Pratinidhi Kahaniyan : Phanishwarnath Renu
Author:
Phanishwarnath RenuPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Short-story-collections0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कथा-साहित्य में रेणु उन थोड़े-से कथाकारों में अग्रगण्य हैं जिन्होंने भारतीय ग्रामीण जीवन का उसके सम्पूर्ण आन्तरिक यथार्थ के साथ चित्रण किया है। स्वाधीनता के बाद भारतीय गाँव ने जिस शहरी रिश्ते को बनाया और निभाना चाहा है, रेणु की नज़र उससे होनेवाले सांस्कृतिक विघटन पर भी है जिसे उन्होंने गहरी तकलीफ़ के साथ उकेरा है। मूल्य-स्तर पर उससे उनकी आंचलिकता अतिक्रमित हुई है और उसका एक जातीय स्वरूप उभरा है।
वस्तुतः ग्रामीण जन-जीवन के सन्दर्भ में रेणु की कहानियाँ अकुंठ मानवीयता, गहन रागात्मकता और अनोखी रसमयता से परिपूर्ण हैं। यही कारण है कि उनमें एक सहज सम्मोहन और पाठकीय संवेदना को परितृप्त करने की अपूर्व क्षमता है। मानव-जीवन की पीड़ा और अवसाद, आनन्द और उल्लास को एक कलात्मक लय-ताल सौंपना किसी रचनाकार के लिए अपने प्राणों का रस उँडेलकर ही सम्भव है और रेणु ऐसे ही रचनाकार हैं। इस संग्रह में उनकी प्रायः सभी महत्वपूर्ण कहानियाँ संकलित हैं।
ISBN: 9788126707874
Pages: 144
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Saheliyaan Aur Anya Kahaniyaan
- Author Name:
Priyadarshan
- Book Type:

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Description:
सहेलियाँ और अन्य कहानियाँ कवि-कथाकार प्रियदर्शन का नया कहानी-संग्रह है। संग्रह में शामिल ज्यादातर कहानियों का विषय आज की स्त्री है जो बदल रही है। वैसे तो ‘सहेलियाँ’ एक कहानी का शीर्षक है, लेकिन उसे उन तमाम स्त्रियों की सामूहिकता के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है जो समाज के अलग-अलग कोनों में बदलाव की अपनी-अपनी लड़ाइयाँ लड़ रही हैं—कहीं परिवार नामक संस्था से, कहीं पति नामक संस्था से, कहीं समाज नामक संस्था से। परिवर्तन और अपने सम्मान की लड़ाई में वे सब साथ हैं।
बदलाव की प्रक्रियाएँ भारतीय समाज में और भी कई तरह से चल रही हैं। तकनीक है, राजनीति है, हमारे आपसी रिश्ते हैं, आगे बढ़ने की, सफल होने की हड़बड़ियाँ हैं—बदलाव हर जगह है। मध्यवर्गीय ऊब और कुंठाओं की परहन्ता कामनाओं को धर्म का एक नया बहाना अभी दिया ही जा रहा है। इन कहानियों में किसी न किसी तरह यह सब आता है। लेकिन अच्छे पर भरोसा और मनुष्य की सहज सकारात्मकता से कथाकार कहीं भी निराश नहीं है। स्त्रियों की दुनिया में होनेवाले नए प्रस्थान तो उसकी उम्मीद के ठिकाने हैं ही, साधारण जन की जिजीविषा भी उसे हताश नहीं होने देती।
लेकिन ख़ुद की निर्मम आलोचना कथाकार को फिर भी एक ऐसा काम लगती है जिसे किया ही जाना चाहिए। ‘जब कहानी मिलती है’, ‘लाश’ और ‘चीख’, ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें तमाम सुख-सुविधाओं, साधनों और सामर्थ्यों से लैस एक आधुनिक व्यक्ति अपना विवेचन करता है, सामाजिक-मानवीय कर्तव्यों से विमुख होने पर ख़ुद को लज्जित महसूस करता है, और इस तरह बताता है कि एक निर्णायक बदलाव जहाँ स्थगित पड़ा है, वह हमारा स्वयं का अन्तस है।
भाषा के अपव्यय से बचते हुए तथ्य और कथ्य से सम्पन्न गद्य प्रियदर्शन को हमेशा पठनीय बनाता है। सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणियों में भी, ये तो फिर कहानियाँ हैं; पढ़ना शुरू करेंगे तो पूरा करके ही उठेंगे। बेशक कुछ ज़्यादा मनुष्य होकर।
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