Parchhaiyan
Author:
Mahima MehtaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 156
₹
195
Available
‘परछाइयाँ’ आत्म-कथा नहीं, जीवन-गाथा है। इसमें जीवन के अनुभवों और निष्कर्षों को अनावृत्त किया गया है। इस पुस्तक की पंक्तियों में पाठक स्वयं अपने जीवन में घटित घटनाओं की अनुभूति करता चलता है। मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों का सूक्ष्मता और सरलता से किया गया विश्लेषण श्रीमती महिमा मेहता के संवेदनशील मन को भी उजागर कर देता है। जीवन में संघर्ष क्या होता है और उससे जूझने के लिए सकारात्मक एवं आस्थावादी दृष्टि कैसी भूमिका निभाती है, इसका दिग्दर्शन कराती है ‘परछाइयाँ’। इन परछाइयों में जो चित्र उभरते चलते हैं उनको कुशल चितेरे की भाँति उकेरने में लेखिका अत्यन्त सफल रही है।</p>
<p>इस संस्मरणात्मक उपन्यास में केवल घटनाएँ नहीं, अपने समय की परिक्रमा है। वह जो बीत गया है, वह अब नहीं लौटता, लेकिन स्मृतियों में बस जाता है। प्रसाद जी के ‘आँसू’ की रचना विकल वेदना के उभरने पर सम्भव हुई थी, लेकिन यह संस्मरणात्मक उपन्यास जीवन के एकाकीपन का सहचर है।</p>
<p>महिमा जी गद्य लेखन करती हैं और सहज-सरल भाषा में अपने संवेगों को सम्प्रेषित करती हैं। वे ऐसे समय में लिख रही हैं जब शारीरिक पीड़ा व्यथित करती है और इस एकाकीपन में स्मृतियाँ ही साथ देती हैं। पाठक आश्चर्यचकित होगा कि उन स्मृतियों के सकारात्मक पहलुओं को लेखिका किस कुशलता से चित्रित करती हैं। मूल्यों के क्षरण के इस युग में ये प्रकाश-स्तम्भ का काम करेंगी।</p>
<p>लेखिका का विश्वास है कि कुछ मूल्य ऐसे होते हैं जो जीवन को जीने योग्य बनाते हैं। यही मूल्य हैं जिन्हें महिमा जी ने प्रयासपूर्वक सँजोया ही नहीं, अपनी स्मृति का हिस्सा बनाया है। आज के युग में उन मूल्यों के सजीव चित्रण ने ‘परछाइयाँ’ को विशिष्टता प्रदान की है।
ISBN: 9789352211555
Pages: 303
Avg Reading Time: 10 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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राज्यापहरण की इस घटना के बाद बारहवीं सदी में एक अभूतपूर्व साहित्यिक-धार्मिक क्रान्ति का प्रादुर्भाव हुआ। इस क्रान्ति के कारण बिज्जल का राज्यकाल इतिहास में अपना एक पदचिह्न छोड़ गया है। इस क्रान्ति के कर्णधार थे बिज्जल के मंत्रिपरिषद् के सदस्य भक्ति-भंडारी बसवेश।
इस कालावधि में जो घटनाएँ हुईं, वे ही इस ‘राज्यपाल’ उपन्यास की कथा-वस्तु हैं। उपन्यास की पीठिका के रूप में तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों का समसामयिक साहित्य, शिला-लेख आदि की सहायता से चित्रित करने का प्रयत्न किया गया है।
सिद्धहस्त लेखक बी. पुट्टस्वामय्या ने प्रांजल भाषा में एक युग को साकार कर दिया है। भालचन्द्र जयशेट्टी का सतर्क अनुवाद उपन्यास को मूल आस्वाद से अभिन्न रखने में समर्थ सिद्ध हुआ है।
Aryagatha
- Author Name:
Virendra Sarang
- Book Type:

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Description:
