Naye Jan-Sanchar Madhyam Aur Hindi
Author:
Sudhish PachauriPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Media0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Available
नए जन-संचार माध्यमों में हिन्दी का प्रयोग बढ़ रहा है। हर प्रक्रिया में माध्यम बदल रहे हैं, हिन्दी भी बदल रही है। नए रूप बन रहे हैं। माध्यमों में भाषा ने स्वयं एक संचार किया है।</p>
<p>बदलती भाषा संचार की अनन्त अन्तर्क्रियाओं को जन्म दे रही है। हिन्दी के सामने नई चुनौतियाँ उपस्थित हैं और उतनी ही चुनौतियाँ माध्यमकर्मियों के सामने हैं।</p>
<p>बी.बी.सी. ने नए जन-संचार माध्यमों में हिन्दी के स्वरूप को लेकर इसीलिए एक राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया। सेमिनार की सामग्री इस किताब में पाठकों के लिए उपलब्ध है।</p>
<p>यहाँ पाठकों को पहली बार बी.बी.सी. वेबसाइट की ‘स्टाइल बुक’ का परिचय मिलेगा। मीडिया का हिन्दी शब्दकोश होना चाहिए; एक पदावली कोश भी—इस तरफ़ कुछ इशारे यहाँ दिए गए हैं।</p>
<p>उम्मीद है कि यह किताब नए जन-संचार माध्यमों के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
ISBN: 9788126704514
Pages: 124
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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टेलीविज़न की कहानी वर्तमान समय सूचना-समाचारों के विस्फोट का है। हर घर-आँगन में चौबीस घंटे की टेलीविज़न-उपस्थिति है। चकमक करती रौशनियाँ हैं, दमक-हुमक-भरे चेहरे हैं। हर्ष, विषाद, रुदन की आक्रामकता है। कहीं समाचार, कहीं फ़िल्म और घर-घर की कहानी बयान करते रंग-बिरंगे धारावाहिक। लेकिन क्या आप जानते हैं, इस चमक-दमक के आविष्कारक कौन थे? टेलीविज़न का कब और कैसे आविष्कार हुआ? टेलीविज़न के अतीत-वर्तमान को ही जानने-समझने का सार्थक प्रयत्न करती है यह पुस्तक। वरिष्ठ लेखक-पत्रकार डॉ. श्याम कश्यप और चर्चित युवा टीवी पत्रकार मुकेश कुमार की क़लम-जुगलबन्दी ने टेलीविज़न की कहानी को आप तक पहुँचाने का सफल प्रयास किया है।
टेलीविज़न के विभिन्न आयामों का समावेश करती इस पुस्तक में कुल बारह अध्याय हैं, जिनमें टेलीविज़न की ईजाद और उसके क्रमिक विकास की कहानी के साथ उनके विशिष्ट आन्तरिक संरचना, चरित्र और सामाजिक प्रभावों की भी प्रभावी पड़ताल की गई है। इसमें प्रसंगवश उन तमाम समकालीन प्रश्नों से भी मुठभेड़ करने का प्रयास किया गया है, जिनका सामना टीवी पत्रकार को अक्सर करना पड़ता है।
पुस्तक में टीवी पत्रकारिता से जुड़ी उन तमाम बातों का ज़िक्र है, जिसकी ज़रूरत इस क्षेत्र के छात्रों और पत्रकारों को पड़ती है। यह पुस्तक उन लोगों के लिए मददगार साबित होगी। न सिर्फ़ छात्रों और पत्रकारों के लिए बल्कि आम पाठक, जो टेलीविज़न के इतिहास और उसके संसार को जानना और समझना चाहते हैं, उनके लिए भी उपयोगी और रुचिकर पुस्तक।
Un Social Network
- Author Name:
Geeta Yadav +1
- Book Type:

- Description: ‘अनसोशल नेटवर्क’ किताब भारत के विशिष्ट सन्दर्भों में सोशल मीडिया का सम्यक् आकलन प्रस्तुत करती है। जनसंचार का नया माध्यम होने के बावजूद, सोशल मीडिया ने इस क्षेत्र के अन्य माध्यमों को पहुँच और प्रभाव के मामले में काफी पीछे छोड़ दिया है और यह दुनिया को अप्रत्याशित ढंग से बदल रहा है। इसने जितनी सम्भावनाएँ दिखाई हैं, उससे कहीं अधिक आशंकाओं को जन्म दिया है। वास्तव में राजनीति और लोकतंत्र से लेकर पारिवारिक और व्यक्तिगत सम्बन्धों तथा उत्पादों और सेवाओं की खरीद-बिक्री तक शायद ही कोई क्षेत्र होगा, जो सोशल मीडिया के असर से अछूता हो। यह एक ओर जनसंचार के क्षेत्र को अधिक लोकतांत्रिक बनानेवाला नजर आया तो दूसरी ओर इस क्षेत्र को प्रभुत्वशाली शक्तियों के हित में नियंत्रित करने का साधन भी बना है। ऐसे ही अनेक पहलुओं का विश्लेषण करते हुए यह किताब सोशल मीडिया की बनावट के उन अहम बिन्दुओं की शिनाख्त करती है जो इसे ‘अनसोशल’ बनाती हैं। यह किताब सोशल मीडिया के अध्येताओं के साथ-साथ इसके यूजरों के लिए भी खासी उपयोगी है।
Swatantryottar Hindi ke Vikas Mein 'Kalpana' Ke Do Dashak
- Author Name:
Shashiprakash Choudhary
- Book Type:

-
Description:
अब यह बात मानी जाने लगी है कि हिन्दी साहित्य की बीसवीं सदी का आत्म-संघर्ष उस काल की पत्र-पत्रिकाओं में दबा पड़ा है। इसका मतलब यह है कि इस सदी के साहित्येतिहास की समग्र-समुचित तस्वीर तभी सम्भव है जब प्रत्येक दशक की प्रतिनिधि पत्रिकाओं की सामग्रियों का मूल्यांकन हो। इस प्राथमिक प्रक्रिया के बाद ही बीसवीं सदी के हिन्दी साहित्य के वास्तविक इतिहास का निर्माण सम्भव हो पाएगा। जब तक हम पहले-दूसरे दशक की ‘सरस्वती’ एवं ‘मर्यादा’ को; तीसरे दशक के ‘मतवाला’, ‘माधुरी’ एवं ‘सुधा’ को; चौथे दशक के ‘हंस’ को; पाँचवें दशक के ‘प्रतीक’ एवं छठे-सातवें दशक की ‘कल्पना’ को धुरी मानकर नहीं चलेंगे तब तक हिन्दी साहित्य का वास्तविक इतिहास नहीं लिखा जा सकता है।
प्रस्तुत अनुसन्धान ‘कल्पना’ के सन् 1949 से 1969 तक के अंकों पर आधारित है। सन् 1950 में जिस स्वप्निल लोकतंत्र की आधारशिला रखी जाती है, वह सन् 1969 तक आते-आते मोहभंग के अँधियारे से घिर जाता है। सन् 1969 एक नए भ्रमयुग की शुरुआत है। प्रगतिशील दावों और नारों के साथ इंदिरा गांधी की राजनीतिक यात्रा शुरू होती है। इंडिकेट और सिंडिकेट के संघर्ष में बूढ़ों का दल पराजित होता है। कहना नहीं होगा कि ‘कल्पना’ के बीस सालों का अध्ययन सपने की सुरमई घाटी से गुज़रना भी है। हालाँकि इस सपने से मुक्ति तो सन् बासठ के बाद से ही मिल जाती है लेकिन उनहत्तर तक उस सपने की लम्बी होती छाया से मुक्ति नहीं मिलती। इसलिए उनहत्तर के बाद की 'कल्पना' में वह ऊष्मा और आस्था नहीं है जो पचास के बाद की ‘कल्पना’ में है।
सन् 1969 के बाद 'कल्पना' फिर पहले जैसी हो नहीं सकती थी, क्योंकि समय बदल गया था। अड़तालीस के बाद बीस बरसों में हिन्दी साहित्य, भारतीय मनुष्य, उसकी अस्मिता और संघर्ष, उसके जीवन के प्रकाश और अँधेरे, उनके परिवर्तन और नैतिक चिन्ताओं, उसके सपनों और सच्चाइयों का साक्ष्य है ‘कल्पना’।
Media Ka Underworld
- Author Name:
Dilip Mandal
- Book Type:

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Description:
पेड न्यूज़ वर्तमान मीडिया विमर्श का सबसे चर्चित विषय है। ख़बरें पहले भी बिकती थीं। सरकारों और नेताओं से लेकर कम्पनियाँ और फ़िल्में बनानेवाले तक ख़बरें ख़रीदते रहे हैं। न्यूज़ के स्पेस में विज्ञापन की घुसपैठ नई नहीं है। बदलाव सिर्फ़ इतना है कि पहले खेल पर्दे के पीछे था, अब मीडिया अपना माल दुकान खोलकर और रेट कार्ड लगाकर बेचने लगा है। विलेन के रूप में किसी ख़ास मीडिया हाउस को चिह्नित करना काफ़ी नहीं है। सारा कॉरपोरेट मीडिया ही बाज़ार में बिकने के लिए खड़ा है। समाचार को लेकर जिस पवित्रता, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी की शास्त्रीय कल्पना है, उसका विखंडन हम सब अपनी आँखों के सामने देख रहे हैं। मीडिया छवि बनाता और बिगाड़ता है। इस ताक़त के बावजूद भारतीय मीडिया अपनी ही छवि का नाश होना नहीं रोक सका। देखते–ही–देखते पत्रकार आदरणीय नहीं रहे। लोकतंत्र का चैथा खम्भा आज धूल–धूसरित गिरा पड़ा है। मीडिया की बन्द मुट्ठी क्या खुली, एक मूर्ति टूटकर बिखर गई। यह पुस्तक इसी विखंडन को दर्ज करने की कोशिश है।
देश–काल की बड़ी समस्याओं पर लिखी गई पुस्तकों में आम तौर पर समाधान की भी बात होती है। समस्या का विश्लेषण करने के साथ ही अक्सर यह भी बताया जाता है कि समाधान का रास्ता किस ओर है। इस मायने में यह पुस्तक आपको निराश करेगी। हाल के वर्षों में जनसंचार के क्षेत्र के सबसे विवादित और चर्चित विषय पेड न्यूज़ को केन्द्र में रखकर लिखी गई यह पुस्तक समस्या का कोई समान नहीं सुझाती ।
पुस्तक यह समझने की कोशिश भर है कि पेड न्यूज़ ख़ुद एक बीमारी है, या फिर किसी बड़ी और गम्भीर बीमारी का लक्षण मात्र। पुस्तक में मीडिया अर्थशास्त्र और व्यवसाय की समीक्षा के ज़रिए यह बताने की कोशिश की गई है कि अपनी वर्तमान संरचना की वजह से मीडिया के लिए ख़बरें बेचना अस्वाभाविक नहीं है। मीडिया के लिए कमाई के मुक़ाबले छवि की क़ुर्बानी कोई बड़ी क़ीमत नहीं है।
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