Gudia Bhitar Gudiya
Author:
Maitreyi PushpaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 319.2
₹
399
Unavailable
यह है मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का दूसरा भाग। ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ के बाद ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’। आत्मकथाएँ प्रायः बेईमानी की अभ्यास-पुस्तिकाएँ लगती हैं क्योंकि कभी सच कहने की हिम्मत नहीं होती तो कभी सच सुनने की। अक्सर लिहाज़ में कुछ बातें छोड़ दी जाती हैं तो कभी उन्हें बचा-बचाकर प्रस्तुत किया जाता है। मैत्रेयी ने इसी तनी रस्सी पर अपने को साधते हुए कुछ सच कही हैं—अक्सर लक्ष्मण-रेखाओं को लाँघ जाने का ख़तरा भी उठाया है।
मैत्रेयी ने डॉ. सिद्धार्थ और राजेन्द्र यादव के साथ अपने सम्बन्धों को लगभग आत्महंता बेबाकी के साथ स्वीकार किया है। यहाँ सबसे दिलचस्प और नाटकीय सम्बन्ध हैं पति और मैत्रेयी के बीच, जो पत्नी की सफलताओं पर गर्व और यश को लेकर उल्लसित हैं मगर सम्पर्कों को लेकर ‘मालिक’ की तरह सशंकित।
घर-परिवार के बीच मैत्रेयी ने वह सारा लेखन किया है जिसे साहित्य में बोल्ड, साहसिक और आपत्तिजनक इत्यादि न जाने क्या-क्या कहा जाता है और हिन्दी की बदनाम मगर अनुपेक्षणीय लेखिका के रूप में स्थापित हैं।
‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ एक स्त्री के अनेक परतीय व्यक्तित्व और एक लेखिका की ऐसी ईमानदार आत्म-स्वीकृतियाँ हैं जिनके साथ होना शायद हर पाठक की मजबूरी है।
हाँ, अब आप सीधे मुलाक़ात कीजिए ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ यानी साहित्य की अल्मा कबूतरी के साथ।
ISBN: 9788126722426
Pages: 352
Avg Reading Time: 12 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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कथाकार और उपन्यासकार के रूप में शिवानी की लेखनी ने स्तरीयता और लोकप्रियता की खाई को पाटते हुए एक नई ज़मीन बनाई थी, जहाँ हर वर्ग और हर रुचि के पाठक सहज भाव से विचरण कर सकते थे। उन्होंने मानवीय संवेदनाओं और सम्बन्धगत भावनाओं की इतने बारीक और महीन ढंग से पुनर्रचना की कि वे अपने समय में सबसे ज़्यादा पढ़े जानेवाले लेखकों में एक होकर रहीं।
कहानी, उपन्यास के अलावा शिवानी ने संस्मरण और रेखाचित्र आदि विधाओं में भी बराबर लेखन किया। अपने सम्पर्क में आए व्यक्तियों को उन्होंने करीब से देखा, कभी लेखक की निगाह से तो कभी मनुष्य की निगाह से, और इस तरह उनके भरे-पूरे चित्रों को शब्दों में उकेरा और कलाकृति बना दिया।
इस पुस्तक में ‘वाग्देवी का अदूभुत वरदान हे विदेशिनी!’, ‘हम तुम्हें पहचानते हैं’,‘...मुरलिया तू कौन गुमान भरी? जो मिले सुर स्वर-लय नटिनी’, ‘के रहीम अब बिरछ करूँ’, ‘माताहारी?’, ‘नदी जो मरुस्थल में खो गई’, ‘स्वरलय नटिनी’, ‘ननिया ने हाय राम’, ‘एक थी रामरती’, ‘चिरस्थायी शेर वन्दन’, ‘दाना मियाँ?’, ‘मत तोड़ो चटकाय’, ‘परमतृप्ति जन्मदिन’ आदि संस्मरण और रेखाचित्र शामिल हैं। आशा है, शिवानी के कथा-साहित्य के पाठकों को उनकी ये रचनाएँ भी पसन्द आएँगी।
Jannayak Atalji (Sampoorn Jeevani)
- Author Name:
Kingshuk Nag
- Book Type:

- Description: सहृदय-दूरदर्शी राजनेता, संवेदनशील कवि। मित्रों और विरोधियों द्वारा समान रूप से चाहे जानेवाले अटल बिहारी वाजपेयी सच में एक जननायक हैं। राजनीतिक सफर का प्रारंभ भारतीय जनसंघ के सबसे पहले सदस्यों में से एक के रूप में किया। फिर 1960 के दशक के आखिर में वाजपेयी एक प्रमुख विपक्षी दल के सांसद के रूप में निखरकर सामने आए। थोड़े समय के लिए सत्ता में आई जनता सरकार में विदेश मंत्री बने और 1999 में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व किया, जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया। यह उपलब्धि और विशिष्ट बन जाती है, क्योंकि एक गठबंधन सरकार ने ऐसा कर दिखाया था। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे जनसंघ के दिग्गजों के शिष्य रहे वाजपेयी जवाहरलाल नेहरू की प्रशंसा के पात्र बने; जिनसे उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने सलाह-मशवरा किया; जिनकी आलोचना करने में वह कभी पीछे नहीं रहे; और उग्र मजदूर संघ के नेता जॉर्ज फर्नांडिस से दोस्ती की, जो आगे चलकर उनके सहयोगी भी बने। इस प्रकार उन्होंने सभी प्रकार के राजनीतिक विचारों को साथ लेकर चलने की अद्भुत क्षमता प्रदर्शित की। उन्हीं के नेतृत्व में राजग सरकार ने छह साल में भारत के नवनिर्माण की नींव रखने का काम किया। वरिष्ठ पत्रकार किंगशुक नाग इस पुस्तक में भारतीय राजनीतिक क्षितिज के जाज्वल्यमान नक्षत्र जननायक अटलजी के संपूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व को रेखांकित कर रहे हैं। उनके जीवन को संपूर्णता में जानने हेतु एक प्रामाणिक पुस्तक।
Murdahiya
- Author Name:
Tulsi ram
- Book Type:

- Description: ‘मुर्दहिया’ हमारे गाँव धरमपुर (आज़मगढ़) की बहुद्देशीय कर्मस्थली थी। चरवाही से लेकर हरवाही तक के सारे रास्ते वहीं से गुज़रते थे। इतना ही नहीं, स्कूल हो या दुकान, बाज़ार हो या मन्दिर, यहाँ तक कि मज़दूरी के लिए कलकत्ता वाली रेलगाड़ी पकड़ना हो, तो भी मुर्दहिया से ही गुज़रना पड़ता था। हमारे गाँव की ‘जिओ-पॉलिटिक्स’ यानी ‘भू-राजनीति’ में दलितों के लिए मुर्दहिया एक सामरिक केन्द्र जैसी थी। जीवन से लेकर मरन तक की सारी गतिविधियाँ मुर्दहिया समेट लेती थी। सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुर्दहिया मानव और पशु में कोई फ़र्क़ नहीं करती थी। वह दोनों की मुक्तिदाता थी। विशेष रूप से मरे हुए पशुओं के मांसपिंड पर जूझते सैकड़ों गिद्धों के साथ कुत्ते और सियार मुर्दहिया को एक कला-स्थली के रूप में बदल देते थे। रात के समय इन्हीं सियारों की ‘हुआँ-हुआँ’ वाली आवाज़ उसकी निर्जनता को भंग कर देती थी। हमारी दलित बस्ती के अनगिनत दलित हज़ारों दु:ख-दर्द अपने अन्दर लिए मुर्दहिया में दफ़न हो गए थे। यदि उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती, उसका शीर्षक ‘मुर्दहिया’ ही होता। मुर्दहिया सही मायनों में हमारी दलित बस्ती की ज़िन्दगी थी। ज़माना चाहे जो भी हो, मेरे जैसा कोई अदना जब भी पैदा होता है, वह अपने इर्द-गिर्द घूमते लोक-जीवन का हिस्सा बन ही जाता है। यही कारण था कि लोकजीवन हमेशा मेरा पीछा करता रहा। परिणामस्वरूप मेरे घर से भागने के बाद जब ‘मुर्दहिया’ का प्रथम खंड समाप्त हो जाता है, तो गाँव के हर किसी के मुख से निकले पहले शब्द से तुकबन्दी बनाकर गानेवाले जोगीबाबा, लक्कड़ ध्वनि पर नृत्यकला बिखेरती नटिनिया, गिद्ध-प्रेमी पग्गल बाबा तथा सिंघा बजाता बंकिया डोम जैसे जिन्दा लोक पात्र हमेशा के लिए गायब होकर मुझे बड़ा दु:ख पहुँचाते हैं। —भूमिका से
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