Via Nayi Sadi
Author:
Shriprakash ShuklaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Available
<span style="font-weight: 400;">‘वाया नई सदी’ दस्तावेज़ है समय की असहजताओं और अस्वाभाविकताओं का जिन्हें हमने जीवन की स्वाभाविक मुद्राओं की तरह स्वीकार कर लिया है। ये कविताएँ इस स्वीकृति के विरुद्ध उठी मुट्ठियों की तरह हैं। यह समय जहाँ बोलने, चीखने और विरोध करने पर लगातार कठोर होती पाबन्दियाँ हमारी चुप्पियों पर हँसने लगी हैं, और हम प्यार को, जनतन्त्र को, मानवीयता को धीरे-धीरे छीजते देख रहे हैं, और ख़ामोश हैं।</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">‘हमारे समय के करुण इतिहास पर/हिंसा की तरह दर्ज अभिलाषाओं में/महामौन की तरह खड़ी है एक गाय/जो अभी-अभी खूँटे पर आई है/लहूलुहान’—‘गाय’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ भारत की नयी सदी की उस महाविडम्बना की ओर संकेत करती है जहाँ करुणा में रसे-बसे सांस्कृतिक प्रतीकों को हिंसक बिम्बों में बदलने की कोशिश बाक़ायदा सत्ता के इशारों पर हो रही है और समाज, जैसे कि उसे इसी का इंतज़ार था, इस प्रक्रिया को पूरा करने में जुटा हुआ है : ‘उनमें ग़ज़ब की सामूहिक सहमति है’, और ‘एक सीधी सरल गाय/हिंसक पशु में बदल जाती है।’</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">श्रीप्रकाश शुक्ल भारतीयता के इस क्षरण के प्रति अपनी असहमति, अपना प्रतिरोध दर्ज कराना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि हम बोलें, 'चुप्पी के काइएँपन से दूसरे की हत्या करने से बेहतर है/बोल-बोलकर ख़ुद के भीतर जमी काइयों का वध करना।’ वे कहते हैं कि ‘बोलता आदमी जब चुप हो जाए/तो समझिए कि इस व्यवस्था में एक तानाशाह का जन्म हो चुका है/जो हमारे मुँह से प्रवेश करता है और जीभ को चीरता हुआ/अंतड़ियों में उतर जाता है।’ इसीलिए वे एक मुखर आदमी के पक्ष में अपना बयान देते हैं, ‘मनुष्यों के मुद्दे राजनीति से बड़े होते हैं/और अर्थनीति से ज़्यादा उलझे हुए/...कि लोकतंत्र के मुद्दे भुजा से नहीं/भाषा से तय होते हैं।’</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">श्रीप्रकाश शुक्ल के इस नए संग्रह में कई कविताएँ ऐसी हैं जो इस विचित्र सदी को सीधे-सीधे सम्बोधित हैं और कई ऐसी जो समय के शोर में बिला रही मनुष्यता की सरस, सहज, सकारात्मक भंगिमाओं को आवाज़ देती हैं। उनके ‘नहीं होने’ को रेखांकित करती हैं ताकि हम उन्हें लौटा लाएँ। कोरोना काल के भीषण विद्रूप भी इन कविताओं में अंकित हुए हैं, और प्रकृति के साहचर्य से पल्लवित संवेदनाएँ भी। लेकिन ‘वाया’ की ओट से समय की लय को भंग करनेवाली ताक़तों को लेकर चेतावनी कहीं धूमिल नहीं पड़ती : ‘बादल होंगे लेकिन नमी नहीं होगी/...रक्षक होंगे लेकिन रक्षार्थ कुछ नहीं होगा.../और तब वे अपने वर्तमान से मुक्त होकर/एक शानदार विरासत का जश्न मनाएँगे/...मानव-मुक्त विकास का जश्न!’</span>
ISBN: 9789391950019
Pages: 144
