Hindi Ki Sahitiyak Sanskriti Aur Bhartiya Adhunikata
Author:
RajkumarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 320
₹
400
Available
हिन्दी की आधुनिक संस्कृति का विकास भारतीय सभ्यता को एक आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र में रूपान्तरित कर देने के वृहत् अभियान के हिस्से के रूप में हुआ। इस प्रक्रिया में गांधी जैसे चिन्तकों के विचारों की अनदेखी तो की ही गई, मार्क्स के चिन्तन को भी बहुत ही सपाट और यांत्रिक ढंग से समझने और लागू करने का प्रयास किया गया। यह पुस्तक गांधी और मार्क्स का एक नया भाष्य ही नहीं प्रस्तुत करती, बल्कि भारतीय आधुनिकता की विलक्षणताओं को भी रेखांकित करने का उपक्रम करती है। आधुनिकता की परियोजना के संकटग्रस्त हो जाने और उत्तर-आधुनिक-उत्तर-औपनिवेशिक चिन्तकों द्वारा उसकी विडम्बनाओं को उजागर कर दिए जाने के उपरान्त गांधी और मार्क्स का ग़ैर-पश्चिमी समाज के परिप्रेक्ष्य में पुनर्पाठ एक राजनीतिक और रणनीतिक ज़रूरत है। इस ज़रूरत का एहसास भारतीय और पश्चिमी समाज वैज्ञानिकों के लेखन में इन दिनों बहुत शिद्दत से उभरकर आ रहा है। विडम्बना ये है कि हिन्दी की दुनिया ने अभी भी इस प्रकार के चिन्तन को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी है। इस दृष्टि से विचार करने पर आधुनिकता के साथ पूँजीवाद, उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, विज्ञान, तर्कबुद्धि और लोकतंत्र का वैसा सम्बन्ध ग़ैर-पश्चिमी सभ्यताओं के साथ नहीं बनता है, जैसा पश्चिमी सभ्यताओं के साथ दिखाई पड़ता है। इस बात का एहसास गांधी को ही नहीं, हिन्दी नवजागरण के यशस्वी लेखक प्रेमचन्द को भी था। यह अकारण नहीं है कि प्रेमचन्द ने आधुनिकता से जुड़े हुए राष्ट्रवाद समेत सभी अनुषंगों की तीखी आलोचना की और उसके विकल्प के रूप में कृषक संस्कृति, देशज कौशल, शिक्षा और न्याय-व्यवस्था के महत्त्व पर ज़ोर दिया। देशज ज्ञान को महत्त्व देनेवाला व्यक्ति ज्ञान के स्रोत के रूप में सिर्फ़ अंग्रेज़ी के माहात्म्य को स्वीकार नहीं कर सकता था। इसलिए गांधी और प्रेमचन्द ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं के उत्थान पर इतना ज़ोर दिया। लेकिन, हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति के अधिकांश में, भारतीय भाषाओं की अस्मिता और उनके साहित्य का अध्ययन भी यूरोपीय राष्ट्रों के साहित्य के वज़न पर किया गया। आधुनिक साहित्यिक विधाओं का चुनाव और विकास भी बहुत कुछ पश्चिमी देशों के साहित्य के निकष पर हुआ। यह सब हुआ जातीय साहित्य और जातीय परम्परा का ढिंढोरा पीटने के बावजूद। यह पुस्तक साहित्य के इतिहास-अध्ययन की इस प्रवृत्ति और साहित्यिक विधाओं के विकास की सीमाओं और विडम्बनाओं को भी अपनी चिन्ता का विषय बनाती है और सही मायने में अपनी जातीय साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा को एक उच्चतर सर्जनात्मक स्तर पर पुनराविष्कृत करने की विचारोत्तेजक पेशकश करती है।</p>
<p>—पुरुषोत्तम अग्रवाल
ISBN: 9788126727698
Pages: 171
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘गोदान’ मूलत: ग्राम-केन्द्रित उपन्यास है और उसी रूप में मान्य भी है। ‘गोदान’ में
ग्राम और नगर की इन दुहरी कथाओं को लेकर उसके रचना-काल से तरह-तरह के सवाल और विवाद
