Lahoo Mein Fanse Shabd
Author:
Shyam KashyapPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
हिन्दी में युवा कविता के बाद नए कवियों की एक पीढ़ी आई थी, जिसने आत्मीयता और घरेलूपन से भरी कविताएँ लिखकर हिन्दी कविता की उदासी और एकरसता से भरी हुई दुनिया में नवीन स्फूर्ति का संचार किया। श्याम कश्यप उस पीढ़ी के अन्यतम सदस्य थे, जिनकी कविताएँ ‘गेरू से लिखा हुआ नाम’ में संगृहीत हुईं और इस तरह अपनी पहचान बनाई। लेकिन प्रचार-प्रसार के तंत्र को मुँह चिढ़ानेवाले श्याम ने महत्त्व काव्य-साधना को दिया, उतना अपने यशो-विस्तार को नहीं, जिसके परिणामस्वरूप उनके अपने पाठक भी उनसे किंचित् निराश होते रहे। लेकिन पहले संग्रह के बाद प्रकाशित होनेवाला उनका यह दूसरा संग्रह ‘लहू में फँसे शब्द’ इस बात का प्रमाण है कि इस बीच भले ही उनकी कविताएँ ठिकाने से उनके पाठकों तक नहीं पहुँचीं, वे कविता के साथ निरन्तर रहे हैं और कविता लगातार उनका पीछा करती रही है।</p>
<p>स्वभावतः श्याम की इस संग्रह की कविताओं में प्रत्यक्ष होनेवाला विकास हमें सम्मोहित करता है। श्याम सर्वप्रथम प्रकृति के कवि हैं, फिर मनुष्य के, फिर समाज के, फिर सम्पूर्ण मनुष्यता क्या, सम्पूर्ण पृथ्वी के। उनकी ऐन्द्रिय संवेदना जिन विलक्षण और उदात्त बिम्बों में अभिव्यक्त होती है, वे हमारे भीतर उस अवकाश की सृष्टि करते हैं, जो मानवीय आत्मा के पंख फैलाने के लिए आवश्यक है और जो वर्तमान युग में लगातार कम होता जा रहा है। जहाँ तक मनुष्य से लेकर सम्पूर्ण पृथ्वी तक की बात है, श्याम ने अपनी कविताओं में उसके अनेकानेक आयामों को समेटा है। इन तमाम वस्तुओं के प्रति एक गहन चिन्ता का भाव ही नहीं है इनमें, वह आस्था भी है, जो निराशा के बादलों को इन्द्रधनुषी किरणों से तार-तार कर देती है।</p>
<p>निस्सन्देह श्याम सटीक वर्णन और चित्रण के कवि हैं, लेकिन ‘लहू में फँसे शब्द’ की कविताएँ पढ़ते हुए आप जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाएँगे, ऐन्द्रिय संवेदना से भावों में और भावों से फिर विचारों में उतरते जाएँगे, जहाँ की दुनिया उस अमूर्तता से युक्त है, जिसके बिना कोई कला-कृति सार्थक नहीं हो सकती। कहने की आवश्यकता नहीं कि आज का यांत्रिकता और औपचारिकता से भरा हुआ दौर जहाँ हमें निरर्थकता के किनारे तक पहुँचा रहा है, श्याम की ये कविताएँ जिनमें शब्द, बिम्ब, भाव और विचार सभी विस्फोट करते हैं, हमारे सामने एक उजास से भरे हुए क्षितिज का उन्मीलन करती हैं। प्रसाद के शब्दों को ज़रा-सा बदलकर कहें, तो ‘तुमुल कोलाहल-कलह में यह हृदय की बात रे मन!’
ISBN: 9788126722082
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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सुमन केशरी की कविताएँ मौजूदा काव्य-परिदृश्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाती हैं। इनमें समकालीन दौर की बेचैनियाँ भी हैं और परम्परा का परीक्षण और पुनर्परीक्षण भी। ये कविताएँ यह एहसास कराती हैं कि याज्ञवल्क्य और गार्गी के बीच सम्बन्ध का व्याकरण बदल गया है। गार्गी अब मनचाहे सवाल कर सकती है और उसे याज्ञवल्क्य के उत्तर की दरकार भी नहीं।
हिन्दी में समकालीन कवयित्रियों की जो पीढ़ी पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों से सक्रिय है और अपनी जगह बना चुकी है, सुमन केशरी उन्हीं की समवयस्क हैं। इस हिसाब से उनका पहला काव्य-संकलन देर से आ रहा है, हालाँकि कविताएँ वे काफ़ी पहले से लिख रही हैं। इस देरी की क्या वजह हो सकती है? शायद यह कि अभी भी भारतीय समाज में आम औरत पर परिवार और बच्चों के पालने के इतने दबाव हैं कि उसकी सर्जनात्मकता के पूर्ण प्रस्फुटन में अन्तराल आते रहते हैं। सम्भवतः यही कारण है कि अपनी एक कविता में सुमन केशरी यह कहती हैं—सृजन के बीहड़ों में मैंने क़दम रखा। कई साल बाद। रो...रोकर...। यह काव्य-पंक्ति सिर्फ़ एक कवयित्री का वक्तव्य-भर नहीं है, बल्कि इसके गहरे सामाजिक आशय हैं। भारतीय समाज में औरत के लिए घर के बाहर की सृजनात्मक दुनिया अभी भी एक बीहड़ प्रदेश है।
