Television Ki Kahani : Part-1
Author:
Mukesh Kumar, Shyam KashyapPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Media0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
टेलीविज़न की कहानी वर्तमान समय सूचना-समाचारों के विस्फोट का है। हर घर-आँगन में चौबीस घंटे की टेलीविज़न-उपस्थिति है। चकमक करती रौशनियाँ हैं, दमक-हुमक-भरे चेहरे हैं। हर्ष, विषाद, रुदन की आक्रामकता है। कहीं समाचार, कहीं फ़िल्म और घर-घर की कहानी बयान करते रंग-बिरंगे धारावाहिक। लेकिन क्या आप जानते हैं, इस चमक-दमक के आविष्कारक कौन थे? टेलीविज़न का कब और कैसे आविष्कार हुआ? टेलीविज़न के अतीत-वर्तमान को ही जानने-समझने का सार्थक प्रयत्न करती है यह पुस्तक। वरिष्ठ लेखक-पत्रकार डॉ. श्याम कश्यप और चर्चित युवा टीवी पत्रकार मुकेश कुमार की क़लम-जुगलबन्दी ने टेलीविज़न की कहानी को आप तक पहुँचाने का सफल प्रयास किया है।</p>
<p>टेलीविज़न के विभिन्न आयामों का समावेश करती इस पुस्तक में कुल बारह अध्याय हैं, जिनमें टेलीविज़न की ईजाद और उसके क्रमिक विकास की कहानी के साथ उनके विशिष्ट आन्तरिक संरचना, चरित्र और सामाजिक प्रभावों की भी प्रभावी पड़ताल की गई है। इसमें प्रसंगवश उन तमाम समकालीन प्रश्नों से भी मुठभेड़ करने का प्रयास किया गया है, जिनका सामना टीवी पत्रकार को अक्सर करना पड़ता है।</p>
<p>पुस्तक में टीवी पत्रकारिता से जुड़ी उन तमाम बातों का ज़िक्र है, जिसकी ज़रूरत इस क्षेत्र के छात्रों और पत्रकारों को पड़ती है। यह पुस्तक उन लोगों के लिए मददगार साबित होगी। न सिर्फ़ छात्रों और पत्रकारों के लिए बल्कि आम पाठक, जो टेलीविज़न के इतिहास और उसके संसार को जानना और समझना चाहते हैं, उनके लिए भी उपयोगी और रुचिकर पुस्तक।
ISBN: 9788126714803
Pages: 267
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
आधुनिक कम्प्यूटर के सहारे परवान चढ़ा सूचना युग आज सर्वव्यापी है। सूचना प्रौद्योगिकी और उसका इंटरनेट-महाजाल आज समाज के बड़े भाग की रोज़मर्रा ज़िन्दगी को प्रभावित कर रहे हैं। अनेक चिन्तकों ने इसकी भविष्यवाणी दशकों पहले ही कर दी थी, पर जो सामने आया वह भविष्यवाणियों से कहीं ज़्यादा था। इंटरनेट, जो नए मीडिया के रूप में उभरा, पुराने प्रिंट मीडिया के लिए ख़तरे की घंटी के रूप में देखा जाने लगा। एक समय में अख़बारों के प्रसार और विज्ञापन में लगभग स्थिरता से प्रिंट मीडिया में चिन्ता की लहरें छा गईं, किन्तु उनसे उबरते देर भी नहीं लगी क्योंकि एक सार्वजनिक मीडिया के रूप में इंटरनेट जन-जन में ग्राह्य नहीं हो पाया और छपे हुए शब्द की महत्ता बनी रही। यह पुस्तक इन तथ्यों और विषय-उपविषयों को वर्णनात्मक और विश्लेषणात्मक रूप में अध्याय-दर-अध्याय रखते हुए अपने निष्कर्ष की ओर बढ़ती है।
