Vidhaon Ki Virasat
Author:
Vishwanath TripathiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 556
₹
695
Available
प्रगतिशील आलोचना-परम्परा के प्रतिनिधि आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की यह पुस्तक‘विधाओं की विरासत’न केवल उनकी सूक्ष्म आलोचकीय दृष्टि के कारण बल्कि उनके गद्य की सरस सर्जनात्मकता के कारण भी ध्यान आकृष्ट करती है। साहित्य उनके लिए मानवीयता का विस्तार करने वाली नैतिकता का माध्यम है, रचना सांस्कृतिक प्रक्रिया का हिस्सा और आलोचना महत्त्वपूर्ण सामाजिक दायित्व। इस दायित्व का निर्वाह करते हुए वे रचनाओं की और उनमें वर्णित पात्रों की पृष्ठभूमि और जीवन की खोज करते हैं और उसके सामने अपने जीवनानुभव एवं दृष्टिकोण को रखते हुए पाठक के भाव-बोध को समृद्ध करते हैं। वे भाषा एवं चित्रण-कला के विश्लेषण के माध्यम से भी मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करते हैं। वे रचनाओं की संरचना को अपने विश्लेषण द्वारा सामाजिकता तथा राजनीति की धार प्रदान करते हैं। राजनीति और रचना बराबर सामाजिकता या सामाजिकता और रचना बराबर राजनीति का सूत्र इस पुस्तक के लेखों, टिप्पणियों आदि में मिलता है।
सामाजिकता को वे बोध और संवेदना दोनों मानते हैं। जीवन की विषमता को पाटने की छटपटाहट से रहित रचना उनके लिए साहित्य नहीं हो सकती। उनके मुताबिक, संवेदना जीवन-आचरण और रचना-आचरण के द्वारा संस्कृति में ढलती है और साहित्य की महत्ता अनुभूति की तीव्रता को लेकर नहीं, बल्कि उसे शब्द के माध्यम से असीमित कर देने में है। वे किसी भी रचना की परख ऐसी ही कसौटियों से करते हैं और सांस्कृतिक चेतना के विकास को पहचानने वाली अन्तर्दृष्टि पाठक को प्रदान करते हैं। वस्तुतः यह ऐसी आलोचना है जो स्वयं एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है जिसकी आज कहीं अधिक आवश्यकता है।
ISBN: 9789360867201
Pages: 184
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना साहित्य का इतिहास कहलाता है।’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है कि ‘साहित्य का इतिहास ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के उद्भव और विलय की कहानी नहीं है, वह काल स्रोत में बहे आते हुए जीवन्त समाज की विकास कथा है।’ हिन्दी के इन दोनों मूर्धन्य विचारकों की परिभाषाओं से स्पष्ट है कि साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब है।
चित्तवृत्तियाँ समय एवं काल के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। अतएव साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है। इन परिस्थितियों के आलोक में साहित्य की इस विकासशील प्रवृत्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है। कहना न होगा कि साहित्य का विश्लेषण, अध्ययन केवल साहित्य एवं साहित्यकार तक सीमित रखकर नहीं किया जा सकता। साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों की प्रस्तुति के लिए उससे सम्बन्धित राष्ट्रीय परम्पराओं, सामाजिक परिस्थितियों, आर्थिक परिस्थितियों, उस युग की चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा तथा प्रवृत्ति का विश्लेषण आवश्यक है। देशकाल परिस्थिति भेद से समाज का स्वरूप परिवर्तित होता रहता है, साहित्य समाज का ही प्रतिबिम्ब होता है। स्पष्टतः समाज के स्वरूप के परिवर्तन का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है। इस प्रकार साहित्य का इतिहास न केवल विकासशील प्रक्रिया का उद्घाटन करता है, बल्कि इस क्रम में नए और पुराने संघर्ष को भी रेखांकित करता चलता
है।इसके अतिरिक्त इसमें साहित्य एवं समाज को प्रभावित करनेवाले विभिन्न आन्दोलनों, परिवर्तनों और प्रयोगों के सम्बन्ध का भी विवेचन होता है। साहित्य के इतिहास में रचना और रचनाकार की सृजनात्मक क्षमता को वर्तमान की कसौटी पर कसा जाता है। विश्वम्भर मानव के शब्दों में, ‘किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र नहीं होते, हृदय-चित्र और मस्तिष्क-चित्र ही होते हैं।’