वीरेन्द्र सारंग का यह उपन्यास ‘आर्यगाथा’ आर्य-अनार्य संघर्ष का एक यथार्थपरक विश्लेषण है। यह एक तरह से संस्कृति-गाथा है जिसमें आर्य और मूल निवासी अनार्यों की परम्पराओं और प्रतीकों को एक नए नज़रिए से देखने की कोशिश साफ़ देखी जा
सकती है। पारम्परिक रामकथा के ज़रिए कथा का विन्यास बुना गया है, लेकिन यह महज़ रामकथा नहीं है। यह देव-दानव, आर्य-अनार्य, राक्षस-संस्कृति का एक विराट रूपक है जिसे वैज्ञानिक स्तर पर समझने की कोशिश की गई है।
रामकथा के मिथकीय अंशों को छोड़कर यह बताया गया है कि कैसे आर्य संस्कृति और राम की विजय सम्भव हुई। आर्यों के पास शब्द-संस्कृति थी और अनार्यों के पास अपनी मानवीय परम्पराएँ और शिल्प कौशल। रावण अनार्यों को एकजुट करके रक्ष-संस्कृति की स्थापना करता है। आर्य उसकी विस्तारवादी नीति से भयभीत हैं और एक महानायक की तलाश कर रहे हैं। अगस्त्य इसके लिए अनार्य हनुमान को तैयार करते हैं और उधर विश्वामित्र राम को। अगस्त्य और विश्वामित्र के प्रयासों से अनार्य हनुमान और राम का मिलन सम्भव होता है।
यह कथा रुझान को परखने, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, पिंडों की स्थापना जैसे—लिंग पिंड, कुबेर पिंड, देवी पिंड आदि की कथा है। यहाँ रूप-कुरूप पर नई बहस है तो पहचान-प्रतीक जैसे—पगड़ी, पूँछ, उत्तरीय, सींग, मुकुट पर ख़ासा विमर्श भी। ‘राम नाम सत्य है’ की स्थापना और उसका प्रारम्भ तो आश्चर्यचकित करता है। शिव अनार्यों के इष्ट हैं, वे आयुधों के निर्माता हैं, लेकिन निर्लिप्त। आर्य-अनार्य, देव-दानव सभी उनसे आयुध लेते हैं। धीरे-धीरे आर्य-अनार्य मिश्रण के परिणामस्वरूप शिव सभी के उपास्य हो जाते हैं। यह दो संस्कृतियों की मिलन-गाथा है जो रावण के विनाश से एक आयाम ग्रहण करती है। यहाँ तथ्य हैं तो कल्पना का भी भरपूर प्रयोग किया गया है।
कुल मिलाकर एक पठनीय और दिलचस्प उपन्यास है—‘आर्यगाथा।’
—शशिभूषण द्विवेदी
Pratibandhit Hindi Sahitya : Vol. 1-2
- Author Name:
Rustam Roy
- Book Type:

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Description:
‘प्रतिबंधित हिन्दी साहित्य’ के दो खंडों में स्वाधीनता आंदोलन के दिनों की प्रतिबंधित रचनाओं का संकलन किया गया है। आजादी की लड़ाई के दिनों की याद ताजा करने तथा उस समय के रचना-मूल्यों को समझने के लिए यह संकलन ऐतिहासिक महत्त्व का है। पुस्तक के पहले खंड में प्रतिबंधित कहानियाँ और उपन्यास संकलित हैं तथा दूसरे खंड में कविताएँ। जिन रचनाकारों की रचनाएँ इनमें संकलित हैं, उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अपनी रचनाओं को हथियार की तरह इस्तेमाल किया। अपनी रचनाओं द्वारा उन्होंने साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आम लोगों में विद्रोह और अवज्ञा की मानसिकता तैयार करने की कोशिश की। अंग्रेजों ने ऐसे लेखकों का दमन किया, उनकी क्रांतिकारी रचनाओं के लिए उन पर मुकद्दमा चलाया और प्रतिबंध लगा दिया। इन दो खंडों में हमने ऐसी ही प्रतिबंधित रचनाओं का संकलन किया है।
