Pratinidhi Kavitayen : Kumar Ambuj- Paper Back
Author:
Kumar AmbujPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
1990 के बाद कुमार अंबुज की कविता भाषा, शैली और विषय-वस्तु के स्तर पर इतना लम्बा डग भरती है कि उसे ‘क्वांटम जम्प’ ही कहा जा सकता है। उनकी कविताओं में इस देश की राजनीति, समाज और उसके करोड़ों मज़लूम नागरिकों के संकटग्रस्त अस्तित्व की अभिव्यक्ति है। वे सच्चे अर्थों में जनपक्ष, जनवाद और जन-प्रतिबद्धता की रचनाएँ हैं। जनधर्मिता की वेदी पर वे ब्रह्मांड और मानव-अस्तित्व के कई अप्रमेय आयामों और शंकाओं की संकीर्ण बलि भी नहीं देतीं। यह वह कविता है जिसका दृष्टि-सम्पन्न कला-शिल्प हर स्थावर-जंगम को कविता में बदल देने का सामर्थ्य रखता है।</p>
<p>कुमार अंबुज हिन्दी के उन विरले कवियों में से हैं जो स्वयं पर एक वस्तुनिष्ठ संयम और अपनी निर्मिति और अन्तिम परिणाम पर एक ज़िम्मेदार गुणवत्ता-दृष्टि रखते हैं। उनकी रचनाओं में एक नैनो-सघनता, एक ठोसपन है। अभिव्यक्ति और भाषा को लेकर ऐसा आत्मानुशासन जो दरअसल एक बहुआयामी नैतिकता और प्रतिबद्धता से उपजता है और आज सर्वव्याप्त हर तरह की नैतिक, बौद्धिक तथा सृजनपरक काहिली, कुपात्रता तथा दलिद्दर के विरुद्ध है, हिन्दी कविता में ही नहीं, अन्य सारी विधाओं में दुष्प्राप्य होता जा रहा है। अंबुज की उपस्थिति मात्र एक उत्कृष्ट सृजनशीलता की नहीं, सख़्त पारसाई की भी है।</p>
<p>—विष्णु खरे (भूमिका से)
ISBN: 9788126726554
Pages: 136
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘कहना है मुझे उस तरह/जिस तरह कहा नहीं गया अब तक’ इस साधारण से वाक्य से नहीं लगता था कि कविता का हिस्सा बनकर यह कथन बहुआयामी हो जाएगा। नीलेश की कविताओं में साधारण को असाधारण में ढालने की क्षमता है। क्या कभी सोचा जा सकता है कि समाज में बूढ़े हो चुके पिता परिवार से इस तरह अलग-थलग होते जाते हैं, जैसे अंगुली से नाखून अलग किए जाते हैं—‘नाखून की तरह/पिता भी तो झर रहे हैं/अब जीवन से’, इस वाक्योक्ति में पैवस्त यातना दहला देने वाली है।
नीलेश के यहाँ वाक्यांश मुहावरों में ढलते नज़र आते हैं। ‘जिन आँखों में काजल लगाया मैंने (कैसे) देख सकूँ उसमें दुख को’ कहते हुए कवि को लगता है—‘चट्टानों के बीच से/कोंपल की तरह फूटता है/दुख’। यहाँ मुहावरा उलट गया है। चट्टानों में कोंपल का फूटना अदम्य जिजीविषा का द्योतक है पर यहाँ हमारे सामाजिक यथार्थ की क्रूर चट्टानों से तो केवल दुख ही उपजता है। बदलते वक्त के साथ सामाजिक यथार्थ कितना उलट गया है, कवि इस स्थिति को ‘नागरिकता की मृत्यु’ की तरह देखने को विवश है।
ट्रैफिक के लिए सड़क किनारे के बोर्ड की चेतावनी को इस तरह पढ़ा जाना कि ‘सावधान! आगे अंधा मोड़ है/कहती हैं सड़कें/हमारे जीवन की कहानी’। सिर्फ कविता में ही सम्भव हो सकता है जीवन के इस कटु यथार्थ को एक साधारण-सी बात में इस तरह गुम्फित करना और नीलेश इसे बहुत सलीके से करती हैं। इसमें राजनीतिक हालात का दर्शन भी किया जा सकता है। ‘भला मानुष’ पद कभी निष्कपट, सच्चे और किसी कदर भोले-भाले व्यक्ति के लिए प्रयोग में आने लगा था लेकिन नीलेश उसी के अभिधार्थ में कहती हैं—‘जब मानुष भला मानुष हो जाएगा/तो बन्दर भी भले बन्दर हो जाएँगे’। पाठक के लिए यहाँ भी राजनीतिक अर्थ खोजने की गुंजाइश बनती है।