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘फरटाइडिगुं डेअर वोल्फ़े’ (भेड़िए की वकालत)—इस शीर्षक के कविता-संग्रह के साथ बीसवीं सदी के पचास के दशक में एक नौजवान जर्मन कवि सामने आया—हंस माग्नुस एंत्सेनस्बेर्गर। उनकी मणिभीय भाषा, तीखे व्यंग्य व विद्रोही तेवर से स्पष्ट हो गया था कि यहाँ द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर जर्मन समाज के विरोधाभासों को गहराई से पहचाननेवाली कविता उभर रही है। इसी दशक के द्वितीयार्द्ध में जब उनका काव्य-संग्रह ‘लांडेष्प्राखे’ (देश की भाषा) प्रकाशित हुआ था, तो प्रसिद्ध आलोचक अल्फ़्रेड आन्दर्ष ने उनकी तुलना साहित्य-जगत में हाइनरिष हाइने के पदार्पण से की थी। बाद के वर्षों में अपने हर संग्रह के साथ एंत्सेनस्बेर्गर निखरते गए। सन् 1968 के छात्र-विद्रोह के बौद्धिक प्रवक्ता के रूप में उन्हें स्वीकृति मिली। कविता के क्षेत्र में अनेक नए प्रयोग देखने को मिले।
लेकिन प्रतिबद्ध कवि? ब्रेष्ट की परम्परा? जैसाकि कुछ आलोचकों का दावा था? एंत्सेनस्बेर्गर का आक्रामक विद्रोही स्वर परिणत पूँजीवाद की विसंगतियों पर प्रहार तो करता है, लेकिन क्या उनमें एक विकल्प की आशा है? दूसरी ओर—हालाँकि बाद की कविताओं में प्रकट निराशावाद से उनके प्रारम्भिक वामपन्थी भक्त अक्सर निराश हुए, लेकिन उन्हें भी मानना पड़ा कि उभरते हुए उत्तर-आधुनिक सूचना-समाज की जटिलताओं को शायद ही कोई दूसरा कवि इतने स्पष्ट रूप में प्रस्तुत कर सका है।
एंत्सेनस्बेर्गर के लगभग हर संग्रह से कुछ-न-कुछ कविताएँ चुनकर इस संकलन में उनके कवि-व्यक्तित्व को पहचानने की कोशिश की गई है। उन्होंने एक बार कहा था कि वे कविता न पढ़नेवालों के लिए कविताएँ लिखते हैं। आशा है कि हिन्दी में भी कविता न पढ़नेवाले पाठक होंगे।
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महत्त्वपूर्ण कवि आर. चेतनक्रांति का यह पहला संग्रह जवाबदेह भाषा और फ़ॉर्म के साथ-साथ हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य में नए मुहावरे ईज़ाद करने के कारण अपनी मौलिक पहचान बनाता है।
चेतन की भाषा में एक ख़ास तरह का व्यंग्य है जो विडम्बनाओं एवं विद्रूपताओं की खिल्ली उड़ाता चलता है। जो लोग कविता (साहित्य) को मनोरंजन की चीज़ समझते हैं, उन्हें चेतन की कविताएँ निराश करेंगी क्योंकि ये कविताएँ पाठकों का टाइम पास नहीं करतीं, बल्कि रचनात्मक उत्तेजना और बेचैनी से भर देती हैं।
अपने कठिन समय की जटिल मानव-स्थितियों की ज़रूरी पड़ताल करती ये कविताएँ उन अवरोधक शक्तियों की भी शिनाख़्त करती हैं जो सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक जीवन की सहजता को अपने ढंग से नियंत्रित करना चाहती हैं। कवि के गहरे सरोकारों के दायरे में रिक्शेवाले, दैनिक वेतनभोगी, भूखे बच्चे एवं भूकम्प पीड़ित हैं तो दूसरी तरफ़ ‘सीलमपुर की लड़कियाँ’ भी हैं जिन्होंने अपनी हज़ारसाला पुरानी आत्माओं को उतारकर चुपके से एक नया सपना देखने का जोखिम उठाया है।
चेतन कविता और औसत राजमार्ग से अलग इस कठिन समय में अपनी रचनात्मक बेचैनी के साथ एक अलग और नया रास्ता बनाते हैं जो क़तार के आख़िरी आदमी के सपनों तक पहुँचता है और उसकी संवेदना से स्वयं को जोड़ता है। लेकिन चेतन अनुभूतियों के ही नहीं, दृढ़ विचारों और स्पष्ट ‘विज़न’ के कवि हैं।
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