उठाए गए हैं तथा दोनों के समुचित संयोजन पर भी प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं। उपन्यास में गाँव की
कथावस्तु के साथ नगर की कथा को जोड़ने में प्रेमचन्द का उद्देश्य क्या था, और दोनों के संयोजन
में वे कहाँ तक अपने संवेदनात्मक उद्देश्य को पूरा कर सके।
‘गोदान’, हिन्दी कथा-साहित्य को प्रेमचन्द की बहुत महत्त्वपूर्ण देन है। उसे साहित्य के क्षेत्र में एक
‘क्लासिक’ का स्थान मिला है। अपने गहन संवेदनात्मक गुण और अपने निहायत सादे किन्तु
अतिशय प्रभावशाली रचना-शिल्प के नाते उपन्यास के भावी विकास को मानक के तौर पर स्वीकार
किया गया है। उपन्यास के परवर्ती विकास में उसकी छाप और उसके प्रतिचित्र आसानी से देखे और
परखे जा सकते हैं।
Kriti Vikriti Sanskriti
- Author Name:
Satyaprakash Mishra
- Book Type:

-
Description:
सत्यप्रकाश मिश्र हिन्दी आलोचना में साहित्यिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सन्दर्भों एवं उनसे निःसृत समाजवादी मान-मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में किसी भी कृत और प्रवृत्ति का मूल्यांकन करनेवाले एक सेक्यूलर आलोचक थे। समकालीन हिन्दी आलोचना भाषा को उन्होंने जो आवाज़ दी, वह अपने आप में अकेली और अनोखी है। इस आवाज़ में जहाँ तीक्षा असहमति का स्वर है वहाँ भी सप्रमाण तर्कशक्ति के साथ विषय और सन्दर्भों का विवेकपूर्ण प्रकटन है जिसको पढ़कर लगता है कि हिन्दी आलोचना के लिए इस तरह के आलोचना कर्म की ज़रूरत आज और भी अधिक है, क्योंकि समकालीन हिन्दी आलोचना परिचय-धर्मिता का शिकार हो रही है।
प्रो. मिश्र यह मानते हैं कि आलोचक का कार्य केवल उद्धारक या प्रमोटर का नहीं होना चाहिए। रचनाकार, उसके परिवेश और कृति को समग्रता में समझने के कार्य को वह आलोचना का प्रमुख कार्य मानते हैं। इस पुस्तक में नवें दशक की हिन्दी कविता पर लिखा उनका लम्बा लेख इसका उदाहरण है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी और नन्ददुलारे वाजपेयी के पश्चात् व्यापक सामाजिक चेतना वाले आलोचकों—रामविलास शर्मा, विजयदेव नारायण साही, नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय की आलोचना-दृष्टि, पद्धति और प्रविधि तथा मूल्यांकन क्षमता की परख करते हुए इस पुस्तक में सत्यप्रकाश मिश्र ने हिन्दी आलोचना के विकास-क्रम को निर्दिष्ट किया है। वे अपने प्रिय आलोचक साही की ही तरह यह मानते थे कि आलोचना के मुहावरे को ग़लत बनाम सही, झूठ या अपर्याप्त सच बनाम सच का रूप ग्रहण करना ही चाहिए। ‘कृति विकृति संस्कृति’, इसी आलोचनात्मक मुहावरे का रूपाकार है।
Anuprayukt Bhashavigyan : Siddhant Evam Prayog
- Author Name:
Ravindranath Shrivastava
- Book Type:

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Description:
अप्रयुक्त भाषाविज्ञान अपने सिद्धान्त और प्रणाली के आधार पर भाषा से सम्बन्धित ज्ञान के अन्य क्षेत्रों के अध्ययन विश्लेषण के लिए नया कार्यक्षेत्र खोलता है। इस नए कार्यक्षेत्र के प्रति प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव सचेत रहे तथा इससे उनके भाषावैज्ञानिक की संलग्नता भी निरन्तर बनी रही। उनका यह दृढ़ मत था कि भाषाविदों को ही आज अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की सर्वाधिक आवश्यकता है। वे यह मानते थे कि भाषाविद् ही अपने