Chautha Khambha (Private) Limited
Author:
Dilip MandalPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Media0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
जनविरोधी होना मीडिया का षड्यंत्र नहीं, बल्कि उसकी संरचनात्मक मजबूरी है। एक समय था जब मास मीडिया पर यह आरोप लगता था कि वह कॉरपोरेट हित में काम करता है। 21वीं सदी में मीडिया ख़ुद कॉरपोरेट है और अपने हित में काम करता करता है। कॉरपोरेट मीडिया यानी अख़बार, पत्रिकाएँ, चैनल और अब बड़े वेबसाइट भी प्रकारान्तर में पूँजी की विचारधारा, दक्षिणपन्थ, साम्प्रदायिकता, जातिवाद और तमाम जनविरोधी नीतियों के पक्ष में वैचारिक गोलबन्दी करने की कोशिश करते नज़र आते हैं। पश्चिमी देशों के मीडिया तंत्र को समझने के लिए नोम चोम्स्की और एडवर्ड एस. हरमन ने एक प्रोपेगंडा मॉडल दिया था। इसके मुताबिक़, मीडिया को परखने के लिए उसके मालिकाना स्वरूप, उसके कमाई के तरीक़े और ख़बरों के उसके स्रोत का अध्ययन किया जाना चाहिए। इस मॉडल के आधार पर चोम्स्की और हरमन इस नतीजे पर पहुँचे कि अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया का पूँजीपतियों के पक्ष में खड़ा होना और दुनिया-भर के तमाम हिस्सों में साम्राज्यवादी हमलों का समर्थन करना किसी षड्यंत्र के तहत नहीं है। मीडिया अपनी आन्तरिक संरचना के कारण यही कर सकता है। साम्राज्यवाद को टिकाए रखने में मीडिया कॉरपोरेशंस का अपना हित है। उसी तरह, पूँजीवादी विचार को मज़बूत बनाए रखने में मीडिया का अपना स्वार्थ है।</p>
<p>भारत के सन्दर्भ में चोम्स्की और हरमन के प्रोपेगंडा मॉडल में एक तत्त्व और जुड़ता है। वह है भारत की सामाजिक संरचना। इस नए आयाम की वजह से भारतीय मुख्यधारा का मीडिया पूँजीवादी के साथ-साथ जातिवादी भी बन जाता है। उच्च और मध्यवर्ग में, ऊपर की जातियों की दख़ल ज़्यादा होने के कारण मीडिया के लिए आर्थिक रूप से भी ज़रूरी है कि वह उन जातियों के हितों की रक्षा करे। आख़िर इन्हीं वर्गों से ऐसे लोग ज़्यादा आते हैं, जो महत्त्वपूर्ण ख़रीदार हैं और इनकी वजह से विज्ञापनदाताओं को मीडिया में इनकी उपस्थिति चाहिए। यह एक ऐसा दुश्चक्र है, जिसकी वजह से भारतीय मीडिया न सिर्फ़ गरीबों, किसानों, ग्रामीणों और मज़दूरों बल्कि पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों की भी अनदेखी करता है। मीडिया के इस स्वरूप के पीछे किसी की बदमाशी या किसी का षड्यंत्र नहीं है। यह मीडिया और समाज की संरचनात्मक बनावट और इन दोनों के अन्तर्सम्बन्धों का परिणाम है। प्रस्तुत किताब इन्हीं अन्तर्सम्बन्धों को समझने की कोशिश है। इसे जानना मीडिया के विद्यार्थियों के साथ ही तमाम भारतीय नागरिकों के लिए आवश्यक है, क्योंकि जाने-अनजाने हम सब मीडिया से प्रभावित हो रहे हैं।
ISBN: 9788126728299
Pages: 152
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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Description:
जनसंचार माध्यमों की सबसे बड़ी शक्ति है, संचार भाषा। मीडिया द्वारा प्रसारित भाषा में लक्ष्यीभूत श्रोता, दर्शक, पाठक विभिन्न बौद्धिक स्तरों के होते हैं। जन-माध्यमों का यह प्रयास होता है कि वे भाषिक सम्प्रेषण को सर्व सुलभ बनाएँ। इसके लिए एक-एक शब्द को बड़ी सावधानी के साथ प्रयुक्त करना होता है। यह ध्यान रखना होता है कि उच्चरित भाषा में कितना अन्तराल, कितना आयतन, कितना आरोहावरोह और कितना यति-गति-विधान रखा जाए। इन जन-माध्यमों की अपनी अलग-अलग भाषिक प्रोक्तियाँ होती हैं। अख़बार भरसक जन-भाषा का प्रयोग करता है, रेडियो उसे ‘विजुअल’ बनाने का प्रयास करता है और टेलीविज़न दृश्य भाषा का पूरी क्षमता के साथ निर्वाह करता है।
इधर कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल आदि ने भाषा के नए-नए रूप निकाले हैं। इन्हें समझने के लिए भाषा प्रौद्योगिकी का संज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। इसके लिए अपेक्षित है—अनुवाद कला का अभ्यास, डबिंग, दुभाषिया प्रविधि और वाचिक कलाओं की जानकारी, कमेंट्री, उद्घोषणा तथा संचालन की सफलता पूर्णत: भाषिक उच्चारण और लहज़े पर निर्भर होती है। समाचार, फ़ीचर, ध्वनि नाटक, संवाद, वार्त्ता, वृत्तचित्र, रिपोर्ताज़ आदि विधाएँ मूलत: भाषिक प्रयोगों पर निर्भर होती हैं।
संचार भाषा में सर्वाधिक ध्यान दिया जाता है शब्द संवेदना पर। उसी के सहारे विज्ञापन के नारे इतने हृदयस्पर्शी सिद्ध होते हैं।
इस कृति में प्रथम बार संचार भाषा रूप में हिन्दी का अनुप्रयोग स्पष्ट किया गया है। कहना न होगा कि यह कृति प्रत्येक संचारकर्मी के लिए मात्र उपादेय ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य है।
Chainalon Ke Chehre
- Author Name:
Shyam Kashyap +1
- Book Type:

- Description: न्यूज़ चैनलों की जब भी बात होती है तो उनके एंकर की चर्चा ज़रूर की जाती है। और कैसे न हो। एंकर किसी भी चैनल की पहचान होते हैं। वे चैनलों के चेहरे होते हैं। किसी भी चैनल के एंकर जिस तरह के होते हैं, उसके आधार पर ही यह राय बनाई जाती है कि वह चैनल कैसा है। अगर एंकर ख़ूबसूरत, समझदार, चौकन्ने हैं तो उस चैनल को भी लोग उसी नज़र से देखेंगे। इसलिए कोई भी चैनल एंकर के चयन को सबसे ज़्यादा महत्त्व देता है। वह ऐसे चेहरों की तलाश में रहता है जो दर्शकों को बाँध सकें। ज़ाहिर है कि टेलीविज़न एंकरिंग एक आकर्षक एवं प्रभावशाली विधा है, पेशा है और यह बहुत स्वाभाविक है कि छात्र ही नहीं, टेलीविज़न में वर्षों से काम कर रहे पत्रकार भी यह सपना पाले रहते हैं कि उन्हें भी स्क्रीन पर आने का मौक़ा मिले। इसलिए सबसे ज़्यादा प्रतिस्पर्धा भी एंकरिंग के लिए होती है। चैनल चलानेवाले भी एंकर के चयन के मामले में बेहद कठोर होते हैं। कोई भी चैनल एंकर को लेकर समझौता नहीं करना चाहता। इसलिए एंकर बनने के इच्छुक लोगों को यह ज़रूर पता होना चाहिए कि उनकी राह बहुत आसान नहीं है और यह सपना कैसे पूरा हो सकता है या उसे पूरा करने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए, इस पर सोचना ज़रूरी है। आजकल सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि एंकरिंग के बारे में विस्तार से जानने और फिर उसे सीखने का कोई इन्तज़ाम नहीं है। दिल्ली, मुम्बई जैसे कुछ बड़े शहरों को छोड़ दें तो कहीं ढंग के प्रशिक्षण संस्थान नहीं हैं। जहाँ हैं, वहाँ सिखानेवाले ख़ुद ही