इसमें सूचना क्रान्ति और सूचना युग की विशेषता और कतिपय ज़रूरी तकनीकी शब्दों से परिचित कराते हुए देश-विदेश में इंटरनेट के विकास का जायजा लिया गया है। पुराने (प्रिंट) और (इंटरनेट) मीडिया की तुलना है तो यह भी शामिल है कि इंटरनेट पर भारतीय अख़बार और पत्रिकाओं का पदार्पण कैसे हुआ, इसमें भाषा की समस्या क्या थी और उसे सुलझाने के क्या उपाय हुए। पहले-पहल जो अख़बार और पत्रिकाएँ इंटरनेट पर आए, उनकी एक सूची और हिन्दी के कुछ अख़बारों के इंटरनेट संस्करणों के नमूने भी इसमें हैं। इंटरनेट बनाम अख़बार के तहत जहाँ एक तुलनात्मक अध्ययन किया गया है, वहीं इंटरनेट और बाज़ारवाद के दोहरे प्रहारों के चलते अख़बारों के विज्ञापन, प्रसार और विषय-वस्तु में आ रहे बदलावों का भी विश्लेषण है।
इसके अलावा यह पुस्तक इंटरनेट और लोगों के प्रजातांत्रिक अधिकारों के अन्तर्सम्बन्धों पर भी दृष्टिपात करती है। कई लब्धप्रतिष्ठ पत्रकारों के साक्षात्कारों, विभिन्न रिपोर्टों और कृतियों से लिए गए उद्धरणों और सांख्यिकी के ज़रिए विवेचना को पुष्ट बनाया गया है, जिसका निष्कर्ष कुछ रोचक दृष्टान्तों के साथ मन्थन में है। इसका सार वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की इस समापन टिप्पणी में है कि ‘जब तक मनुष्य की लिखने-पढ़ने में रुचि रहेगी तब तक काग़ज़ और क़लम से उसका जुड़ाव रहेगा और तब तक अख़बारों को भी कोई समाप्त नहीं कर सकेगा।’
TRP : Media Mandi Ka Mahamantra
- Author Name:
Mukesh Kumar
- Book Type:

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Description:
पिछले ढाई दशकों में टेलीविज़न की सामग्री बड़े पैमाने पर बदली है। ख़ासतौर पर न्यूज़ चैनलों का चरित्र बुनियादी रूप से बदल गया है। मीडिया संस्थानों के स्वामित्व में आया बदलाव, बड़े कार्पोरेट घरानों का बढ़ता नियंत्रण और हस्तक्षेप, बाज़ार का प्रभाव इसके प्रमुख कारण हैं। आर्थिक उदारवाद के दौर में सत्ता के चरित्र में आए परिवर्तनों का भी इसमें योगदान रहा है। सत्ता के निरंकुशतावादी स्वरूप ने एक आतंक भी पैदा किया है, जिसके सामने मीडिया को नतमस्तक होना पड़ा है।
कार्पोरेट तथा सत्ता के अपने गणित भी हैं और मीडिया को उनसे तालमेल बैठाने के लिए भी बाध्य होना पड़ा है। मगर जहाँ तक बाज़ार का सवाल है तो उसका सबसे बड़ा हथियार है विज्ञापन। वह विज्ञापनों पर भारतीय मीडिया की निर्भरता का लाभ उठाता है। इसके लिए उसके पास एक बहुत ही कारगर हथियार है–टीआरपी यानी टेलीविज़न रेटिंग पॉइंट।
टीआरपी दरअसल क्या है, वह क्यों है और न्यूज़ चैनलों की सामग्री को कैसे नियंत्रित और संचालित करती है, इस बारे में ठोस जानकारियाँ कम ही उपलब्ध हैं। यही नहीं, अत्यधिक चर्चाओं में रहने के बावजूद टीआरपी मापने की प्रणाली में क्या ख़ामियाँ हैं, उसमें कैसे धाँधली की जाती है और वह कितनी विश्वसनीय है, है भी या नहीं, इस बारे में सामग्री का अभाव रहता है, जबकि इन सब पहलुओं के बारे में जाने बगैर न टीआरपी को समझा जा सकता है और न ही बाज़ार के ऑपरेट करने के तरीक़े को। यह किताब टीआरपी के इन तमाम रहस्यों से परदा उठाती है।
यह सवाल भी बड़ी अहमियत रखता है कि टीवी न्यूज़ या न्यूज़ चैनल टीआरपी के दुष्चक्र से निकल सकते हैं या नहीं? इस पुस्तक में इन प्रश्नों पर विचार करके कुछ रास्ते सुझाने की कोशिश भी की गई है।
