Pratibimban : Vyakti, Vichar aur Samaj
Author:
Ramsharan JoshiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Unavailable
रामशरण जोशी का लेखन-संसार एक आयामी नहीं, विविध आयामी है। मूलतः पत्रकार होने के बावजूद लेखक जोशी ने अपनी चिन्तन व लेखन-परिधि को निरन्तर विस्तार दिया है। वे पत्रकार होने के साथ-साथ समाजविज्ञानी, सक्रिय समाजकर्मी, मीडिया शिक्षक और सतत हस्तक्षेपधर्मी हैं। सातवें दशक में आदिवासियों, बन्धक श्रमिकों जैसी उत्पीड़ित व उपेक्षित मानवता पर उनका ज़मीनी लेखन हिन्दी जगत में चर्चित रहा है। रीचा ज़िले की ‘लँगड़े गाँव की कहानी’ जैसे उनके अध्ययन की गूँज संसद तक पहुँची। 2009 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘अर्जुन सिंह : एक सहयात्री इतिहास का’ राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात हो चुकी है।</p>
<p>रामशरण जोशी एक प्रतिबद्ध लेखक हैं। वामपन्थी होने के बावजूद उन्होंने ‘व्यक्ति, विचार और समाज’ को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा है। प्रस्तुत पुस्तक में उनकी बहुरंगी दृष्टि एवं सरोकारों की छटा उद्घाटित हुई है। जहाँ इसमें बॉलीवुड का अभिनेता है, वहीं समाजशास्त्री, लेखक, पत्रकार, प्रशासक जैसे पात्र भी हैं। इन हैसियतमन्दों के बीच एक अकिंचित्, अजाना पात्र भी मौजूद है—‘छीतर खाँ’। इस पात्र के माध्यम से लेखक ने अल्पसंख्यक वर्ग और भारतीय राज्य के आपसी रिश्तों की सर्जनात्मक रूप में पड़ताल की है। पुस्तक में सम्मिलित विमर्शमूलक समीक्षाओं में प्रसिद्ध समाजशास्त्री <br />डॉ. पी.सी. जोशी, अंग्रेज़ी के विख्यात पत्रकार शामलाल, मानवशास्त्री व प्रशासक डॉ. कुमार सुरेश सिंह जैसे व्यक्तित्वों के लेखन की थाह भी ली गई है। ‘अपने-अपने नंदीग्राम’, ‘बूधन की मुक्ति का सवाल’, ‘हरसूद की डूब’ जैसे लेखों में विकास की विसंगतियों से साक्षात्कार कराया है।</p>
<p>लेखक जोशी ने राजेन्द्र यादव, मनोहर श्याम जोशी, डॉ. श्यामाचरण दुबे, पंकज बिष्ट, इब्बार रब्बी, अरुण प्रकाश, सुदीप बनर्जी जैसे रचनाकारों के साथ अपने सम्बन्धों को आत्मीय लेखन के साथ याद किया है। इस संग्रह में लेखक की 1960 से इस सदी के पहले दशक तक की अनुभव-राशि छितरी हुई है।
ISBN: 9788126718856
Pages: 272
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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व्यक्ति-विकास की एक पारम्परिक धारणा रही है—या तो वह आनुवंशिक से होता है या परिवेशजन्य। लेकिन इससे परे जाकर मनुष्य-विकास की यात्रा में यदि किसी पर व्यक्ति, विचार या ग्रन्थ का प्रभाव होता है तो वह वंश और परिवेश को भी लाँघकर एक अपनी मिसाल क़ायम करता है। इसका जीता-जागता उदाहरण डॉ. भालचंद्र मुणगेकर की यह आत्मकथा है : ‘मेरी हक़ीक़त’। यह आत्मकथा लेखक के होश सँभालने तक के अठारह वर्ष की ऐसी विकासगाथा है जो ‘दलित’ सीमा को लाँघकर मनुष्य की जिजीविषा का एक अदम्य स्रोत बनकर उभर आती है।
