Kavita Ka Prati Sansar
Author:
Nirmala JainPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Available
रचना, आलोचना का अनिवार्य संदर्भ भी होती हैं और उसके लिए चुनौती भी । दोनो के बीच सम्बन्ध स्थित्यात्मक न होकर गत्यात्मक होता है । पूर्ववर्ती और सहवर्ती साहित्य प्रतिमानों के निर्धारण के लिए आलोचना को आमंत्रित करता है और अनुवर्ती साहित्य अक्सर पूर्वनिर्मित प्रतिमानों की अपर्याप्तता का बोध जगाता है । हर महत्वपूर्ण रचना मूल्यांकन के प्रतिमानों की उपलब्ध व्यवस्था के बीच से अपने लिए प्रासंगिक प्रतिमानों की तलाश ही नहीं कर लेती, बल्कि नए प्रतिमानों के लिए आधार भी प्रस्ता- वित करती है । प्रतिमानों के सस र में शाश्वत कुछ नहीं होता । इस वास्तविकता का अहसास आलो- चना को परमुखापेक्षी होने से बचाता है । 'कविता का प्रति संसार' रचनात्मक साहित्य वो संदर्भ की अनिवार्यता के अहसास से प्रेरित ऐसे ही आलोचनात्मक लेखों का सग्रह है । 'समय-समय' पर लिखे गए इन लेखों में निर्मला जैन ने गहरे सरो- कार के साथ प्रखर शैली में प्रतिमानों का प्रश्न भी उठाया हए और रचनाओं का विश्लेषण भी किया हैं । इन लेखों में वे मुद्दे उठाए गए हैं जो प्रतिमानों कं संदर्भ में अक्सर सामने आते हैं । साथ ही आधु- निक हिंदी कविता की विशिष्ट उपलब्धियों को सर्वथा मौलिक दृष्टि से देखा-परखा गया है । इस संकलन का प्रमुख आकर्षण विषय का विस्तार और प्रतिमानों की विविधता है । यह पुस्तक रचना और आलोचना की सही पहचान कराती है ।
ISBN: 9788171191802
Pages: 123
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के पहले हिन्दी आलोचना का कोई व्यवस्थित ढाँचा तैयार नहीं हुआ था। कृति के गुण-दोष-दर्शन में दोष ढूँढ़ने का प्रचलन अधिक था। दोष-दर्शन में भी भाषागत त्रुटियों को ज़्यादा महत्त्व दिया जाता था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आलोचना के ऐतिहासिक और समाजशास्त्राीय स्वरूप की प्रस्तुति की और ‘लोक के भीतर ही कविता क्या किसी भी कला का प्रयोजन और विकास होता है’—के सिद्धान्त का निरूपण किया। उन्होंने आलोचना को व्यवस्थित रूप देने के लिए कुछ निश्चित मानदंड स्थापित किए।
यह पुस्तक आचार्य शुक्ल के जीवन, आलोचक के रूप में, के विकास और उनकी दृष्टि का एक सम्पूर्ण ख़ाका खींचने की कोशिश करती है। उनके प्रामाणिक जीवन-वृत्त के साथ ‘बीसवीं शताब्दी का काव्यात्मक आन्दोलन’ (कविता क्या है?); ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’; ‘वैचारिक निबन्धों के प्रथम आचार्य’; ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना दृष्टि’ और ‘उनकी साहित्येतिहास दृष्टि’—इन पाँच अध्यायों में विभक्त यह पुस्तक आचार्य शुक्ल को समझने और पढ़ने के नए द्वार खोलती है। इसके अलावा डॉ. पांडेय ने गहन शोध के बाद इस पुस्तक में आचार्य शुक्ल से सम्बन्धित अभी तक अनुपलब्ध कई महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ भी जुटाई हैं।
Aaj Ki Kahani
- Author Name:
Vijay Mohan Singh
- Book Type:

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Description:
आज की कहानी अगर रचना और आलोचना, दोनों को एक नई प्राण-प्रतिष्ठा देती जान पड़े तो आश्चर्य नहीं। ज़हीन, संवेदनशील और जागरूक कथाशिल्पी विजयमोहन सिंह ने यहाँ जिस लगाव और शिद्दत के साथ शब्दों के अर्थ और अर्थ के सन्दर्भों की तलाश की है, यह उसका स्वाभाविक परिणाम है। प्रामाणिकता, प्रासंगिकता, भोगा हुआ यथार्थ, रूमानीपन, फ़ैंटेसी और रूपक जैसे तमाम शब्द रोज़मर्रा आलोचना में निरर्थक ढंग से फेंके जाते रहे हैं। पर हिन्दी के कथा-साहित्य और उससे जुड़े हमारे देश-काल के व्यापक बुनियादी सवालों से मुठभेड़ होने पर वे यहाँ कुछ और ही रंग-रूप में सामने आते हैं। शिल्प, कला-रूपों, जीवन-दर्शनों की इस गम्भीर, दायित्वपूर्ण लेकिन जानदार पड़ताल में विजयमोहन सिंह की मूलतः मार्क्सवादी दृष्टि कठमुल्लापन, खेमाबंदी या सरलीकृत वर्गीकरण की धुंध से मुक्त है। इसलिए इन समीक्षात्मक निबन्धों को भी किसी बने-बनाए खाँचे में रखना मुश्किल है।
तिलमिला देने की हद तक तीखी यह उधेड़बुन नुस्ख़ों, नक़्क़ाल मूढ़ताओं, भोथरे इकहरेपनों, अतिनाटकीयताओं और छद्म गम्भीरताओं पर भारी पड़ती है। यह बेलौसपन अपने समय की सच्चाई को जीने की ईमानदार कोशिश है, और जहाँ भी लेखक को कुछ मूल्यवान लगा है, उसे रेखांकित करने में संकोच नहीं है।
एक तरह से यह हिन्दी कहानी की वर्णमाला है : प्रेमचन्द से लेकर ‘नई कहानी’, ‘अ-कहानी’ और ‘साठोत्तरी कहानी’ तक का परिदृश्य। एक ऐसा परिदृश्य, जिसमें उपस्थित-अनुपस्थित, प्रिय या अप्रिय महत्त्वपूर्ण कथाकार कहीं-न-कहीं एक-दूसरे से, अपने समय और परम्परा से, भाषा-रचना-अभिव्यक्ति-चिन्तन के धरातल पर टकराते हैं, जुड़ते-टूटते हैं। इन सम्बन्ध-सूत्रों की बारीकियाँ, और नितान्त नए कोणों से कृती और कृतित्व को परखने की कसौटियाँ आज की कहानी में मिलेंगी। उम्मीद शायद ग़लत न हो कि इससे केवल विवाद की नहीं, एक नए संवाद की भी शुरुआत होगी।
—गिरधर राठी
Sampoorn Rachnayen : Rahim
- Author Name:
Ramkishor Sharma
- Book Type:

- Description: रहीम मध्यकाल के ऐसे विलक्षण कवि हैं, जिनके अनुभव बहुआयामी हैं। इन्होंने जीवन में वैभव, सम्पन्नता तथा प्रतिष्ठा प्राप्त की और विपन्नता, तिरस्कार तथा बर्बर व्यवहार की पीड़ा भी झेली। इन्होंने धर्मनीति, राजनीति तथा लोकनीति से सम्बन्धित अपने अनुभूत विचारों को छन्दबद्ध करके जन-साधारण को चमत्कृत कर दिया। तुलसीदास, कबीरदास आदि भक्तों की तरह यदि किसी की उक्ति सामान्य शिक्षित व्यक्ति के द्वारा समय-समय पर उद्धृत की जाती है तो वह है रहीम की नीति सम्बन्धी उक्ति का कथन। रहीम की रचनाओं को सही ढंग से समझने के लिये उनका सटीक संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है। इनमें उनकी हिन्दी, संस्कृत तथा ज्योतिष सम्बन्धित सभी रचनाओं को समाहित किया गया है। एक लम्बी भूमिका में उनकी रचना की विशेषताओं को उद्घाटित किया गया है। भारतीय सांस्कृतिक उदारता, आस्था, विश्वास तथा सहिष्णुता आदि रहीम को उसी आलोक में परखने की चेष्टा इस कृति की विशेषता है। पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत ग्रन्थ रहीम की रचनाओं के मूल अभिप्राय को समझने में अध्येताओं, छात्रों तथा प्राध्यापकों के लिए उपयोगी होगा।
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