Rekhte Ke Beej Aur Anya Kavitayein
Author:
Krishna KalpitPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
<span style="font-weight: 400;">हिन्दी कविता के परिदृश्य में कृष्ण कल्पित की जगह एकदम अलग और विशिष्ट है। बहैसियत कवि उन्हें जितनी चिन्ता अपने समय और समाज की है, उतने ही गम्भीर वे नागरिक परिसर में कविता के स्थान, उसकी भूमिका और व्यक्तित्व को लेकर भी बराबर रहते हैं। भाषा और भाषिक साहस के धनी ऐसे कम ही रचनाकार आज हमारे सामने हैं। बकौल देवी प्रसाद मिश्र, ‘दुस्साहस, असहमति, आवेश, अन्वेषण, पुकार, आह, ताक़त का विरोध, शिल्प-वैविध्य, नैतिक जासूसी और बाजदफ़ा पॉलिटिकली इनकरेक्ट—इस सबने मिलकर कृष्ण कल्पित को हमारे समय का सबसे विकट काव्य-व्यक्तित्व बना दिया है।’</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">इस संग्रह में शामिल कविता ‘रेख़्ते के बीज’, अगर अन्य कविताओं को फ़िलहाल न भी देखें, तो अकेली ही उनके सामर्थ्य को रेखांकित करने के लिए काफ़ी है। शिव किशोर तिवारी के अनुसार, ‘आगामी समयों में 'रेख़्ते के बीज’ को उत्तर-आधुनिकता की प्रतिनिधि कविता के रूप में उद्धृत किया जाएगा। शंभु गुप्त का कहना है कि ‘उनके अलावा अन्य कोई कवि इतिहास को इतने मौजूँ तरीक़े से पुनराख्यायित नहीं कर पाता जैसा उन्होंने सम्भव किया है।’ स्वीकृति और अस्वीकृति की पतली रेखा पर चलते हुए वे अकसर अपनी मेधा और निर्भीकता से समकालीन साहित्य-जगत को विचलित भी करते हैं, लेकिन उनकी कविता हर आपत्ति से बड़ी ही सिद्ध होती है। युवा कवि अविनाश मिश्र के शब्दों में, ‘एक योग्य कवि की उपेक्षा उसे पराक्रमी बनाती चलती है। कृष्ण कल्पित ने शिल्प से आक्रान्त और शब्द से आडम्बर किए बग़ैर हिन्दी कविता में एक असन्तुलन पैदा किया है। उनकी कविता पूरब की कविता की नई प्रस्तावना है।'</span>
ISBN: 9789393768391
Pages: 216
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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हिन्दी साहित्य में आलोकधन्वा की कविता और काव्य-व्यक्तित्व एक
अद् भुत सतत घटना, एक ‘फ़िनोमेनॅन’ की तरह हैं। वे पिछली चौथाई सदी से भी अधिक से कविताएँ लिख रहे हैं लेकिन बहुत संकोच और आत्म-संशय से उन्होंने अब यह अपना पहला संग्रह प्रकाशित करवाना स्वीकार किया है और इसमें भी रचना-स्फीति नहीं है। हिन्दी में जहाँ कई वरिष्ठ तथा युवतर कवि ज़रूरत से ज़्यादा उपजाऊ और साहिब-ए-किताब हैं, वहाँ आलोकधन्वा का यह संयम एक कठोर वग्रत या तपस्या से कम नहीं है और अपने-आप में एक काव्य-मूल्य है। दूसरी तरफ़ यह तथ्य भी हिन्दी तथा स्वयं आलोकधन्वा की आन्तरिक शक्ति का परिचायक है कि किसी संग्रह में न आने के बावजूद ‘जनता का आदमी’, ‘गोली दागो पोस्टर’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ सरीखी कविताएँ मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय तथा चन्द्रकान्त देवताले की काव्य-उपस्थितियों के समान्तर हिन्दी कविता तथा उसके आस्वादकों में कालजयी-जैसी स्वीकृत हो चुकी हैं। 