Dararon Mein Ugi Doob
Author:
Chitra DesaiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 236
₹
295
Available
छोटी और कुछ बहुत ही छोटी इन कविताओं का उत्स जीवन के हाशियों पर दूब की तरह उगते, पलते और झड़ जाते दु:खों के भीतर है—इसका अहसास आपको एक-एक कविता से गुज़रते हुए धीरे-धीरे होता है। धीरे-धीरे आप जानने लगते हैं कि किस कविता की किस पंक्ति में दरअसल कितनी बड़ी एक टीस को छिपाकर गूँथ दिया गया है।</p>
<p>'घर की उम्र के लिए/एक पूरा आदमी/टुकड़े-टुकड़े बँटकर/थामता है/हर कोना/...घर की उम्र के लिए/बिखर कर मर जाता है/एक पूरा आदमी।’ घर यहाँ दरअसल एक व्यवस्था का, एक स्थिर सुरक्षा का और सरल शब्दों में कहें तो उस दुनियादारी का प्रतीक है, जिसकी तरफ़ एक व्यक्ति जीवन-भर खिंचकर आता है तो उतने ही वेग से उससे दूर भी जाता है। भीतर और बाहर की इसी खींचतान के अलग-अलग बिन्दुओं से उपजी बेचैन मगर बहुत गहरे में हमें अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति का शान्त आधार उपलब्ध करानेवाली ये कविताएँ इसी अर्थ में विशिष्ट हैं कि ये हमें अपनी सादगी से अपने बहुत नज़दीक बुलाकर हमारा दु:ख सोखती हैं। भाव-बोध के आधार पर संग्रह की कविताओं को चार खंडों में समायोजित किया गया है। पहला है 'पगडंडी’ जिसमें ग्रामीण जीवन और परिवेश में बसे, बनते-बिगड़ते-बदलते रिश्तों और रूपाकारों को सहेजने-समेटने की संवेदन-यात्रा समाहित है। दूसरे खंड 'अलाव’ में अपने अस्तित्व के इर्द-गिर्द बुनी आँच और उसकी लपटों को पकडऩे, चित्रित करने की बारीक लेकिन सुदृढ़ बुनाई है। 'आरोह-अवरोह’ में घर, रिश्तों और कचहरी में फैले आहत तन्तुओं को गहरी-तीखी रंगत में उकेरा गया है। और, चौथे खंड 'मध्यान्तर के बाद’ में पुन: जीवन की जड़ों को खोलकर- खोदकर देखने की कोशिश की गई है जो हमारी सवंदेना-यात्रा को वापस जीवन में आरम्भ से जोड़ देती है।</p>
<p>'पत्थरों को संवेदना देती है/उनकी दरारों में दबी मिट्टी/जहाँ उग आती है दूब/चट्टानों के अस्तित्व को ललकारती।’ ये कविताएँ दरअसल जीवन की कठोर, पथरीली चट्टानों के बीच बची मिट्टी में उगी कविताएँ हैं; जिनमें हम अपने दग्ध वजूद को कुछ देर भीनी-भीनी ठंडक से भर सकते हैं।</p>
<p>
ISBN: 9788183619509
Pages: 128
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: ं वर्तमान संग्रह को अपनी प्रारम्भिक रचनाओं का संग्रह बनाना चाहता था और इसका मुख्य रूप वही है भी। किन्तु पुरानी बहियों को उलटते-पलटते समय कुछ कविताएँ और मिल गईं, जिन्हें प्रारम्भिक रचनाएँ तो नहीं कहा जा सकता; किन्तु जो उसी न्याय से प्रकाश में आने के योग्य हैं, जिस न्याय से कवि की प्रारम्भिक रचनाएँ प्रकाशित की जाती हैं।' दिनकर जी के इस कथन से स्पष्ट है कि यह उनकी प्रारम्भिक कविताओं का संग्रह है। बावजूद इसके यह उनका एक ऐसा संग्रह भी है जिसके महत्त्व को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में उल्लेख किया है। प्रस्तुत संग्रह में एक लघु खंड काव्य 'प्रण-भंग' नाम से है जो महाभारत युद्ध में घटित श्रीकृष्ण के शस्त्र-ग्रहण की घटना पर आधारित है जिसे दिनकर जी ने खुद 'जयद्रथ-वध' के अनुकरण पर लिखा गया माना है। इस खंड काव्य में परम्परा और आधुनिकता का अन्तर्विरोध अपनी तार्किकता के साथ है। यही नहीं, इसमें भक्ति भी अपनी आस्था के साथ रूपायित हुई है। ‘प्रण-भंग’ के अलावा संग्रह की स्फुट कविताओं–‘शहीद अशफाक के प्रति’, ‘वायसराय की घोषणा पर’, ‘महात्मा गांधी’, ‘शहीदों के नाम पर’, ‘मूक बलिदान’, ‘तपस्या’, ‘शहीद’ आदि–में हम स्वर्णिम अतीत के प्रति संवेदनशीलता और अपने यथार्थ के प्रति अन्तर्विरोध को गहरे लक्षित कर सकते हैं। वहीं पुस्तक के अन्त में संगृहित अट्ठाईस क्षणिकाओं में सामाजिक पीड़ा और सांस्कृतिक चिन्तन है, तो सत्ता की शोषक-प्रवृत्ति के प्रति धारदार नज़रिया भी है जिसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है–‘राजा/तुम्हारे अस्तबल के/घोड़े मोटे हैं।/प्रजा भूखी और नंगी है।/घोड़ों को कोई अभाव नहीं।/लेकिन लोगों को हर तरफ़ की तंगी है।’ ‘प्रण-भंग और अन्य कविताएँ’ संग्रह के बारे में दिनकर जी के ही शब्दों को लेकर कहें तो यह उनके 'सम्पूर्ण काव्य-यात्रा पर प्रकाश डालता है