भाषावैज्ञानिक ज्ञान का अनुप्रयोग करते हुए भाषा-अध्ययन को प्रौढ़ तथा उपयोगी बना सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि समाज में भाषा-प्रयोग, भाषा का कलात्मक प्रयोग, भाषा का शिक्षण आदि कई ऐसे क्षेत्र हैं जो अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के उपयोग के अभाव में उजागर हो ही नहीं सकते। यदि गम्भीरता से देखा जाए तो मातृभाषा और अन्य भाषाओं के शिक्षक, साहित्य-समीक्षक, अनुवादक, कोशकार सभी को भाषावैज्ञानिक ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। इसके साथ ही जो अध्येता साक्षरता-अभियान, लेखन-पद्धति के विकास, वर्तनी-शोधन, भाषा-नीति, कंप्यूटर-भाषा जैसे क्षेत्रों से सम्बन्ध हैं, वे भी भाषावैज्ञानिक अनुप्रयोग के अभाव में अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकते। अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के विषय-क्षेत्र एवं उसकी कार्य-प्रणाली पर काफ़ी समय तक भ्रामक विचारों की धुंध छाई रही। प्रो. श्रीवास्तव ने इस प्रकार अवैज्ञानिक अन्तर्विरोधों को शान्त करने के साथ ही अपनी तार्किक और वैज्ञानिक विवेचन-पद्धति और इसके सभी उपवर्गों को एक भ्रान्तिमुक्त दिशा दी। उन्होंने यह प्रतिपादित और प्रमाणित किया कि भाषावैज्ञानिक नियमों के अनुप्रयोग के लक्ष्य भिन्न होते हैं। लक्ष्य-भेद से ही अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के भिन्न सन्दर्भ उपजते हैं; यही उसकी भिन्न शाखाओं के निर्माण और विकास का कारण बनते हैं। इन और ऐसे अनेक प्रश्नों पर यह पुस्तक
प्रो. श्रीवास्तव का नज़रिया प्रस्तुत करती है। इनमें से कई लेख कालक्रम के लम्बे अन्तराल में लिखे गए हैं। इन्हें क्रमबद्ध ढंग से उपलब्ध कराना इस संकलन के प्रकाशन का प्रमुख लक्ष्य है। हमारा यह भी उद्देश्य है कि समय के साथ प्रो. श्रीवास्तव के चिन्तन में क्रमशः प्रखरता, वैज्ञानिकता और व्यापकता के जो आयाम जुड़ते चले गए उनकी पहचान हो सके। पुस्तक के व्यापक फ़लक और इसकी वैचारिक गहराई को देखते हुए इसे हिन्दी में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की पहली सम्पूर्ण कृति कहा जा सकता है।
Kavi Aur Kavita
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

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Description:
‘कवि और कविता’ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के छब्बीस विचारोत्तेजक निबन्धों का पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय संकलन है।
इस संग्रह में ‘मैथिल कोकिल विद्यापति’, ‘विद्यापति और ब्रजबुलि’, ‘कबीर साहब से भेंट’, ‘गुप्त जी : कवि के रूप में’, ‘महादेवी जी की वेदना’, ‘कविवर मधुर’, ‘रवीन्द्र-जयन्ती के दिन’, ‘कला के अर्धनारीश्वर’, ‘महर्षि अरविन्द की साहित्य-साधना’, ‘रजत और आलोक की कविता’, ‘मराठी के कवि केशवसुत और समकालीन हिन्दी कविता’, ‘शेक्सपियर’, ‘इलियट का हिन्दी अनुवाद’ जैसे शाश्वत विषयों के अलावा ‘कविता में परिवेश और मूल्य’, ‘कविता’, ‘राजनीति और विज्ञान’, ‘युद्ध और कविता’, ‘कविता का भविष्य’, ‘महाकाव्य की वेला’, ‘हिन्दी-साहित्य में निगम-धारा’, ‘निर्गुण पंथ की सामाजिक पृष्ठभूमि’, ‘सगुणोपासना’, ‘हिन्दी कविता में एकता का प्रवाह’, ‘सर्वभाषा कवि-सम्मेलन’, ‘नई कविता के उत्थान की रेखाएँ’, ‘चार काव्य-संग्रह’, ‘डोगरी की कविताएँ’ जैसे ज्वलन्त प्रश्नों पर राष्ट्रकवि दिनकर का मौलिक चिन्तन शामिल है, जो आज भी उतना ही सार्थक और उपादेय है।