शैक्षणिक, अकादमिक और पत्रकारिता तीनों ही क्षेत्रों में सक्रिय लोगों के लिए तो पुस्तक उपयोगी है ही, वे पाठक भी इससे लाभ उठा सकेंगे जिनकी दिलचस्पी मीडिया में आई विसंगतियों या नई प्रवृत्तियों को जानने-समझने में रहती है।
Media Aur Bazarvad
- Author Name:
Ramsharan Joshi
- Book Type:

- Description: बाज़ार नाम की संस्था आदिम समाज के लिए भी रही है, और आज के समाज के लिए भी है। इसलिए बाज़ार से बैर करके आप अपना समाज और अपना जीवन चला सकें, इसकी सम्भावना नहीं है। लेकिन जब बाज़ार मनुष्य की नियति तय करे तो इसका मतलब यह है कि अब तक जो मनुष्य का सेवक रहा है, वह मनुष्य का मालिक होना चाहिए। बाज़ार मनुष्य का बहुत अच्छा सेवक है। कोई पाँच हज़ार साल से उसकी सेवा कर रहा है। शायद उससे भी ज़्यादा वर्षों से कर रहा हो। अगर वो मनुष्य की नियति तय करेगा तो उसमें एक मूल खोट आनेवाला है, क्योंकि बाज़ार भाव से चलता है, बाज़ार मूल्य से नहीं चलता और मूल्यों के बिना किसी भी मानव समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। मानव समाज भाव से नहीं चल सकता, मूल्य से ही चल सकता है। मानव समाज को मूल्य से चलना है। अब जो बाज़ार की शक्तियाँ दुनिया में इकट्ठा हुई हैं उनसे आप कैसे निपटेंगे? मुझे कई लोगों ने कहा कि यह तो हिन्दुस्तान है जो जाजम की तरह बिछने के लिए तैयार है, नहीं तो जहाँ-जहाँ बाज़ार गया है, वह उस देश के समाज की शर्तों पर गया है। पर हमने एक कमज़ोर देश की तरह से अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार को स्वीकारा है। इसलिए अब हमारे यहाँ जाजम की तरह बिछ जाने का लगभग कुचक्र चल रहा है!
Chainalon Ke Chehre
- Author Name:
Shyam Kashyap +1
- Book Type:

- Description: न्यूज़ चैनलों की जब भी बात होती है तो उनके एंकर की चर्चा ज़रूर की जाती है। और कैसे न हो। एंकर किसी भी चैनल की पहचान होते हैं। वे चैनलों के चेहरे होते हैं। किसी भी चैनल के एंकर जिस तरह के होते हैं, उसके आधार पर ही यह राय बनाई जाती है कि वह चैनल कैसा है। अगर एंकर ख़ूबसूरत, समझदार, चौकन्ने हैं तो उस चैनल को भी लोग उसी नज़र से देखेंगे। इसलिए कोई भी चैनल एंकर के चयन को सबसे ज़्यादा महत्त्व देता है। वह ऐसे चेहरों की तलाश में रहता है जो दर्शकों को बाँध सकें। ज़ाहिर है कि टेलीविज़न एंकरिंग एक आकर्षक एवं प्रभावशाली विधा है, पेशा है और यह बहुत स्वाभाविक है कि छात्र ही नहीं, टेलीविज़न में वर्षों से काम कर रहे पत्रकार भी यह सपना पाले रहते हैं कि उन्हें भी स्क्रीन पर आने का मौक़ा मिले। इसलिए सबसे ज़्यादा प्रतिस्पर्धा भी एंकरिंग के लिए होती है। चैनल चलानेवाले भी एंकर के चयन के मामले में बेहद कठोर होते हैं। कोई भी चैनल एंकर को लेकर समझौता नहीं करना चाहता। इसलिए एंकर बनने के इच्छुक लोगों को यह ज़रूर पता होना चाहिए कि उनकी राह बहुत आसान नहीं है और यह सपना कैसे पूरा हो सकता है या उसे पूरा