Sarkari Karalayo Mein Hindi Ka Prayog
Author:
Gopinath SrivastavPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 480
₹
600
Available
प्रस्तुत पुस्तक ‘सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोग’ तीन भागों में विभाजित किया गया है। पहले भाग में टिप्पण, प्रालेखन, संक्षिप्त लेखन और मुद्रण-फलक-शोधन पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। दूसरे भाग में परिशिष्ट है जिसमें दोषयुक्त और शुद्ध टिप्पणी के नमूने, विभिन्न प्रकार के प्रालेखों के नमूने, संक्षिप्त-लेखन के नमूने, मुद्रण-शोधन के नमूने, कतिपय प्रतिमित प्रालेख, प्रपत्र और सन्देश आदि दिए गए हैं। तीसरे भाग में सरकारी कार्य में व्यवहृत विदेशी भाषाओं के वाक्यांश और उनके हिन्दी पर्याय दिए गए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह पुस्तक उपयोगी और राजकीय कार्यों में हिन्दी की प्रगति बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगी।
ISBN: 9788180310744
Pages: 250
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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हिन्दी की आधुनिक संस्कृति का विकास भारतीय सभ्यता को एक आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र में रूपान्तरित कर देने के वृहत् अभियान के हिस्से के रूप में हुआ। इस प्रक्रिया में गांधी जैसे चिन्तकों के विचारों की अनदेखी तो की ही गई, मार्क्स के चिन्तन को भी बहुत ही सपाट और यांत्रिक ढंग से समझने और लागू करने का प्रयास किया गया। यह पुस्तक गांधी और मार्क्स का एक नया भाष्य ही नहीं प्रस्तुत करती, बल्कि भारतीय आधुनिकता की विलक्षणताओं को भी रेखांकित करने का उपक्रम करती है। आधुनिकता की परियोजना के संकटग्रस्त हो जाने और उत्तर-आधुनिक-उत्तर-औपनिवेशिक चिन्तकों द्वारा उसकी विडम्बनाओं को उजागर कर दिए जाने के उपरान्त गांधी और मार्क्स का ग़ैर-पश्चिमी समाज के परिप्रेक्ष्य में पुनर्पाठ एक राजनीतिक और रणनीतिक ज़रूरत है। इस ज़रूरत का एहसास भारतीय और पश्चिमी समाज वैज्ञानिकों के लेखन में इन दिनों बहुत शिद्दत से उभरकर आ रहा है। विडम्बना ये है कि हिन्दी की दुनिया ने अभी भी इस प्रकार के चिन्तन को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी है। इस दृष्टि से विचार करने पर आधुनिकता के साथ पूँजीवाद, उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, विज्ञान, तर्कबुद्धि और लोकतंत्र का वैसा सम्बन्ध ग़ैर-पश्चिमी सभ्यताओं के साथ नहीं बनता है, जैसा पश्चिमी सभ्यताओं के साथ दिखाई पड़ता है। इस बात का एहसास गांधी को ही नहीं, हिन्दी नवजागरण के यशस्वी लेखक प्रेमचन्द को भी था। यह अकारण नहीं है कि प्रेमचन्द ने आधुनिकता से जुड़े हुए राष्ट्रवाद समेत सभी अनुषंगों की तीखी आलोचना की और उसके विकल्प के रूप में कृषक संस्कृति, देशज कौशल, शिक्षा और न्याय-व्यवस्था के महत्त्व पर ज़ोर दिया। देशज ज्ञान को महत्त्व देनेवाला व्यक्ति ज्ञान के स्रोत के रूप में सिर्फ़ अंग्रेज़ी के माहात्म्य को स्वीकार नहीं कर सकता था। इसलिए गांधी और प्रेमचन्द ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं के उत्थान पर इतना ज़ोर दिया। लेकिन, हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति के अधिकांश में, भारतीय भाषाओं की अस्मिता और उनके साहित्य का अध्ययन भी यूरोपीय राष्ट्रों के साहित्य के वज़न पर किया गया। आधुनिक साहित्यिक विधाओं का चुनाव और विकास भी बहुत कुछ पश्चिमी देशों के साहित्य के निकष पर हुआ। यह सब हुआ जातीय साहित्य और जातीय परम्परा का ढिंढोरा पीटने के बावजूद। यह पुस्तक साहित्य के इतिहास-अध्ययन की इस प्रवृत्ति और साहित्यिक विधाओं के विकास की सीमाओं और विडम्बनाओं को भी अपनी चिन्ता का विषय बनाती है और सही मायने में अपनी जातीय साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा को एक उच्चतर सर्जनात्मक स्तर पर पुनराविष्कृत करने की विचारोत्तेजक पेशकश करती है।
—पुरुषोत्तम अग्रवाल
Hindi Kavya Chintan Ke Mooladhar
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
- Book Type:

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Description:
वैश्विक परिदृश्य की ओर बढ़ती हिन्दी भाषा के अपने काव्य-चिन्तन के मूलाधार का न होना स्वयं में चिन्ताजनक सन्दर्भ है। आठवीं शती में प्रारम्भ होनेवाली आज की इस राष्ट्रभाषा के रचनात्मक साहित्य का मूल्यांकन या तो भारतीय संस्कृत भाषा साहित्य के काव्यशास्त्रीय मानकों पर दृष्टि डालने के लिए विवश करता है या फिर विदेशी साहित्य सिद्धान्तों की ओर दृष्टि दौड़ते हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी की कविता के लिए यह कितना लज्जाजनक है। देश-भर के विश्वविद्यालयों से जुडी भारतीय हिन्दी परिषद संस्था की राष्ट्रीय संगोष्ठियों में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. नागेन्द्र, डॉ. भागीरथ मिश्र आदि विद्वान इस विषय पर बार-बार प्रश्न उठा चुके हैं किन्तु अभी तक इस दिशा में किए गए प्रयास सार्थक नहीं हो पाए।
इस प्रश्न के सन्दर्भ में यहाँ यदि यह कहा जाए कि ‘हिन्दी काव्य चिन्तन के मूलाधार’ शीर्षक ग्रन्थ हिन्दी की अपनी अस्मिता से जुड़े अपने नए मानकों की तलाश तथा हिन्दी भाषा की प्रकृति एवं उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि के साथ इतिहासबोध तथा संस्कृति को गहराई से देखने का एक मौलिक सन्दर्भ है। हिन्दी काव्य-चिन्तन की दिशा में निश्चित ही उसकी मौलिकता की प्रस्तुति को रखने, देखने, विश्लेषित करते हुए नए रूप में निष्कर्षबद्ध करने का यह सर्वथा नवीन प्रयास है।
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