Mukhyamantri
Author:
Chanakya SenPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Unavailable
‘मुख्यमंत्री’ एक राजनीतिक उपन्यास है। इसमें भारत के समकालीन राजनीतिक जीवन का आश्चर्यजनक यथार्थ चित्रण है। यह कृति वर्तमान भारतीय जीवन की तीखी आलोचना है। कृष्ण द्वैपायन कौशल का दुर्धर्ष व्यक्तित्व, उसकी रसिकता, उसके कुटिल राजनीतिक दाँव-पेच, अपने राजनीतिक संगी-साथियों के दोषों और कमज़ोरियों को पहचानने का उसका बुद्धिकौशल तथा सत्ता हथियाने के लिए सिद्धान्तों की भी निर्ममतापूर्वक</p>
<p>हत्या करने में गुरेज़ न करना—इन सबके कारण वह एक जीवन्त और शक्तिशाली चरित्र बन गया है। इसके साथ ही उपन्यास में उन अनेक राजनीतिज्ञों का भी बड़ा मार्मिक चित्रण हुआ है जिन्हें हमने देखा-सुना तो है, पर जिनके बारे में हमने कुछ अस्पष्ट-सी धारणाएँ बना रखी हैं। किन्तु उपन्यासकार ने इन सबको पूरे फ़ोकस में लाकर खड़ा कर दिया है।</p>
<p>‘मुख्यमंत्री’ मूल बांग्ला में 1966 में प्रकाशित हुआ था। अब तक इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। यह एक असाधारण उपन्यास है। भारतीय भाषाओं में लिखे गए राजनीतिक उपन्यासों में मुख्यमंत्री अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। भारतीय राजनीति के चारित्रिक ह्रास को समग्रता में उद्घाटित करता इसका कथानक ऐतिहासिक साहित्यिक दस्तावेज़ बन जाता है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद के वर्षों में राजनीतिक सत्ता पाने और बनाए रखने के लिए जोड़-तोड़ के जिन समीकरणों को स्थापित किया गया उन्होंने ही आगे चलकर सम्पूर्ण भारतीय राजनीति में चारित्रिक प्रदूषण फैलाया है। स्वतंत्रतापूर्व के आदर्श स्वातंत्र्योत्तर भारत की राजनीति में किस प्रकार एकांगी व असहाय हो गए यह भी इस उपन्यास में देखा जा सकता है।</p>
<p>स्वतंत्रता के बाद के वर्षों की यह कथा हमारी आज की व्यथा से अलग नहीं है। यही वजह है कि यह उपन्यास वर्षों बाद भी प्रासंगिक है, बल्कि कहना चाहिए कि आज और अधिक प्रासंगिक है।
ISBN: 9788171785940
Pages: 265
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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आसान दीखनेवाली मुश्किल कृति ‘हमारा शहर उस बरस’ में साक्षात्कार होता है एक कठिन समय की बहुआयामी और उलझाव पैदा करनेवाली डरावनी सच्चाइयों से। बात ‘उस बरस’ की है, जब ‘हमारा शहर’ आए दिन साम्प्रदायिक दंगों से ग्रस्त हो जाता था। आगजनी, मारकाट और तद्जनित दहशत रोज़मर्रा का जीवन बनकर एक भयावह सहजता पाते जा रहे थे। कृत्रिम जीवन-शैली का यों सहज होना शहरवासियों की मानसिकता, व्यक्तित्व, बल्कि पूरे वजूद पर चोट कर रहा था।
