते अपना आकार लिया जिससे उनकी रचनात्मकता के अन्य रूप कहानियों में उतरे थे। इसलिए ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’ को भी किसी शिल्पगत चमत्कार के लिए नहीं, अपनी विषयवस्तु के प्रामाणिक प्रस्तुतीकरण और अबाध पठनीयता के लिए जाना जाता है।
‘एक इंच मुस्कान’ भी जो रचनाक्रम के लिहाज़ से मन्नू जी का पहला उपन्यास है और अपनी संरचना में प्रयोगधर्मी भी, इस विशेषता से रहित नहीं है। सर्वविदित है कि यह उपन्यास मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव की संयुक्त रचना है, जिसकी रचना-प्रक्रिया के विषय में मन्नू जी ने प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में विस्तार से जानकारी दी है। इन तीन उपन्यासों के साथ इस संकलन में मन्नू जी के अन्तिम उपन्यास ‘स्वामी’ को भी रखा गया है। मूलतः शरत की इसी नाम की कहानी पर आधारित यह उपन्यास अपने चरित्रों की संरचना और तेवर में मूल से इतना दूर आ जाता है कि वह लेखिका की अपनी ही स्वतंत्र रचना हो जाता है। मन्नू जी के चारों उपन्यासों की यह प्रस्तुति उनके पाठकों के साथ-साथ हिन्दी साहित्य के अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए भी उपादेय होगी।
Parajay
- Author Name:
A. Fadeyev
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1927 में फ़देयेव का यह पहला उपन्यास ‘पराजय’ प्रकाशित हुआ जो सुदूर पूर्व में क्रान्ति-विरोधियों के विरुद्ध छापामार क्रान्तिकारी युद्ध (1918-20) का व्यापक, गहन और आधिकारिक चित्र प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास से फ़देयेव को राष्ट्रव्यापी ख्याति और मान्यता मिली। 1931 में इस पर एक फ़िल्म भी बनी। प्रकृतवाद और अमूर्त, ऊँची उड़ान वाले स्वच्छन्दतावाद का समान रूप से विरोध करने वाले फ़देयेव ने इस उपन्यास में वास्तविक जीवन का सहज वर्णन करते हुए चरित्रों की संरचना और नैतिक-आत्मिक विकास पर अपना ध्यान गहन रूप में केन्द्रित किया है। उपन्यास की थीम के बारे में स्वयं उन्हीं के शब्दों में :
‘‘गृहयुद्ध के दौरान, मानवीय तत्त्व एक चयनात्मक प्रक्रिया से गुज़रते हैं। हर प्रतिकूल चीज़ को क्रान्ति झाड़-बुहारकर किनारे कर देती है। हर चीज़ जो सच्चे क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए अक्षम होती है और जो धारा के प्रवाह के साथ क्रान्ति के शिविर में आ गई रहती है, उसकी निराई-छँटाई कर दी जाती है, और ईमानदार जड़ों वाली हर चीज़ जो क्रान्ति के बीच से आती है, वह लाखों-लाख सृजनशील जनसमुदाय के बीच, इस संघर्ष के दौरान मज़बूत बनती है, फलती-फूलती है और विकसित होती है। लोग आमूलगामी ढंग से रूपान्तरित हो जाते हैं।’’
इस उपन्यास में लेविन्सन का चरित्र कम्युनिस्ट चेतना के उच्च स्तर को दर्शाता है और यह भी दर्शाता है कि एक सच्चे बोल्शेविक का अपने अनुगामियों पर कितना गहरा प्रभाव होता है। 1920 के दशक में साहित्यिक आलोचकों ने ‘पराजय’ को एक प्रयोगात्मक प्रयास बताया जो क्रान्ति के मानव को क्रान्ति-प्रक्रिया के ‘भीतर से’ देखता है और उसके मनोविज्ञान का सूक्ष्म-सटीक विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
—भूमिका से
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