इस संग्रह की एक अन्य विशेषता इसमें हिन्दी कविता की कई स्मृतियों का मौजूद होना है। इनको पढ़ते हुए कभी निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ की याद आती है तो कभी विजयदेव नारायण साही की कविताएँ। आधुनिक हिन्दी काव्य-परम्परा का एक मिज़ाज भारतीय मिथकों को नए प्रसंग में जाँचने-परखने का भी रहा है। इस संग्रह में भी ऐसी कई कविताएँ हैं। पर ऐसी कविताएँ भी यहाँ हैं जो हमारे समकालीन अनुभवों का हिस्सा हैं, जैसे ‘सिपाही’, जिसमें अनाम से दिखनेवाले वर्दीधारी की ज़िन्दगी की वे परतें खुलती हैं जिनके बारे में हम अक्सर सजग नहीं होते। जिन्हें हम रोज़ गली-मुहल्ले, सड़क, बाज़ार या सीमा पर देखते हैं, मगर सिर्फ़ उनकी उपस्थिति के बारे में जानते हैं, उनके एहसासों से वाक़िफ़ नहीं होते। इसी तरह ‘बा और बापू’ कविता गांधी और कस्तूरबा के निजी सम्बन्धों को एक नई व्याप्ति देती है जहाँ एक ऐतिहासिक लड़ाई में शामिल हो व्यक्ति एक ऐसी विडम्बना में उलझकर रह जाते हैं जहाँ निजी दुखान्त को प्राप्त होता है।
—रवीन्द्र त्रिपाठी
Pratinidhi Kavitayen : Bhawani prasad Mishra
- Author Name:
Bhawani Prasad Mishra
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बीसवीं सदी के तीसरे दशक से लेकर नौवें दशक की शुरुआत तक कवि भवानी प्रसाद मिश्र की अनथक संवेदनाएँ लगातार सफ़र पर रहीं।
हिन्दी भाषा और उसकी प्रकृति को अपनी कविता में सँजोता और नए ढंग से रचता यह कवि न केवल घर, ऑफ़िस या बाज़ार, बल्कि समूची परम्परा में रची-पची और बसी अन्तर्ध्वनियों को जिस तरकीब से जुटाता और उन्हें नई अनुगूँजों से भरता है, वे अनुगूँजें सिर्फ़ कामकाजी आबादी की अनुगूँजें नहीं हैं, उस समूची आबादी की भी हैं जिसमें सूरज, चाँद, आकाश-हवा, नदी-पहाड़, पेड़-पौधे और तमाम चर-अचर जीव-जगत आता है। स्वभावत: इस सर्जना में मानव-आत्मा का सरस-संगीत अपनी समूची आत्मीयता और अन्तरंगता में सघन हो उठा है। कविता में मनुष्य और लोक-प्रकृति और लोक-जीवन की यह संयुक्त भागीदारी एक ऐसी जुगलबन्दी का दृश्य रचती है जिसे केवल निराला, किंचित् अज्ञेय और यत्किंचित् नागार्जुन जैसे कवि करते हैं।
कविता के अनेक रूपों, शैलियों और भंगिमाओं को समेटे यह कवि पारम्परिक रूपों के साथ-साथ नवीनतम रूपों का जैसा विधान रचता है, वह उसकी सामर्थ्य की ही गवाही देता है। मुक्त कविता, गीत-ग़ज़ल, जनगीत, खंडकाव्य, कथा-काव्य, प्रगीत कविता के साथ उसकी सीधी-सादी प्रत्यक्ष भावमयी शैली के साथ आक्रामक, व्यंग्य और उपहासमयी, सांकेतिक और विडम्बनादर्शी भंगिमाएँ भी यहाँ मौजूद हैं। कई एक साथी कवियों में जैसी एकरसता देखी जाती है, भवानी प्रसाद मिश्र ने उसे अपनी भंगिम-विपुलता और शैली-वैविध्य से बार-बार तोड़ा है।
Ajnabi Shahar
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Sirf tum
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आज के दौर में कई रिश्ते बदल गए हैं। मानवीय रिश्ते ही नहीं, रोटी और भूख के रिश्ते भी—तन और वस्त्र के रिश्ते भी—इंसान और समाज के रिश्ते भी। इन रिश्तों में शून्यता का एहसास मानव जीवन के लिए बहुत बड़ी त्रासदी है। इन्हीं शून्यता और सन्नाटे को ही तो कवि शब्द देता है तब काव्य के रूप में वह हमें उन पहलुओं से साक्षात्कार का मौक़ा देता जो हमारी दृष्टि ही नहीं कल्पना से भी ओझल होता है। रश्मि गुप्ता के यहाँ संवेदना का यही रंग हावी है जिसको उन्होंने सामाजिक यथार्थ की कसौटी पर ढाला है।
‘सिर्फ़ तुम’ की कवयित्री का यह पहला काव्य-संग्रह भी इस बात के साक्ष्य के लिए काफ़ी है कि नींद के आलम में अचेतन जिस तरह बिम्बों, इशारों और मवाद का तालमेल से सपने बुनता है रश्मि के यहाँ वही काम रचनात्मक क्रिया के दौरान चेतना अंजाम देती है।
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