—इसी पुस्तक से
Prithvi-Putra
- Author Name:
Dr. Vasudeva Sharan Agrawala
- Book Type:

- Description: "‘पृथिवी-पुत्र’ डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा समय-समय पर लिखे गए उन लेखों और पत्रों का संग्रह है, जिनमें जनपदीय दृष्टिकोण से साहित्य और जीवन के सम्बन्ध में कुछ विचार प्रकट किए गए थे। इस दृष्टिकोण की मूल प्रेरणा पृथिवी या मातृभूमि के साथ जीवन के सभी सूत्रों को मिला देने से उत्पन्न होती है। ‘पृथिवी-पुत्र’ का मार्ग साहित्यिक कुतूहल नहीं है, यह जीवन का धर्म है। जीवन की आवश्यकताओं के भीतर से ‘पृथिवी-पुत्र’ भावना का जन्म होता है। ‘पृथिवी-पुत्र’ धर्म में इसी कारण प्रबल आध्यात्मिक स्फूर्ति छिपी हुई है। ‘पृथिवी-पुत्र’ दृष्टिकोण हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व और विकास की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के साथ हमारा परिचय कराता है। पृथिवी को मातृभूमि और अपने आपको उसका पुत्र समझने का अर्थ बहुत गहरा है। यह एक दीक्षा है, जिससे नया मन प्राप्त होता है। पृथिवी-पुत्र का मन मानव के लिए ही नहीं, पृथिवी से सम्बन्धित छोटे-से तृण के लिए भी प्रेम से खुल जाता है। पृथिवी-पुत्र की भावना मन को उदार बनाती है। जो अपनी माता के प्रति सच्चे अर्थों में श्रद्धावान् है, वही दूसरे के मातृप्रेम से द्रवित हो सकता है। मातृभूमि को जो प्रेम करता है, वह कभी हृदय की संकीर्णता को सहन नहीं कर सकता। जनता के पास नेत्र हैं, लेकिन देखने की शक्ति उनमें साहित्यसेवी को भरनी है। भारतीय साहित्यसेवी का कर्तव्य इस समय कम नहीं है। उसे अपने पैरों के नीचे की दशांगुल भूमि से पृथिवी-पुत्र धर्म का सच्चा नाता जोड़कर उसी भावना और रस से सींच देना है।
Sahaj Sadhna
- Author Name:
Hazariprasad Dwivedi
- Book Type:

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Description:
पिछले पाँच दशकों में शैक्षणिक-विकास की दिशा में काफ़ी कुछ घटित हुआ है। सकारात्मक भी और नकारात्मक भी। जहाँ शिक्षा के प्रति हमारी सामाजिक रुचि में इज़ाफ़ा हुआ है, वहीं यह भी सत्य है कि शिक्षा और शिक्षण-पद्धतियों की गुणवत्ता में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आया है। साक्षरता का प्रतिशत बढ़ रहा है, लेकिन निरक्षरों की संख्या में भी कोई कमी नहीं आई है। हमारे शिक्षा-तंत्र का ढाँचा आज भी शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक बालक को भविष्य का कोई नक़्शा और एक सुदृढ़ व्यक्तित्व की गारंटी देने में असमर्थ है। जो शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, उनमें उनकी अपनी और स्कूलों की सम्पन्नता-विपन्नता से वर्ग-भेद की खाई भी कम नहीं हो पा रही है और जो शिक्षा के क्षेत्र से बाहर हैं, उन्हें इस तरफ़ आकर्षित करने के लिए जिस लगन, कर्मठता और संवेदनशीलता की आवश्यकता है, वह भी कहीं देखने में नहीं आती—न सरकारी प्रयासों में और न व्यक्तिगत या संस्थागत स्तर पर। इस पुस्तक में समाहित आलेखों की प्रमुख चिन्ता यही है।
लेखकद्वय ने प्राथमिक शिक्षा को अपने चिन्तन का केन्द्रीय बिन्दु बनाते हुए शिक्षा के पूरे परिदृश्य को समझने और विश्लेषित करने का प्रयास किया है। इन आलेखों के सम्बन्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इनकी रचना शिक्षा के क्षेत्र में व्यावहारिक स्तर पर काम करते हुए हुई; विभिन्न शिक्षाविदों, शिक्षकों तथा दूसरे सहयोगियों के साथ काम करते हुए जो अनुभव और सबक़ हासिल हुए, लेखकद्वय ने उन्हीं को इन आलेखों में पिरोने की कोशिश की है।
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