Jagannath Ka Ghoda
Author:
Ravindra BhartiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Available
विशाल, विराट और महान दिखनेवाली चीज़ें जीवन का स्रोत नहीं होतीं, उन्हें विशेष अवसरों पर, कुछ आयोजित-प्रायोजित मन:स्थितियों में देखने और वापस आकर भूलने के लिए देखा जाता है। वे हमारे उन दिनों और रातों की साथी नहीं बनतीं जिनसे हम बनते हैं, हमारा जीवन बनता है, हमारा दैनन्दिन, हमारे अतीत और वर्तमान बनते हैं।</p>
<p>रवीन्द्र भारती की ये कविताएँ ऐसी ही छोटी चीज़ों की अभ्यर्थना करती हैं। 'गृहस्थ की गृहस्थी' एक कविता है जिसमें घर में आई एक नई कटोरी का स्वागत किया जा रहा है 'यह हमारी पात्र है/इसके पात्र हैं हम/ पात्र-परिचय होगा, धीरे-धीरे बढ़ेगा हेल-मेल।'</p>
<p>'आपा-धापी' एक कविता है जिसमें लोकन ट्रेनों और बसों की लगातार गतिमान भीड़ में एक नामालूम से रिश्ते की पहचान की गई है। रोज़-रोज़ दिखनेवाले चेहरों के बीच बननेवाला एक अबोला रिश्ता—'निर्दोष आँखों की मौन कथा/चली जाती है किसी की, किसी के साथ अकारण/अकारण ही होती है चिन्ता/जब कोई दिखता नहीं दो-चार दिन।' यह 'अकारण' जगत-गति के बड़े कहे जानेवाले सुपरिभाषित कारणों का अचीन्हा-सा स्थानापन्न है, और जीवन की डोर को थामे रखने में इसकी भी बहुत बड़ी भूमिका है।</p>
<p>इन कविताओं में ऐसी अनेक चीज़ें, दृश्य, पंक्तियाँ, और चित्र हैं जो हमें हमारे अनजाने ही हमारी साधारणता में आश्वस्ति भर देते हैं, जो कहते हैं कि बड़ी-बड़ी ताक़तों की दूर से दिखाई देनेवाली आकर्षक और महान आकृतियों से पहले हमारे पास भी ऐसा बहुत कुछ है जो उनके सब कुछ का विकल्प हो सकता है। मसलन 'कुलिया-चुनिया' की नन्ही बच्ची की कल्पित दुनिया जिसमें कवि अनायास सच-झूठ के स्याह-सफ़ेद में विभाजित अपनी वास्तविक दुनिया से मुक्त होकर सहर्ष चला जाता है।</p>
<p>देशज शब्दों, देशज सौन्दर्यबोध और देशज आत्माभिमान से रची इन कविताओं से गुज़रते हुए आप धीरे-धीरे अपनी दुनिया के सूक्ष्म से परिचित होते हैं जो वास्तव में बहुत बड़ा है।
ISBN: 9789391950736
Pages: 104
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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हिन्दी साहित्य में आलोकधन्वा की कविता और काव्य-व्यक्तित्व एक
अद् भुत सतत घटना, एक ‘फ़िनोमेनॅन’ की तरह हैं। वे पिछली चौथाई सदी से भी अधिक से कविताएँ लिख रहे हैं लेकिन बहुत संकोच और आत्म-संशय से उन्होंने अब यह अपना पहला संग्रह प्रकाशित करवाना स्वीकार किया है और इसमें भी रचना-स्फीति नहीं है। हिन्दी में जहाँ कई वरिष्ठ तथा युवतर कवि ज़रूरत से ज़्यादा उपजाऊ और साहिब-ए-किताब हैं, वहाँ आलोकधन्वा का यह संयम एक कठोर वग्रत या तपस्या से कम नहीं है और अपने-आप में एक काव्य-मूल्य है। दूसरी तरफ़ यह तथ्य भी हिन्दी तथा स्वयं आलोकधन्वा की आन्तरिक शक्ति का परिचायक है कि किसी संग्रह में न आने के बावजूद ‘जनता का आदमी’, ‘गोली दागो पोस्टर’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ सरीखी कविताएँ मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय तथा चन्द्रकान्त देवताले की काव्य-उपस्थितियों के समान्तर हिन्दी कविता तथा उसके आस्वादकों में कालजयी-जैसी स्वीकृत हो चुकी हैं। 