Urvar Pradesh
- Author Name:
Anvita Abbi
- Book Type:

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Description:
कवि भारतभूषण अग्रवाल उन थोड़े से वरिष्ठ कवियों में से थे जिनसे युवतम कवि भी बिना किसी हिचक या संकोच के मिल सकते थे। वे उनसे समानता और प्रसन्न गरमाहट का व्यवहार करने में कभी चूकते नहीं थे। भारत जी के आकस्मिक देहावसान के बाद जब कुछ मित्रों ने, उनकी पत्नी बिन्दु अग्रवाल की पहल और ज़िम्मेदारी पर, किसी वर्ष में प्रकाशित किसी युवा कवि की श्रेष्ठ कविता के लिए उनके नाम पर एक पुरस्कार स्थापित करने का निर्णय लिया तो उनकी युवतर कवियों से निकटता, उनके प्रति उत्साह और उनमें से कइयों के साथ उनकी सहज आत्मीयता को भी बराबर ध्यान में रखा गया था।
अब तक पुरस्कृत कवियों की पुरस्कृत कविताओं के अलावा उनके वक्तव्य और कुछ ताज़ा कविताएँ इस संचयन में शामिल हैं। उन्हें बहुत मनोयोग से भारत जी की बेटी और विख्यात भाषावैज्ञानिक अन्विता अब्बी ने एकत्र किया है। मंशा कुछ यह रही है कि तीस बरस बाद इसका कुछ आकलन हो कि युवा कवि, जिनमें कई अब लगभग वरिष्ठ हो चुके हैं, अपनी कविता और विचार में, भाषा और शिल्प में, मानवीय सच्चाई की अपनी खोज और आत्मसंघर्ष में, व्यापक कविता दृश्य में किस जगह और किस मुक़ाम पर पहुँचे हैं।
इस संचयन से स्पष्ट होता है कि हिन्दी कविता में विस्मयकारी बहुलता है। यह अनुभव करना उत्साहवर्द्धक और विचारोत्तेजक है कि युवा कवियों में किसी एक दृष्टि, एक शैली, एक विचारप्रवृत्ति का वर्चस्व नहीं है। हर स्तर पर बहुलता है जैसे कि हिन्दी भाषा, साहित्य और समाज में भी बहुलता है। यह बहुलता किसी तरह की पक्षहीनता, तटस्थता या उदासीनता का साक्ष्य नहीं है। उलटे प्रायः इन सभी कवियों में अपने आस-पास की ज़िन्दगी, उसकी विडम्बनाओं और अन्तर्विरोधों, उसमें गुँथे-फँसे अच्छे-बुरे अनुभवों के प्रति खुलापन है। दरअसल यह जटिल ज़िन्दगी ही इस सारी कविता का ‘उर्वर प्रदेश’ है।
Is Tarah Main
- Author Name:
Pawan Karan
- Book Type:

- Description: पवन करण की कविताएँ जीवन की स्वाभाविक हरकत की तरह आती हैं। वे हर जगह कवि हैं। इसीलिए उनकी कविताएँ हर कहीं से उग आती हैं। न उन्हें विषयों के लिए दिमाग़ को किसी अनोखी दुनिया में दौड़ाना पड़ता है, न कविता को वाणी देने के लिए भाषा के साथ कोई शारीरिक-मानसिक अभ्यास करना पड़ता है। दुनिया में रहना-जीना जितना प्राकृतिक है, उनकी कविताएँ भी लगभग वैसी ही हैं। त्योहार पर घर जाते आदमी का उल्लास हो या शहर के सबसे पुराने बैंड का रुदन जो सिर्फ़ उसे सुनाई देता है, या घर वह पुरानी कैंची जो ‘फ़िलहाल घर के कोष में/नोट के दो टुकड़ों की तरह रखी है।’ और ताला, ‘यह राजदार हमारा/अनुपस्थिति में हमारी/कभी झुकता नहीं टूट भले जाए।’ या फिर बिजली के खम्भे जो रात के सुनसान में ‘जब उनके नीचे से/गुज़रता है चौकीदार/उसके सिर पर हर बार/रोशनी की उजली टोपी/पहना देते हैं’ और जब वह देर तक वापस नहीं आता तो उसे ‘अपने नीचे लेटे कुत्तों में से/किसी एक को भेजते हैं उसे देखने।’ ये कविताएँ हमें व्याकुल करके किसी बदलाव की क़सम खाने के लिए नहीं उकसातीं, बल्कि जहाँ हम हैं, जिस भी मुद्रा में वहीं हमारे भीतर आकर वहीं से हमें बदलना शुरू कर देती हैं, और इनसे गुज़रकर जब हम वापस दुनिया के रूबरू होते हैं, सबसे पहले हमें अपनी दृष्टि नई लगती है, और दुनिया के अनेक कच्चे जोड़ अचानक हमें दिखाई देने लगते हैं जिन्हें फ़ौरन रफ़ू की या मरम्मत की ज़रूरत है।
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