सरल-सुबोध भाषा-शैली तथा नए कलेवर में सजाई, सँवारी गई कविवर-विचारक दिनकर की यह एक अनुपम कृति है।
Nai Kahani Ki Bhumika
- Author Name:
Kamleshwar
- Book Type:

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Description:
'एक शानदार अतीत कुत्ते की मौत मर रहा है, उसी में से फूटता हुआ एक विलक्षण वर्तमान रू-ब-रू खड़ा है—अनाम, अरक्षित, आदिम अवस्था में। और आदिम अवस्था में खड़ा यह मनुष्य अपनी भाषा चाहता है, आस्था चाहता है, कविता और कला चाहता है, मूल्य और संस्कार चाहता है; अपनी मानसिक और भौतिक दुनिया चाहता है...।'
यह है नयी कहानी की भूमिका—इस कहानी को शास्त्र और शास्त्रियों द्वारा परिभाषित करने की जब-जब कोशिश हुई है, कहानी और कहानीकार ने विद्रोह किया है। इस कहानी को केवल जीवन के सन्दर्भों से ही समझा जा सकता है, युग के सम्पूर्ण बोध के साथ ही पाया जा सकता है।
नयी कहानी के प्रमुख प्रवक्ता तथा समान्तर कहानी आन्दोलन के प्रवर्तक कमलेश्वर ने छठे दशक के कालखंड में जीवन के उलझे रेशों और उससे उभरनेवाली कहानी की जटिलताओं को गहरी और साफ़ निगाहों से विश्लेषित किया है। साहित्य का यह विश्लेषण बिना स्वस्थ सामाजिक दृष्टि के सम्भव नहीं है।
कमलेश्वर की यह पुस्तक इसलिए ऐतिहासिक महत्त्व की है कि यह समय और साहित्य को पारस्परिक समग्रता में समझने की दृष्टि देती है। 'नयी कहानी की भूमिका' अपने समय के साहित्य की अत्यन्त विशिष्ट दस्तावेज़ है; पाठकों, लेखकों और अध्येताओं के लिए अपरिहार्य पुस्तक है।
Arya-Dravid Bhashaon Ki Moolbhoot Ekta
- Author Name:
Bhagwan Singh
- Book Type:

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Description:
आमतौर पर माना जाता है कि आर्य और द्रविड़ भाषाओं का सम्बन्ध दो अलग-अलग भाषा परिवारों से है। ‘आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता’ पुस्तक इसी धारणा का खंडन करती है और यह सिद्ध करने का प्रयास करती है कि आर्य और भारोपीय भाषाओं का स्रोत वही है जो द्रविड़ भाषाओं का।
जिन तथ्यों को आधार मानकर यह प्रबन्ध अपनी इस धारणा को स्पष्ट करता है, उनमें सबसे प्रमुख यह है कि भारोपीय और द्रविड़ भाषाओं में तात्विक विभेद नहीं है और यह कि इन भाषाओं का विकास भारतीय परिवेश में ही हुआ था।
विभिन्न भाषाओं की शब्दावली और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए यह पुस्तक भाषा की आदिम अवस्था और विकास क्रम का विश्लेषण भी करती है तथा वैदिक, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और आधुनिक बोलियों की सामान्य प्रवृत्तियों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि इन बोलियों के स्वरूप को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक हम इन्हें अलग मानकर चलेंगे।
लेखक के अपने शब्दों में इस ‘कृति का गम्भीरता से अध्ययन करने के बाद इतना तो स्पष्ट हो जाएगा कि इसका उद्देश्य कुतूहल उत्पन्न करना नहीं है।’ यह एक बेहद उलझी हुई समस्या को समझने और उसका कोई समाधान ढूँढ़ने का एक जिम्मेदार प्रयास है।
भाषा के गम्भीर अध्येताओं के लिए एक विचारोत्तेजक कृति।
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