1970 के दशक का एक दौर ऐसा था जब आलोकधन्वा की ग़ुस्से और बग़ावत से भरी रचनाएँ अनेक कवियों और श्रोताओं को कंठस्थ थीं तथा उस समय के परिवर्तनकामी आन्दोलन की सर्जनात्मक देन मानी गई थीं। आलोकधन्वा की ऐसी कविताओं ने हिन्दी कवियों तथा कविता को कितना प्रभावित किया है, इसका मूल्यांकन अभी ठीक से हुआ नहीं है। श्रोताओं और पाठकों के मन-मस्तिष्क में प्रवेश कर उन्होंने कौन-से रूप धारण किए होंगे, यह तो पता लगा पाना भी मुश्किल है।कवि आलोचक यदि चाहते तो अपना शेष जीवन इन बेहद प्रभावशाली तथा लोकप्रिय प्रारम्भिक रचनाओं पर काट सकते थे—कई रचनाकार इसी की खा रहे हैं—किन्तु उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा को यह मंजूर न था तो नितान्त अप्रगल्भ तरीक़े से अपना निहायत
दिलचस्प, चौंकानेवाला और दूरगामी विकास कर रही थी। उनकी शुरुआती विस्फोटक कविताओं के केन्द्र में जो इनसानी क़दरें थीं, वे ही परिष्कृत और सम्पृक्त होती हुई उनकी ‘किसने बचाया मेरी आत्मा को’, ‘एक ज़माने की कविता’, ‘कपड़े के जूते’ तथा ‘भूखा बच्चा’ जैसी मार्मिक रचनाओं में प्रवेश कर गईं। यों तो आलोकधन्वा हिन्दी के उन कुछ कवियों में से एक हैं जिनकी काव्य-दृष्टि तथा अभिव्यक्ति हमेशा युवा रहती हैं (और इसलिए वे युवतर कवियों के आदर तथा आदर्श बने रहते हैं), किन्तु लगभग अलक्षित ढंग से उन्होंने क्रमशः ऐसी प्रौढ़ता प्राप्त की है जो सायास और ओढ़ी हुई नहीं है और बुज़ुर्गियत की मुद्रा से अलग है। विषय-वस्तु, शिल्प, शैली तथा रुझानों में एक साथ सातत्य तथा विकास, सरलता तथा जटिलता, ताज़गी और परिपक्वता देखनी हों तो ‘छतों पर लड़कियाँ’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ को इसी क्रम में पढ़ना दिलचस्प होगा जिनमें भारतीय किशोरियों/स्त्रियों के स्निग्ध और त्रासद जीवन-सोपान तो हैं ही, आलोकधन्वा के कवि-जीवन तथा काव्य-चेतना के अग्रसर चरण भी साफ़ नज़र आते हैं।
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कविता प्रकारांतर से हर दौर में सभ्यता-समीक्षा रही है। कवि बोधिसत्व की ये ताजा कविताएँ इस बेहद जटिल समय की महत्त्वपूर्ण गवाही रच रही हैं। कविता और समय के रिश्तों की यह पड़ताल, एक ऐसे दौर में जब अंधकार, हिंसा, उत्पीड़न, नियंत्रण, सन्देह, बेबसी और अनिश्चय से भरे संसार में मनुष्य होने के किसी सार-तत्त्व की खोज एक कठिन चुनौती है, रचनाकार की यह पेशकश बहुत मानीखेज है। यह नवाचार आज बहुत अर्थ रखता है। कवि ने मिथक कथाओं, जनश्रुतियों, और घोर वर्तमान के रिश्तों को जिस प्रकार से बुना है, उनमें स्थितियों और मनोभावों की आँच में सारे समय पिघलकर स्मृति के एक बीहड़ प्रदेश को रच रहे हैं। तीव्र गति से बीतते किसी तर्कातीत क्रम के भीतर दृश्य-खंड, दिशाएँ और गंतव्य सब यहाँ एक दूसरे में लिथड़े हुए हैं और समय बोध का एक विराट फलक उपस्थित हो रहा है। इस