दलित बस्ती में जन्म, ‘युवक क्रान्ति दल’ में जुझारू युवापन। प्रौढ़ावस्था में डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर, महात्मा फुले, कार्ल मार्क्स, वि.स. खांडेकर जैसी शख़्सियतों के जीवन, साहित्य और दर्शन का उनके जीवन पर अमिट प्रभाव पड़ा। रिजर्व बैंक के वरिष्ठ अधिकारी, अर्थशास्त्र के प्राध्यापक, मुम्बई विश्वविद्यालय के पहले दलित कुलपति और उससे भी आगे जाकर भारतवर्ष के योजना आयोग के सदस्य बनने तक का करिश्मा कोई जादुई चमत्कार नहीं है, बल्कि इसके पीछे जाति और अस्पृश्यता निर्मूलन, स्त्री-पुरुष समानता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतांत्रिक समाजवाद और मानवतावाद जैसे मूल्यों की पक्षधरता का कैनवस विस्तार लिए हुए है।
‘मेरी हक़ीक़त’ आत्मकथा व्यक्ति-विकास में मूल्यों, विचारों, व्यक्ति-प्रभावों, जीवनधारा व दर्शन की भूमिका को रेखांकित करती है और इसीलिए न सिर्फ़ वह प्रेरक बन जाती है अपितु पठनीय भी।
—सुनीलकुमार लवटे
Caged . . . Memories Have Names
- Author Name:
Gulzar +1
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- Description: This is my Abbu…my father. I never used to call him Abbu … I love to call him by this name in my memories of him…always. There’s so much ‘mamta’ in the word ma. More than in a mother herself. Just saying the word starts off a churning in the navel. Intimate, subtle and deeply personal, Caged … Memories Have Names is probably Gulzar Saab’s first autobiography in verse. Gulzar Saab ruminates and writes in rainbow colours. From Rumi to Pablo Neruda and Jibananda Das, among others, have coloured him in myriad of hues. With this he has painted the portraits of Birju Maharaj, Mehdi Hasan, Pancham, Asha Bhosle in words. Their palpable presence, thoughts and words are etched in Gulzar Saab’s existence. Then there are people, who have showered his life with love, affection with multitude of emotions: Meghna, Raakhee ji, Vishal Bhardwaj, and Javed Akhtar Saab, to name a few. And, words that remained unsaid to Abbu, search for his Ma within his own existence, they are the silken bonds of life. Gulzar Saab has ‘caged’ them deep inside his heart. They are for now … and … forever.
Main Bonsai Apane Samay Ka : Ek Katha Aatambhanjan Ki
- Author Name:
Ramsharan Joshi
- Book Type:

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रामशरण जोशी व्यक्ति नहीं, संस्था हैं। बहुआयामी शख़्स हैं; पेपर हॉकर से सफल पत्रकार; श्रमिक यूनियनकर्मी से पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रशासक; यायावर विद्यार्थी से प्रोफ़ेसर; बॉलीवुड के चक्कर; नाटकों में अभिनय और बाल मज़दूर से राष्ट्रीय बाल भवन, दिल्ली के अध्यक्ष पद तक का सफ़र स्वयं में चुनौतीपूर्ण उपलब्धि है।