करने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए, इस पर सोचना ज़रूरी है। आजकल सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि एंकरिंग के बारे में विस्तार से जानने और फिर उसे सीखने का कोई इन्तज़ाम नहीं है। दिल्ली, मुम्बई जैसे कुछ बड़े शहरों को छोड़ दें तो कहीं ढंग के प्रशिक्षण संस्थान नहीं हैं। जहाँ हैं, वहाँ सिखानेवाले ख़ुद ही प्रशिक्षित नहीं हैं। बड़े शहरों में भी अधिकांश प्रशिक्षण संस्थान मोटी रक़म वसूलने के लिए ज़्यादा कुख्यात हैं। ऐसे में कमज़ोर हैसियत और छोटे तथा मझोले शहरों में रहनेवाले लोग क्या करें, कहाँ जाएँ? उन्हें तो किताबों की ही मदद से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना होगा। लेकिन मुश्किल यह है कि टेलीविज़न एंकरिंग पर ढंग की किताबें भी नहीं हैं। जो हैं वे दशकों पुरानी एंकरिंग को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं जबकि अब उसमें आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है। टेलीविज़न पत्रकरिता माला के तहत ‘चैनलों के चेहरे’ शीर्षक से एंकरिंग पर किताब लिखने का मक़सद इस कमी को पूरा करना ही है। कोशिश रही है कि यह किताब एंकरिंग की एक परिपक्व गाइड की भूमिका अदा करे। इसलिए टेलीविज़न के मौजूदा दौर को ध्यान में रखकर और एंकरिंग के बारे में विस्तार से जानकारी जुटाकर इसे तैयार किया गया है। यह पुस्तक एंकरिंग के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराती है, जिससे वे ख़ुद अपनी तैयारी को आगे बढ़ा सकें।
21vin Sadi : Pahala Dasak
- Author Name:
Prabhash Joshi
- Book Type:

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Description:
‘21वीं सदी : पहला दशक’ पुस्तक में विख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी के वे लेख संकलित हैं जो उन्होंने ‘जनसत्ता’ दैनिक में सन् 2000 के बाद लिखे। 2001 से 2009 के बीच प्रकाशित इन लेखों में देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन की धड़कनें सुनी जा सकती हैं।
21वीं सदी के आगमन को सत्ताधारी वर्ग ने सम्पन्नता के स्वप्न के रूप में प्रचारित किया था। लेकिन सचाई यह थी कि 21वीं सदी देश के बहुजन जीवन के लिए अभिशाप की तरह प्रकट हुई। आर्थिक उदारीकरण की नीति के दुष्परिणाम सामने आने लगे। आम लोगों का जीवन पहले की तुलना में ज़्यादा मुश्किलों के घेरे में आ गया। इस पुस्तक में प्रभाष जोशी ने आर्थिक और सामाजिक स्तर पर पैदा होनेवाली इन मुश्किलों की व्याख्या विस्तार से की है। उसकी आत्महन्ता राजनीतिक परिणति को प्रभावी तरीक़े से समझाया गया है।
प्रभाष जोशी की पत्रकारिता महज़ चिन्तन और विश्लेषण की पत्रकारिता नहीं है, वह सामाजिक सक्रियता और विसंगतियों के विरुद्ध हस्तक्षेप की पत्रकारिता है। इन लेखों में एक शोषणमुक्त भारतीय समाज का स्वप्न भी देखा गया है, जिसमें एक नए विकल्प का संकेत भी दिखाई देता है। यह पुस्तक नई सदी की वास्तविक पहचान का रेखाचित्र है।
Photo Patrakarita
- Author Name:
Dhananjai Chopra