फलक पर व्यथाओं के अनचीह्ने इलाके और मनोभावों के नानाविध रूपाकार हमें उन सारे सन्दर्भों में ले जा रहे हैं जो दिखकर भी नहीं दिखते। चेतना के धुँधलाए से धरातलों पर उभरते हुए वहाँ बहुत से किरदार हैं, जो एक दूसरे में गड्डमड्ड हो एक ऐसे वृत्तान्त को रच रहे हैं जो अशान्त मन की विकलता से उपजा है; जो किसी डरावने सच को उकेर रहा है। महत्त्वपूर्ण यह कि इस नैरेटिव में कुछ भी सुनिश्चित, तार्किक, क्रमबद्ध और स्थाई नहीं, बल्कि यहाँ शक्ति-संरचनाओं की घेराबन्दी और उनमें जन्मता कोई दु:स्वप्न ही बचा रह गया है। अनर्गल शोर, तीव्रता, आकस्मिकताओं और छीना-झपटी से सना वह खौफनाक मंजर जिसमें अनसुने क्लेश, हाशिए पर छूट गए चीत्कारों और दबी हुई पीड़ाओं के कंपन हैं। एक कविता जो इस तरह समय के आर-पार जाती हुई सारी संहिताओं, हदबन्दी और जकड़नों को ध्वस्त करती है, गहन व्यथा के संकेतों को उकेर सकती है, वह प्रकारान्तर से सृजन के उस आदिम विश्वास को ही पाना चाहती है जो हमेशा से शक्ति-संरचनाओं का प्रतिपक्ष रहा है। यह वह जमीन है जहाँ हर रचनाकार को लौटना होता है—उस क्षत-विक्षत विश्वास की रक्षा की खातिर जो फिर भी कहीं सदा स्पन्दित होता रहता है। बोधिसत्व ने समकालीन कविता के बहुत से रूढ़ मुहावरों से बाहर निकलने की कोशिश की है। इन कविताओं का निश्चय ही भरपूर स्वागत किया जाएगा।
—विजय कुमार
Subhadra Kumari Chauhan Ki 75 Kavitayen
- Author Name:
Anil Kumar
- Book Type:

- Description: सुभद्रा कुमारी चौहान आधुनिक हिंदी साहित्य की ऐसी लोकप्रिय कवयित्री हैं, जिनकी कविताओं ने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारतीयों के होंठों का गीत बनकर गाँव-गाँव, गली-गली स्वाधीनता का अलख जगाया। उन्होंने ऐतिहासिक और राष्ट्रीय भावनाओं को समसामयिक व राजनीतिक जीवन के तात्कालिक संदर्भों से जोड़ा। उनकी कविता में राष्ट्रीयता 'प्रलयंकारी उच्च घोषणाएँ' बनकर नहीं आई, वरन उसने संघर्षमयी चेतना के रूप में आकार पाया। देशभक्ति की निर्भीक अभिव्यक्ति से साहित्य और राजनीति में उन्होंने अपना विशेष स्थान बनाया।
Yagyavalkya Se Bahas
- Author Name:
Suman Keshari
- Book Type:

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सुमन केशरी की कविताएँ मौजूदा काव्य-परिदृश्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाती हैं। इनमें समकालीन दौर की बेचैनियाँ भी हैं और परम्परा का परीक्षण और पुनर्परीक्षण भी। ये कविताएँ यह एहसास कराती हैं कि याज्ञवल्क्य और गार्गी के बीच सम्बन्ध का व्याकरण बदल गया है। गार्गी अब मनचाहे सवाल कर सकती है और उसे याज्ञवल्क्य के उत्तर की दरकार भी नहीं।