अपने आसपास उपस्थित परिवेश के आमफहम बिम्बों में जीवन के शाश्वत प्रश्नों की तरफ संकेत करना नीलेश की कविता की भी विशेषता रही है और गद्य की भी। उनका यह नया कविता-संग्रह निश्चय ही उनके कवि-मानस के अन्य विस्तारों से हमारा परिचय कराएगा।
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हिन्दी कविता का अधिकांश इन दिनों जिस प्रकार की नगरीय मध्यवर्गीयता से आक्रान्त होकर आत्मदया, हकलाहट, अन्तहीन रुदन और ऐसे ही नाना प्रपंचों को निचुड़े हुए मुहावरों में प्रकट करता दिखता है, उसके बरक्स ‘सुलगा हुआ राग’ में मनोज मेहता की कविताएँ सामर्थ्य भरे विकल्प की तरह आई हैं। इस संग्रह की कविताओं में समकालीन भारतीय समय और विडम्बनाओं से भरे उसके व्यापक यथार्थ की गहरी समझ है और उसी के साथ है उस यथार्थ की संश्लिष्ट संरचना से प्रसंगों, वस्तुओं, पात्रों और उनकी अन्तर्क्रियाओं को अचूक कौशल के साथ उठाकर अपना काव्यलोक रचने की अनूठी सृजनशीलता जो विस्मयकारी ढंग से कविता के सामान्य चलनवाले अतिपरिचित इलाक़ों के पार जाकर हमारे लिए गाँव-क़स्बों के मामूली मनुष्यों की एक विशाल दुनिया खोलती है। यह वह दुनिया है जहाँ ‘ढुलमुल गँवारू झोपड़ों में’ और ‘ढोल, मादल, बाँसुरी के सुरों में हमारा देश बसता है’।
मनोज मेहता के काव्य-सामर्थ्य का एक ग़ौरतलब पहलू यह भी है कि लोकजीवन से उनकी संलग्नता उन्हें अपनी भाषा के अन्य बहुतेरे कवियों की तरह अतिशय रोमानीपन की ओर नहीं धकेलती। ‘सुलगा हुआ राग’ में जहाँ मनोज उपलब्ध जीवन को उत्सवित करते हैं, वहाँ भी उनका काव्य विवेक अपनी वस्तुपरकता को खोकर असन्तुलित नहीं होता और न ही वह अतिरिक्त ऐश्वर्य अर्जित करने के लिए शिल्प की कलावादी तिकड़मों का सहारा लेता है। यह एक ऐसा काव्य-विवेक है जो आवयविक अनुभवों को लेकर बेहद सादगी और धीरज के साथ अपने आशयों को स्पष्ट करता है और भीषण संकटों के मौजूदा दौर में जीवन-प्रसंगों की मानवीय आन्तरिकता को भाषा के आईने में कुछ यों ले आता है कि वह बार-बार अपनी अनोखी आकस्मिकता के नएपन से हमें एक दुर्लभ सौन्दर्यबोध की ज़मीन पर नए आविष्कार की तरह बाँध लेती है—मानो हमारे भीतर पहले कुतूहल और फिर सरोकारों का ख़ूब समृद्ध ताना-बाना निर्मित करती हुई।
‘सुलगा हुआ राग’ की अन्तर्वस्तु में सहज और आयासहीन जनोन्मुख प्रतिबद्धता है, आख्यान है और निरन्तर गूँजती एक लय है जिसमें क्रियाओं और ध्वनियों की आवाजाही और हलचलें शामिल हैं—पर इस सबके बावजूद कुछ भी स्फीत नहीं होता। यहाँ शामिल कविताओं में मनोज मेहता के अनुभव प्रान्तरों की ऐसी अन्तर्यात्रा के साक्ष्य हैं जिनमें हमारे सामूहिक मन की बेचैन दीप्तियाँ तो हैं ही, उसकी अपराजेय जिजीविषा का गान भी है।
‘सुलगा हुआ राग’ के एक से दूसरे छोर तक मनोज मेहता ने चाहे जितने भी स्वरों का संयोजन किया हो, यहाँ न तो कहीं किसी विवादी स्वर का खलल है और न ही कोई मुद्रा दोष।
‘सुलगा हुआ राग’ में यह सब सम्भव हो पाया है तो इसलिए कि इसकी निर्मिति में एक विनम्र किन्तु दृढ़ प्राणवत्ता बसी है।
—पंकज सिंह
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