श्री रुस्तम राय ने काफी मेहनत करके काल कोठरी के अँधेरे से ये रचनाएँ निकाल कर पाठकों तक पहुँचाने में हमारी मदद की है। आशा है, इन रचनाओं से उस दौर के साहित्य की कुछ अछूती विशेषताएँ हमारे सामने आएँगी। साथ ही हम स्वाधीनता आंदोलन से सीधे जुड़े साहित्य का जायजा ले सकेंगे। आज भी देश की सामाजिक परिस्थितियों में कोई निर्णायक बदलाव नहीं आया है इसलिए ये रचनाएँ अब भी प्रासंगिक हैं।
पुस्तक के पहले खंड में पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, ऋषभ चरण जैन तथा मुनीश्वर दत्त अवस्थी की कहानियों के अलावा जिन कथाकारों की कहानियाँ शामिल हैं, उनके नाम हैं—यशपाल, लक्ष्मीचंद्र वाजपेयी ‘चन्द्र’, मुक्त, लीलावती बी.ए., जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’, आचार्य चतुर सेन शास्त्री, विश्वंभर नाथ शर्मा ‘कौशिक’ तथा प्रेम बंधु । इस खंड में ब्रजेन्द्र नाथ गौड़ का उपन्यास ‘पैरोल पर’ भी संकलित है। इस उपन्यास ने स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में क्रांतिकारियों के बीच नया उत्साह पैदा कर दिया था। आशा है, ये रचनाएँ स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी रचनाशीलता पर नए सिरे से विचार करने के लिए प्रेरित करेंगी।
‘प्रतिबंधित हिन्दी साहित्य’ के दूसरे खंड में स्वाधीनता आंदोलन के दिनों की प्रतिबंधित कविताओं का संकलन किया गया है। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारतेन्दु युग में भी कविताएँ लिखी गईं, लेकिन बीसवीं सदी के द्विवेदी युग और छायावाद युग में भी क्रांतिकारी कविताओं की संख्या काफी है। ऐसी कविताएँ सैकड़ों की संख्या में ब्रिटिश शासन द्वारा प्रतिबंधित भी हुईं। इस खंड में ऐसे काव्य-संग्रह संकलित हैं जिन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने प्रतिबंधित कर दिया था। संकलन और उनके रचनाकारों के नाम इस प्रकार हैं—‘खून के छींटे’ (बलभद्र गुप्त विशारद ‘रसिक’), ‘मुक्त संगीत’ (अभिराम शर्मा एवं प्रणयेश शर्मा), ‘विद्रोहिणी और तूफान’ (प्रह्लाद पांडेय ‘शशि’)।
स्वाधीनता आंदोलन से हिंदी कविता का रिश्ता बहुआयामी रहा है। द्विवेदी युग के मैथिलीशरण गुप्त और उनके मंडल के कवियों ने सांस्कृतिक पुनरुत्थान की घोषणा करके ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध किया। राष्ट्रीय धारा के माखनलाल चतुर्वेदी और दिनकर आदि कवियों ने राष्ट्रीय जागरण के लिए आह्वानपरक कविताएँ लिखीं। प्रसाद, निराला, महादेवी और पंत जैसे छायावादी कवियों ने ‘स्वच्छंद’ मानसिकता को प्रश्रय देकर प्रकृति और प्रेम के आधार पर मुक्ति का आह्वान किया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान इन तीनों धाराओं के समानांतर एक और भी धारा थी जिसके कवियों ने सीधे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ आवाज बुलंद की। इस खंड में शामिल रचनाकार ऐसे ही कवि हैं। इनकी रचनाओं के स्वरूप और तत्कालीन समाज पर पड़े उनके प्रभाव का अध्ययन अभी शेष है। आशा है, यह संकलन इस कमी को पूरा करेगा।
ये क्रांतिकारी कविताएँ कलात्मकता और लोकप्रियता— दोनों ही स्तरों पर नए प्रतिमान गढ़ती हैं।
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