हिन्दी में समकालीन कवयित्रियों की जो पीढ़ी पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों से सक्रिय है और अपनी जगह बना चुकी है, सुमन केशरी उन्हीं की समवयस्क हैं। इस हिसाब से उनका पहला काव्य-संकलन देर से आ रहा है, हालाँकि कविताएँ वे काफ़ी पहले से लिख रही हैं। इस देरी की क्या वजह हो सकती है? शायद यह कि अभी भी भारतीय समाज में आम औरत पर परिवार और बच्चों के पालने के इतने दबाव हैं कि उसकी सर्जनात्मकता के पूर्ण प्रस्फुटन में अन्तराल आते रहते हैं। सम्भवतः यही कारण है कि अपनी एक कविता में सुमन केशरी यह कहती हैं—सृजन के बीहड़ों में मैंने क़दम रखा। कई साल बाद। रो...रोकर...। यह काव्य-पंक्ति सिर्फ़ एक कवयित्री का वक्तव्य-भर नहीं है, बल्कि इसके गहरे सामाजिक आशय हैं। भारतीय समाज में औरत के लिए घर के बाहर की सृजनात्मक दुनिया अभी भी एक बीहड़ प्रदेश है।
इस संग्रह की एक अन्य विशेषता इसमें हिन्दी कविता की कई स्मृतियों का मौजूद होना है। इनको पढ़ते हुए कभी निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ की याद आती है तो कभी विजयदेव नारायण साही की कविताएँ। आधुनिक हिन्दी काव्य-परम्परा का एक मिज़ाज भारतीय मिथकों को नए प्रसंग में जाँचने-परखने का भी रहा है। इस संग्रह में भी ऐसी कई कविताएँ हैं। पर ऐसी कविताएँ भी यहाँ हैं जो हमारे समकालीन अनुभवों का हिस्सा हैं, जैसे ‘सिपाही’, जिसमें अनाम से दिखनेवाले वर्दीधारी की ज़िन्दगी की वे परतें खुलती हैं जिनके बारे में हम अक्सर सजग नहीं होते। जिन्हें हम रोज़ गली-मुहल्ले, सड़क, बाज़ार या सीमा पर देखते हैं, मगर सिर्फ़ उनकी उपस्थिति के बारे में जानते हैं, उनके एहसासों से वाक़िफ़ नहीं होते। इसी तरह ‘बा और बापू’ कविता गांधी और कस्तूरबा के निजी सम्बन्धों को एक नई व्याप्ति देती है जहाँ एक ऐतिहासिक लड़ाई में शामिल हो व्यक्ति एक ऐसी विडम्बना में उलझकर रह जाते हैं जहाँ निजी दुखान्त को प्राप्त होता है।
—रवीन्द्र त्रिपाठी
Main Boond Swayam, Khud Sagar Hoon
- Author Name:
Ashutosh Agnihotri
- Book Type:

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Description:
‘मैं बूंद स्वयं, खुद सागर हूँ’ कवि आशुतोष अग्निहोत्री का चौथा कविता-संग्रह है। इस कविता-पुस्तक में उन्होंने अपनी जिन कविताओं को प्रस्तुत किया है, वे एक सजग, संवेदनशील और संवादधर्मी सामाजिक मनुष्य के सम्पूर्ण संसार को प्रतिबिम्बित करती है। प्रकृति, ईश्वर, समाज, परिवार और देश ने कवि को जो दिया, यह संकलन उसका कृतज्ञता ज्ञापन है, कोई भी पाठक जिसे पढ़ते हुए अपने ही भावोद्गार समझेगा।
‘स्नेह’, ‘प्रेम’, ‘धर्म’, ‘देश’, ‘दर्शन’ और ‘प्रेरणा’—इन छह उपशीर्षकों के तहत कवि ने यहाँ उन तमाम स्रोतों को अपने भाव समर्पित किए हैं जो मनुष्य मात्र के जीवन का आधार हैं, जहाँ से वह जीने की, सिरजने की, आगे बढ़ने और स्वयं को सार्थक करने की प्रेरणा ग्रहण करता है।
ये कविताएँ हमें हमारी उन अनुभूतियों को व्यक्त करने का बहाना बनती हैं, जिन्हें हम अपने भीतर तो रखते हैं लेकिन उचित शब्दावली और सम्यक लय के साथ व्यक्त नहीं कर पाते। इसीलिए ये कविताएँ सबकी हैं—उनकी भी जो काव्य-आस्वाद के अनुभवी लोग हैं, और उनकी भी जो पहली बार इन्हें पढ़ेंगे, और सदैव के लिए अपने अन्तस में सँजो लेंगे। एक भाव सम्पन्न कविता-संग्रह जिसकी कविताओं का पाठ आप अपनों के बीच बैठकर बार-बार करना चाहेंगे।
Lalak
- Author Name:
Ravindra Kumar
