Tumhare Naam : Jan Nisar Akhtar ko Safia Akhtar ke khat
Author:
Safia AkhtarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
जाँ निसार अख़्तर और उनकी शरीके-हयात सफ़िया अख़्तर को साथ रहने का मौक़ा बहुत कम मिला। उस ज़माने में जब औरतों के लिए घर से बाहर जाकर काम करना बहुत आम बात नहीं थी, वे स्कूल में अपनी नौकरी करती रहीं और न सिर्फ़ अपनी और अपने बच्चों, बल्कि मुम्बई की फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी ज़मीन तलाश रहे जाँ निसार साहब के लिए भी सम्बल जुटाती रहीं।</p>
<p>ये ख़त उन्होंने इसी संघर्ष के दौरान लिखे, लेकिन ये ख़त सिर्फ़ उनके हाल-अहवाल की सूचना-भर नहीं देते, बल्कि वे एक बड़े सृजक की क़लम से उतरे शाहकार की तरह हमारे सामने आते हैं। ज़िन्दगी उन्हें कुछ और वक़्त देती तो निश्चय ही वे साहित्य की दुनिया को कुछ बड़ा देकर जातीं। इन ख़तों में उनकी मुहब्बत और हिम्मत के साथ-साथ उनकी और बेशक जाँ निसार अख़्तर की ज़िन्दगी खुलती जाती है, साथ ही उनका अपना दौर भी अपने तमाम स्याह-सफ़ेद के साथ रौशन होता जाता है। ये ख़त प्यार और हौसले से भरे एक दिल की अक़्क़ासी करते हैं। ये जादू की तरह असर करते हैं; इनका बेहद ताक़तवर और सधा हुआ ‘प्रोज़’ कहीं आपको रुकने नहीं देता, और इनकी तुर्श मिठास में डूबे-डूबे बारहा आपकी आँखें भर आती हैं।</p>
<p>उनके निधन के बाद जाँ निसार साहब ने उनके इन ख़तों को दो जिल्दों में प्रकाशित कराया—’हर्फ़े-आश्ना’ और ‘ज़ेरे-लब’। इस किताब में इन दोनों जिल्दों में संकलित ख़तों को दे दिया गया है।
ISBN: 9789389598636
Pages: 183
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: डॉ. लोहिया के चालीस साल के राजनीतिक जीवन में कभी उन्हें सही मायने में नहीं समझा गया। जब देश ने उन्हें समझा, लोगों की उनके प्रति चाह बढ़ी और उनकी ओर आशा की निगाहों से देखना शुरू किया तो अचानक ही वे चले गए। हाँ, जाते-जाते अपना महत्त्व लोगों के दिलों में जमा गए। लोहिया का महत्त्व! उन्हें गए इतना समय बीत गया, देश की राजनीति में कितना परिवर्तन आ गया, फिर भी आज नए सिरे से लोहिया की ज़रूरत महसूस की जा रही है। यह तो भावी इतिहास ही सिद्ध करेगा कि देश में आए आज के परिवर्तन में लोहिया की क्या भूमिका रही है। लगता है कि लोहिया ऐसे इतिहास-पुरुष हो गए हैं, जैसे-जैसे दिन बीतेंगे, उनका महत्त्व बढ़ता जाएगा। किसी लेखक ने ठीक ही लिखा है—“डॉ. राममनोहर लोहिया गंगा की पावन धारा थे, जहाँ कोई भी बेहिचक डुबकी लगाकर मन और प्राण को ताज़ा कर सकता है।” एक हद तक यह बड़ी वास्तविक कल्पना है। सचमुच लोहिया जी गंगा की धारा ही थे—सदा वेग से बहते रहे, बिना एक क्षण भी रुके, ठहरे। जब तक गंगा की धारा पहाड़ों में भटकती, टकराती रही, किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब मैदानी ढाल पर आकर वह तीव्र गति से बहने लगी तो उसकी तरंगों, उसके वेग, उसके हाहाकार की ओर लोगों ने चकित होकर देखा, पर लोगों को मालूम न था कि उसका वेग इतना तीव्र कि समुद्र से मिलने में उसे अधिक समय न लगा। शायद उस वेगवती नदी को ख़ुद भी समुद्र के इतने पास होने का अन्दाज़ा न था। यह इस देश, समाज और आधुनिक राजनीति का दुर्भाग्य है कि वह महान चिन्तक इस संसार से इतनी जल्दी चला गया। यदि लोहिया कुछ वर्ष और ज़िन्दा रहते तो निश्चय ही सामाजिक चरित्र और समाज संगठन में कुछ नए मोड़ आते। —ओंकार शरद
Sirhane Gramshi
- Author Name:
Arun Maheshwari
- Book Type:

- Description: फासिस्टों के नर-मेघी यातना और मृत्यु शिविरों से लेकर साइबेरिया के निर्वासन शिविरों और अमेरिकी जेल-औद्योगिक गठजोड़ वाले क़ैदखानों तक की कमोबेश एक ही कहानी है। नागरिक स्वतंत्रता की प्रमुख अमेरिकी कार्यकर्ता एंजिला डेविस की शब्दावली में—आज भी जारी दास प्रथा की कहानी। सुधारगृह कहे जानेवाले भारतीय जेल इनसे शायद ही अलग हैं। इटली में फासिस्टों के जेल में बीस साल के लिए सज़ायाफ़्ता मार्क्सवादी विचारक और कम्युनिस्ट नेता अन्तोनिओ ग्राम्शी ने सज़ा के दस साल भी पूरे नहीं किए कि उनके शरीर ने जवाब दे दिया। मृत्यु के एक महीना पहले उन्हें रिहा किया गया था। लेकिन जेल में बिताए इन चंद सालों के आरोपित एकान्त का उन्होंने इटली के इतिहास, उसकी संस्कृति, मार्क्सवादी दर्शन तथा कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में गहरे विवेचन के लिए जैसा इस्तेमाल किया, उसने उनकी जेल डायरी को दुनिया के श्रेष्ठतम जेल-लेखन के समकक्ष रख दिया। ख़ास तौर पर कम्युनिस्ट पार्टियों में शामिल लोगों के लिए तो इसने जैसे सोच-विचार के एक पूरे नए क्षेत्र को खोल दिया। ग्राम्शी का यह पूरा लेखन कम्युनिस्टों को, किसी भी मार्क्सवादी के लिए अपेक्षित, तमाम वैचारिक जड़ताओं से मानसिक तौर पर उन्मुक्त करने का एक चुनौती भरा लेखन है। एक ऐसे विचारक के साथ जेल में बिताए चंद दिनों की यह डायरी किसी भी पाठक के लिए, ख़ास तौर पर राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए बहुत उपयोगी अनुभव साबित हो सकती है। इसकी पारदर्शी भाषा, अन्त:स्थित सूक्ष्म वेदना और स्वच्छन्द विचार-प्रवाह ने इस पुस्तक को अपने प्रकार की एक अनूठी कृति का रूप दिया है।
Yugkarta Shastradnya Dr. Shantiswarup Bhatanagar
- Author Name:
Sudhir Phakatkar
- Book Type:

- Description: स्वातंत्र्यपूर्व भारतातल्या पंजाब प्रांताच्या टोकाला असलेल्या भेरा गावात त्यांचा जन्म झाला. बालपणीच वडिलांचं छत्र हरपलं. आई, मातुल आजोबा आणि संपूर्ण शैक्षणिक कारकिर्दीत वेळोवेळी लाभलेल्या सहकार्यशील शिक्षकांमुळे तो परदेशात जाऊन डॉक्टरेटपर्यंत शिकले. ऐन स्वातंत्र्य लढ्याच्या कालखंडात मायदेशी परत आले. ते होते ‘डॉक्टर शांतिस्वरूप भटनागर'. भारतात आल्यावर संशोधनाबरोबरच पाश्चात्य वैज्ञानिकांशी सुसंवाद साधत त्यांनी आपल्या देशात राष्ट्रीय प्रयोगशाळांची पायाभरणी केली. स्वातंत्र्यपूर्व आणि स्वातंत्र्यानंतरच्या कालखंडातल्या वैज्ञानिक प्रगतीसाठी समन्वय साधणाऱ्या युगकर्त्या शास्त्रज्ञाचा हा धडाडीपूर्ण जीवनप्रवास... भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यादरम्यान अपरिचित राहिलेल्या एका वैज्ञानिकाच्या प्रेरणादायी आयुष्याचं हे चित्रण आहे. हे खास पुस्तक इतिहासाचं दालन नक्कीच किलकिलं करणारं आहे. आज प्रगतीपथावर असलेल्या आपल्या देशात वैज्ञानिक दिशा सुस्पष्ट होण्यासाठी आवर्जून वाचायला पाहिजे असे पुस्तक... Yugkarta Shastradnya Dr. Shantiswarup Bhatanagar | Sudhir Phakatkar युगकर्ता शास्त्रज्ञ डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर : सुधीर फाकटकर
Karavas Ke Din
- Author Name:
Sherjung
- Book Type:

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Description:
शेरजंग की अंग्रेज़ी में लिखी पुस्तक ‘प्रिज़न डेज़’ और निर्मला द्वारा किए गए उसके अत्युत्तम अनुवाद ने मेरे मन को बहुत प्रभावित किया है। यह पुस्तक एक अपूर्व व्यक्तित्व के कठोर और कड़ुवे अनुभवों का संकलन है। अभी तक मुझे शेरजंग के सन् 1947 के पूर्व की युवावस्था की सामान्य जानकारी ही थी। अब यह मुझे अपनी मूर्खता लगती है कि मैंने यह जानने की कभी कोशिश ही नहीं की कि वे कौन–सी घटनाएँ व अनुभव थे, जिन्होंने उनके व्यक्तित्व को इतना व्यवस्थित और प्रभावशाली बनाया था। मुझे यह सोचकर विस्मय होता है कि यह सब झेलने और देखने के बाद भी उनके व्यक्तित्व में कैसे वह निखार और सम्पन्नता आई जिसे सन् 1947 में मैंने देखा और अनुभव किया।
पुस्तक को अंग्रेज़ी में पढ़ने के पश्चात् मैं सोचने लगा था कि क्या शेरजंग अपनी पुस्तक में जो कहना चाहते थे, उसका अनुवादक उसे ठीक–ठीक पकड़ पाएगा। क्या वह उनके विचारों और भावों को सही तरह से व्यक्त कर पाएगा? तब मैंने निर्मला के अनुवाद को पढ़ा और देखा कि उन्होंने यथावत् वही लिखा है जो शेरजंग स्वयं कहना चाहते थे।
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