अलवर में जन्मे, दौसा ज़िले (राजस्थान) के मामूली गाँव बसवा की टाटपट्टी से उठकर देश-विदेश की अहम घटनाओं का कवरेज, एशिया, अफ़्रीका, यूरोप, अमेरिका आदि देशों की यात्राएँ उनके व्यक्तित्व को बहुरंगी अनुभवों से समृद्ध करती हैं। कालाहांडी, बस्तर, सरगुजा, कोटड़ा जैसे वंचन-विपन्नता के सागर से लेकर दौलत के रोम-पेरिस-न्यूयॉर्क टापुओं को खँगाला है जोशी जी ने। राजधानी दिल्ली की सड़कों को नापते हुए राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों जैसे अतिविशिष्टजनों के साथ देश-विदेश को नापा है। पत्रकार जोशी ने ख़ुद को संसद-विधानसभाओं की प्रेस दीर्घाओं तक ही सीमित नहीं रखा, वरन् मैदान में उतरकर जोख़िमों से मुठभेड़ भी की; 1971 के भारत-पाक युद्ध का कवरेज; श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान जैसे देशों के संकटों पर घटनास्थल से लेखन; साम्प्रदायिक व जातीय हिंसाग्रस्त मानवता की त्रासदियों के मार्मिक चित्रण में जोशी जी के सरोकारों की अनुगूँज सुनाई देती है।
यक़ीनन यह यात्रा सपाट नहीं रही है। इसमें अनेक उतार-चढ़ाव आए हैं। उड़ानों पर ही सवार नहीं रहा है लेखक। वह गिरा है, फिसला भी है, आत्मग्लानि का शिकार हुआ है, स्वयं से विश्वासघात किया है उसने। फिर भी वह राख के ढेर से उठा है। वर्ष 2004 में प्रकाशित मासिक ‘हंस’ में उनके दो आलेख—‘मेरे विश्वासघात’ व ‘मेरी आत्मस्वीकृतियाँ’—किसी मील के पत्थर से कम नहीं रहे हैं। बेहद चर्चित-विवादास्पद। हिन्दी जगत में भूचाल आ गया था। पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले। इस आत्मकथा में रामशरण जोशी ने ख़ुद के परखचे उड़ाने की फिर से हिमाकत की है। नहीं बख़्शा ख़ुद को, शुरू से अन्त तक। तभी सम्पादक-कथाकार राजेन्द्र यादव जी ने एक बार लेखक के बारे में लिखा था—‘‘इधर उनकी संवेदनाएँ रचनात्मक अभिव्यक्तियों के लिए कसमसाने लगी हैं और वे अपने अनुभवों को कथा-कहानी या आत्म-स्वीकृतियों का रूप देने की कोशिश कर रहे हैं। पता नहीं क्यों, मुझे लगता है कि लम्बी बीहड़ भौतिक और बौद्धिक यात्राओं के बाद वे उस मोड़ पर आ गए हैं जिसे नरेश मेहता ने ‘अश्व की वल्गा लो अब थाम, दिख रहा मानसरोवर’ कहकर पहचाना था। आख़िर रामशरण जोशी ने भी अपनी शुरुआत ‘आदमी, बैल और सपने’ जैसी कथा-पत्रकारिता से ही तो की।’’
सतह से सवाल उठेगा ही, आख़िर क्यों पढ़ें इस बोनसाई को? सच! ड्राइंग रूम की शोभा ही तो है यह जापानी फूल। कहाँ महकता-दमकता है? इसका आकार न बढ़ता है, न ही घटता है। बस! यथावत् रहता है बरसों तक अपने ही वृत्त में यानी स्टेटस को! कितना आत्म-सन्तप्त रहता होगा अपनी इस स्थिति पर, यह कौन जानता है? यही नियति है बोनसाई की उर्फ़ उस मानुष की जो अपने वर्ग की शोभा तो होता है लेकिन अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पाता। वर्गीय मायाजाल-मुग्धता में जीता रहता है, और उन लोगों का दुर्ग सुरक्षित-मज़बूत रहता है। व्यवस्थानुमा ड्राइंग रूम में निहत्था सजा बोनसाई टुकुर-टुकुर देखता रहता है।
यह आत्मकथा रामशरण जोशी जी की ज़रूर है लेकिन इसमें समय-समाज और लोग मौजूद हैं। दूसरे शब्दों में, ख़ुद के बहाने, ख़ुद को चीरते हुए व्यवस्था को परत-दर-परत सामने रखा है। सो, कथा हम सब की है।
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