- Book Type:

- Description: हमारा समय विजुअल कम्युनिकेशन यानी दृश्य संचार का समय है। वास्तविक दुनिया हो या आभासी दुनिया, हर तरफ छवियां ही छवियां हैं। कास्टिंग के लगभग सारे उपक्रम यानी प्रिंटकास्ट, ब्रॉडकास्ट, टेलीकास्ट, वेबकास्ट और ह्यूमनकास्ट अनायास ही छवियों के अधिकाधिक प्रयोग की होड़ में शामिल हो गए हैं। संचार के क्षेत्र में छवियों यानी दृश्यों के इस तरह प्रयोग से जन-संप्रेषण की दुनिया में बड़ा बदलाव आया है। इस बदलाव का कारण बना, हमारे मोबाइल फोन में कैमरे का आ जाना। इक्वींसवीं सदी के प्रारंभ से ही लोगों ने अपने आसपास के दृश्यों को सहेजना शुरू कर दिया था। दृश्यों के माध्यम से जन इतिहास का लिखा जाना यह बता रहा था कि आने वाले समय में शब्दों से कहीं अधिक दृश्य पढ़े जाएंगे। हुआ भी यही, हमने एक ऐसे समाज की रचना कर ली है, जिसमें दृश्य संचार के बिना रह पाना मुश्किल हो रहा है। टेक्नोलॉजी के बलबूते बदलती दुनिया और बदलते समय में दृश्य संस्कृति विकसित हो रही है। दृश्य गढ़े जा रहे हैं, रचे जा रहे हैं, प्रस्तुत किए जा रहे हैं और पढ़े जा रहे हैं। अब से पहले इतने अधिक दृश्यों का आदान-प्रदान कभी नहीं हुआ था। दरअसल यह दृश्य विस्फोट यानी विजुअल एक्सप्लोजन का समय है। यह फोटोग्राफी और फोटो पत्रकारिता को सीखने, समझने, सहेजने और संचरित करने का अप्रतिम समय है।
Apne Gireban Mein
- Author Name:
Yashwant Vyas
- Book Type:

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कोई जमाना था जब दिल्ली से निकलने वाले अखबार राष्ट्रीय और लखनऊ-लुधियाना से निकलने वाले अखबार क्षेत्रीय कहे जाते थे। हिंदी अखबारों की दुनिया इस बीच बहुत बदल चुकी है। सैटेलाइट संस्करणों ने जो महादृश्य उपस्थित किया है उसने हिंदी अखबारों की बाजार शक्ति की नए सिरे से पहचान कराई है। पारंपरिक अर्थ में गढ़ कहे जाने वाले, ध्वस्त हो रहे हैं। संपादक और स्वामी के पारस्परिक रिश्तों ने नई शक्ल ले ली है। जबर्दस्त पूँजी निवेश, आक्रामक बाजार नीति तथा पत्रकारिक फैशन परेड का नया पैकेज सामने आ रहा है। प्रसार की उछाल में पाठक के लिए नए विकल्प खुले हैं। लेकिन क्या यह नई दुनिया सचमुच एक अद्भुत दुनिया है?
एक रचनाकार होने के साथ-साथ, पत्रकारिता की उसी बदलती हुई दुनिया के अनुभव का हिस्सा होते हुए यशवंत व्यास जब क्षेत्रीय पत्रकारिता में बदलाव को आँकते हैं तो उनकी दृष्टि गहरी संवेदना से युक्त होती है। वे निरंतर हो रहे परिवर्तनों को गहन अनुभूतियों तथा स्पष्ट तथ्यों के बीच दर्ज करते हैं। इसके लिए वे न सिर्फ भाषा के स्तर पर बल्कि प्रस्तुति पर भी शोध को नया, ताज़गी-भरा आकार देते हैं। अंतर्विरोधों की पहचान के प्रति पैनी दृष्टि तथा क्षेत्रीय पत्रकारिता में सफलता असफलता की गंभीर पड़ताल करने की कोशिशों जैसी खूबियों के चलते ‘अपने गिरेबान’ में समकालीन क्षेत्रीय हिंदी पत्रकारिता पर एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।
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