- Book Type:

- Description: "जब हमारे अंतस से बाह्य चीजें मेल नहीं खातीं, तब मन और मस्तिष्क में विक्षोभ और विद्रोह स्वाभाविक है। युवावस्था में यह स्थिति और भी तीव्रतम होती है। श्री रविन्द्र कुमार के कविता संकलन ‘ललक’ की सभी कविताएँ इसी तीव्रतम अनुभूति की अभिव्यक्ति हैं। रविन्द्रजी की कविताएँ सामाजिक परिवेश की कविताएँ हैं। उनकी कविता में मानवीय संवेदना, समाज की असमानता, वर्गभेद, पूँजीवाद व बाजारवाद के शोषण तथा अंध परंपराओं एवं कुरीतियों के दुष्परिणाम आदि पहलू प्रभावशाली तरीके से अभिव्यक्त हुए हैं। इसलिए ये कविताएँ पाठक को जागरूक करती हैं तथा उन्हें एक जिम्मेदार दृष्टि सौंपती हैं। संग्रह की शीर्षक कविता ‘ललक’ इस मायने में अति विशिष्ट कविता है क्योंकि यह कवि द्वारा बचपन में देखे गए स्वप्नों एवं सम्यक संकल्पों का लिखित दस्तावेज है। इस कविता में कवि रविन्द्र अपनी तरुणावस्था में (सन् 1997 में) लिखते हैं—‘‘मोटर गाडि़यों से करने की, मसूरी की सैर/ललक मुझे है इसकी/पर चढ़कर हिमगिरि की चोटी पर/ ललक है हिंद का तिरंगा फहराऊँ।’’ आज जब दिसंबर 2020 में मैं रविन्द्रजी की इस कविता की पांडुलिपि पढ़ रहा हूँ, तो मुझे कवि की यह कविता उनके द्वारा करीब ढाई दशक पहले अपने भविष्य की उपलब्धियों के बारे में की गई भविष्यवाणी लगती है। रविन्द्रजी विश्व की सबसे ऊँची पर्वत शृंखला माउंट एवरेस्ट पर दो बार चढ़कर राष्ट्रध्वज फहरा चुके हैं। इस प्रकार, कवि की काव्य-पंक्तियाँ वास्तविक रूप से मूर्त हुई हैं।’’ —डॉ. अश्वघोष वरिष्ठ कवि "
Qashqa Kheencha Dair Mein Baitha
- Author Name:
Farhat Ehsas
- Book Type:

- Description: Awating description for this book
Pratinidhi Kavitayen : Sarveshwar Dayal Saxena
- Author Name:
Sarveshwardayal Saxena
- Book Type:

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समकालीन हिन्दी कविता की व्यापक जनवादी चेतना और प्रगतिशील जीवन-मूल्यों के सन्दर्भ में सर्वेश्वर एक ऐसे कवि के रूप में सुपरिचित हैं जिनकी रचनाएँ पाठकों से बराबर धड़कता हुआ रिश्ता बनाए हुए हैं। उनकी कविताएँ ‘नई कविता’ की ऊहा और आत्मग्रस्तता से बड़ी हद तक मुक्त रही हैं। इस संग्रह में उनके समूचे काव्य-कृतित्व से महत्त्वपूर्ण कविताएँ संकलित की गई हैं।
ज़िन्दगी के बड़े सरोकारों से जुड़ी उनकी कविताएँ उन शक्तियों का विरोध करती हैं जो उसे किसी भी स्तर पर कुरूप करने के लिए ज़िम्मेदार हैं। वे घेरों के बाहर के कवि हैं। उनकी कविताओं में हिन्दी कविता का लोकोन्मुख जातीय संस्कार घनीभूत रूप में मौजूद है और उन्हें न तो राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों से काटकर देखा जा सकता है और न कवि के अपने आत्मसंघर्ष को नकारकर। वस्तुत: दु:ख और गहन मानवीय करुणा से प्रेरित संघर्षशीलता, उदात्त सौन्दर्यबोध, मधुर भावनाओं के सन्धि संस्पर्श और ‘फ़ार्म’ की छन्दाछन्द विभिन्न मुद्राएँ इन कविताओं को व्यापक अर्थ में मूल्यवान बनाती हैं।
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