1970 के दशक का एक दौर ऐसा था जब आलोकधन्वा की ग़ुस्से और बग़ावत से भरी रचनाएँ अनेक कवियों और श्रोताओं को कंठस्थ थीं तथा उस समय के परिवर्तनकामी आन्दोलन की सर्जनात्मक देन मानी गई थीं। आलोकधन्वा की ऐसी कविताओं ने हिन्दी कवियों तथा कविता को कितना प्रभावित किया है, इसका मूल्यांकन अभी ठीक से हुआ नहीं है। श्रोताओं और पाठकों के मन-मस्तिष्क में प्रवेश कर उन्होंने कौन-से रूप धारण किए होंगे, यह तो पता लगा पाना भी मुश्किल है।कवि आलोचक यदि चाहते तो अपना शेष जीवन इन बेहद प्रभावशाली तथा लोकप्रिय प्रारम्भिक रचनाओं पर काट सकते थे—कई रचनाकार इसी की खा रहे हैं—किन्तु उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा को यह मंजूर न था तो नितान्त अप्रगल्भ तरीक़े से अपना निहायत
दिलचस्प, चौंकानेवाला और दूरगामी विकास कर रही थी। उनकी शुरुआती विस्फोटक कविताओं के केन्द्र में जो इनसानी क़दरें थीं, वे ही परिष्कृत और सम्पृक्त होती हुई उनकी ‘किसने बचाया मेरी आत्मा को’, ‘एक ज़माने की कविता’, ‘कपड़े के जूते’ तथा ‘भूखा बच्चा’ जैसी मार्मिक रचनाओं में प्रवेश कर गईं। यों तो आलोकधन्वा हिन्दी के उन कुछ कवियों में से एक हैं जिनकी काव्य-दृष्टि तथा अभिव्यक्ति हमेशा युवा रहती हैं (और इसलिए वे युवतर कवियों के आदर तथा आदर्श बने रहते हैं), किन्तु लगभग अलक्षित ढंग से उन्होंने क्रमशः ऐसी प्रौढ़ता प्राप्त की है जो सायास और ओढ़ी हुई नहीं है और बुज़ुर्गियत की मुद्रा से अलग है। विषय-वस्तु, शिल्प, शैली तथा रुझानों में एक साथ सातत्य तथा विकास, सरलता तथा जटिलता, ताज़गी और परिपक्वता देखनी हों तो ‘छतों पर लड़कियाँ’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ को इसी क्रम में पढ़ना दिलचस्प होगा जिनमें भारतीय किशोरियों/स्त्रियों के स्निग्ध और त्रासद जीवन-सोपान तो हैं ही, आलोकधन्वा के कवि-जीवन तथा काव्य-चेतना के अग्रसर चरण भी साफ़ नज़र आते हैं।
अभिव्यक्ति के सभी ख़तरे उठाने की मुक्तिबोध की जिस जागरूक सर्जनात्मक प्रतिज्ञा को कुछ कवियों और अधिकांश आलोचकों ने एकांगी साहसिकता की पिष्टोक्ति बना डाला है, उसे आलोकधन्वा ने उसके सभी अर्थों में सही समझकर अपनी पिछली कविताओं से परे जाने का फ़ैसला किया है। किसी कवि के लिए अभिव्यक्ति का एक सबसे बड़ा जोखिम अपनी ही पिछली छवि में आगे या अलग जाने में रहता है और वह ऐसा किसी योजना या कार्यक्रम के तहत नहीं करता, बल्कि उसके द्वारा जिया तथा देखा जा रहा जीवन तथा उस जीवन की उसकी समझ उससे वैसा करवा ले जाते हैं। जब ‘गोली दागो पोस्टर’ और ‘जनता का आदमी’ का कवि एक असहायता जो कुचलती है और एक उम्मीद जो तकलीफ़ जैसी है तथा एक ऐसे अकेलेपन, एक ऐसे तनाव जिसमें रोने की भी इच्छा हुई लेकिन रुलाई फूटी नहीं की बात करता है तो वह दैन्य या पलायन नहीं, बल्कि उस विराट मानवता की इकाई होने का ही स्वीकार है जिसके ऐसी तकलीफ़ों से गुज़रे बिना कोई बदलाव सम्भव नहीं है, क्योंकि यही एहसास इस दुनिया को फिर से बनाने की संघर्ष-भरी अभिलाषा के केन्द्र में है।