प्रशिक्षित नहीं हैं। बड़े शहरों में भी अधिकांश प्रशिक्षण संस्थान मोटी रक़म वसूलने के लिए ज़्यादा कुख्यात हैं। ऐसे में कमज़ोर हैसियत और छोटे तथा मझोले शहरों में रहनेवाले लोग क्या करें, कहाँ जाएँ? उन्हें तो किताबों की ही मदद से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना होगा। लेकिन मुश्किल यह है कि टेलीविज़न एंकरिंग पर ढंग की किताबें भी नहीं हैं। जो हैं वे दशकों पुरानी एंकरिंग को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं जबकि अब उसमें आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है। टेलीविज़न पत्रकरिता माला के तहत ‘चैनलों के चेहरे’ शीर्षक से एंकरिंग पर किताब लिखने का मक़सद इस कमी को पूरा करना ही है। कोशिश रही है कि यह किताब एंकरिंग की एक परिपक्व गाइड की भूमिका अदा करे। इसलिए टेलीविज़न के मौजूदा दौर को ध्यान में रखकर और एंकरिंग के बारे में विस्तार से जानकारी जुटाकर इसे तैयार किया गया है। यह पुस्तक एंकरिंग के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराती है, जिससे वे ख़ुद अपनी तैयारी को आगे बढ़ा सकें।
Bhartiya Cine-Siddhant
- Author Name:
Anupam Ojha
- Book Type:

- Description: “मैं अक्सर महसूस करता हूँ कि हमारी जनता एक तरफ़ व्यावसायिक विकृतियों का शिकार है तो दूसरी तरफ़ उन विशिष्टतावादी फ़िल्मकारों का जिनके शब्दों का उस पर कोई असर नहीं होता और जो उसे और उलझा देते हैं। मैं सोचता था कि हमारे भी गम्भीर फ़िल्मकार इस देश के मिथकों और लोक-परम्परा को उसी तरह आत्मसात् कर सकेंगे, जैसे अकीरा कुरोसावा ने जापान के क्लासिकी परम्परा को किया है और फिर एक नया लोकप्रिय फ़ॉर्म विकसित हो सकेगा। उलटे हम पाते हैं कि पश्चिम के विख्यात फ़िल्मकारों में ही उलझे हैं हमारे लोग और कभी-कभी उनकी नाजायज नक़ल भी करते हैं। हमें पहले ही नहीं मान लेना चाहिए कि जनता प्रयोग और नवीकरण के मामले में तटस्थ है।” —उत्पल दत्त हिन्दी सिनेमा एक साथ ढेर सारे मिले-जुले प्रभावों से परिचालित है। एक तरफ़ हॉलीवुड सिनेमा, लोकनाट्य रूपों तथा पारसी थियेटर की खिचड़ी, दूसरी तरफ़ पौराणिक मिथकों का लोक-लुभावन स्वरूप, तीसरी तरफ़ इटैलियन नवयथार्थवादी सिनेमा का प्रभाव। इन सबके बीच भारतीय सिनेमा के अपने मूल गुणों को पहचानने-परखने की कोशिश ही इस पुस्तक का ध्येय है। दादा साहब फाल्के ने भारतीय सिनेमा को व्याकरण के साँचे में कसने के लिए एक भारतीय सिने-सिद्धान्त की आवश्यकता महसूस की थी लेकिन वे स्वयं ऐसा कर नहीं पाए और आगे भी नहीं किया जा सका। भारतीय सिने-सिद्धान्त और सिने-कला, इतिहास, पटकथा की संरचना आदि पर छिटपुट टिप्पणियों, लेखों, विचारों को एकत्रित कर सिने-सिद्धान्त का अवलोकन इस पुस्तक के मुद्दों में केन्द्रीय है। सिनेमा की कला-भाषा का ठीक से शिक्षण नहीं होने के चलते एक दृष्टिहीन सिनेमा का व्यावसायिक लुभावना सम्मोहन समाज पर हावी है। यह पुस्तक भारतीय सिने-सिद्धान्त को लेकर किंचित् भी चिन्तित व्यक्तियों को गम्भीरता से सोचने के लिए तथ्य उपलब्ध कराएगी, साथ ही एक सामूहिक प्रयास के लिए प्रेरित करेगी।
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