आलोकधन्वा ने शुरू नागार्जुन की परम्परा में किया था और जहाँ वे आज खड़े हैं वह नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह की मिली-जुली ज़मीन लगती है जिसे उन्होंने दोनों वरिष्ठों की अलग-अलग उर्वरता से आगाह रहते हुए अपने समय और काव्य-समझ के मुताबिक़ अपने लिए तैयार किया है। आलोकधन्वा में एक वैश्विक तथा भारतीय दृष्टि तो हमेशा से थी, धीरे-धीरे वह अपने आसपास के तथा व्यापक सचराचर पर भी गई। हम कह सकते हैं कि यदि पहले वे मात्र सिंहावलोकन के कवि थे तो अब उनकी निगाह चीज़ों और ब्योरों में भी जाती है और उनके ज़रिए वे आदमी और व्यक्ति होने के गहरे एहसास तक पहुँचते हैं और उसे अपनी कविता में चरितार्थ करते हैं। उनके काव्य-संसार में अब इनसान और इनसानी सरोकार तो हैं ही, पेड़, पगडंडी, पतंग, पानी, रास्ते, रातें, सूर्यास्त, हवाएँ, बिकरियाँ, पक्षी, समुद्र, तारे, चाँद भी हैं। वे पगडंडी, चौक, रेल जंक्शन से निजी और सार्वजनिक दुनिया में पहुँचते हैं, थियेटर, मैटिनी शो और पहली फ़िल्म की रोशनी में स्मृतियों में जाकर अपनी संवेदना तथा सृजनशीलता के स्रोत खोजते-पाते हैं और समुद्र की आवाज़ उनके लिए किसी रहस्यमय अनादि-अनन्त की नहीं, आन्दोलन और गहराई की है। अति-मुखरता के लिए तो इसमें अवकाश ही नहीं है, आविष्ट भावातिरेक से भी वे अपनी ऐसी कविताओं में बचे हैं। आलोकधन्वा ने एक ऐसी भाषा और ऐसी तराशी हुई अभिव्यक्ति हासिल की है जिनमें सभी अतिरिक्त और अनावश्यक छीलकर अलग कर दिया गया है और तब ‘शरद की रातें/इतनी हलकी और खुली/जैसे पूरी की पूरी शामें हों सुबह तक/जैसे इन शामों की रातें होंगी/किसी और मौसम में’ या ‘समुद्र मुझे ले चला उस दोपहर में/जब पुकारना भी नहीं आता था/जब रोना ही पुकारना था’ सरीखी क्लासिकी रंगत की पंक्तियाँ प्राप्त होती हैं। यह अकारण नहीं है कि कवि मीर का ज़िक्र करता है। आलोकधन्वा ‘जो घट रहा है’ उसके कवि थे और रहेंगे लेकिन अब उसके भी प्रवक्ता हैं जिसका ‘होना’ सामान्यतः नहीं माना-पहचाना जाता। उन्हें उम्मीद है कि ‘कभी लिखेंगे कवि इसी देश में/इन्हें भी घटनाओं की तरह’ जबकि सच यह है कि वे स्वयं उस सबको घटना बनाने की क्षमता प्राप्त कर चुके हैं जो निश्चेष्ट, अमूर्त तथा अचल लगता है। चेतन में चेतना तो सभी देख लेते हैं, उसके साथ जड़ में चैतन्य को स्थापित कर पाना आलोकधन्वा जैसे अनन्य, दुस्साहसी सर्जक के बूते की ही बात है जो इस प्रक्रिया में अपनी प्रतिबद्धता को सम्पूर्ण बनाने की राह पर अग्रगामी नज़र आता है।
—विष्णु खरे
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