बात दरअसल उस बरस भर की नहीं है। उस बरस को हम आज में भी घसीट लाए हैं। न ही बात है सिर्फ़ हमारे शहर की। ‘और शहरों जैसा ही है हमारा शहर’—सुलगता, खदकता—‘स्रोत और प्रतिबिम्ब दोनों ही’ मौजूदा स्थिति का। एक आततायी आपातस्थिति, जिसका हल फ़ौरन ढूँढ़ना है; पर स्थिति समझ में आए, तब न निकले हल। पुरानी धारणाएँ फिट बैठती नहीं, नई सूझती नहीं, वक़्त है नहीं कि जब सूझें, तब उन्हें लागू करके जूझें स्थिति से। न जाने क्या से क्या हो जाए तब तक। वे संगीनें जो दूर हैं उधर, उन पर मुड़ीं, वे हम पर भी न मुड़ जाएँ, वह धूल-धुआँ जो उधर भरा है, इधर भी न मुड़ आए।
अभी भी जो समझ रहे हैं कि दंगे उधर हैं—दूर, उस पार, उन लोगों में—पाते हैं कि ‘उधर’ ‘इधर’ बढ़ आया है, ‘वे’ लोग ‘हम’ लोग भी हैं, और इधर-उधर वे-हम करके ख़ुद को झूठी तसल्ली नहीं दी जा सकती। दंगे जहाँ हो रहे हैं, वहाँ ख़ून बह रहा है। सो, यहाँ भी बह रहा है, हमारी खाल के नीचे।
अपनी ही खाल के नीचे छिड़े दंगे से दरपेश होने की कोशिश ही इस गाथा का मूल। ख़ुद को चीरफाड़ के लिए वैज्ञानिक की मेज़ पर धर देने जैसा। अपने को नंगा करने का प्रयास ही अपने शहर को समझने, उसके प्रवाहों को मोड़ देने की एकमात्र शुरुआत हो सकती है। यही शुरुआत एक ज़बरदस्त प्रयोग द्वारा गीतांजलि श्री ने ‘हमारा शहर उस बरस’ में की है। जान न पाने की बढ़ती बेबसी के बीच जानने की तरफ़ ले जाते हुए।
Patthar Par Doob
- Author Name:
Sunder Chand Thakur
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Description:
सुपरिचित युवा कवि और पत्रकार सुन्दर चन्द ठाकुर का यह पहला उपन्यास ‘पत्थर पर दूब’ ऊपरी तौर पर पहाड़ की सुन्दरता और निश्छलता से निकलकर मैदानी कठोरताओं और संघर्षों की ओर जानेवाला कथानक लग सकता है, लेकिन अपनी गहराई में उसका ताना-बाना तीन स्तरों पर बुना हुआ है। इन स्तरों पर तीन समय, तीन पृष्ठभूमियाँ और तीन घटनाक्रम परस्पर आवाजाही करते हैं। कथा साहित्य में फ़्लैशबैक का उपयोग एक पुरानी और परिचित प्रविधि है, लेकिन ‘पत्थर पर दूब’ में इस तकनीक का इस्तेमाल इतने नए ढंग से हुआ है कि तीनों समय एक ही वर्तमान में सक्रिय होते हैं। कुमाऊँ के एक गाँव से निकलकर फ़ौज में गए नौजवान विक्रम के जीवन का सफ़र अगर एक तरफ़ उसके आन्तरिक द्वन्द्वों और ऊहापोहों को चिह्नित करता है तो दूसरी तरफ़ उसमें फ़ौजी तंत्र में निहित गिरावट की चीरफाड़ भी विश्वसनीय तरीक़े से मिलती है।
सुन्दर चन्द ठाकुर ने इस कथानक को मुम्बई पर हुए आतंकी हमलों से निपटने के लिए की गई कमांडो कार्रवाई से जोड़कर एक समकालीन शक्ल दे दी है। घर-परिवार से विच्छिन्न होता हुआ और पिता और प्रेमिका को खो चुका यह नौजवान कमांडो जिस जाँबाजी का प्रदर्शन करता है, उसके फल से भी वह वंचित रहता है। इसके बावजूद वह किसी त्रासदी का नायक नहीं है, बल्कि हमारे युग का एक ऐसा प्रतिनिधि है जो एक सफ़र और एक अध्याय के पूरा होने पर किसी ऐसी जगह और ऐसे धुँधलके में खड़ा है जहाँ से उसे आगे जाना है और अगली यात्रा करनी है जिसका गन्तव्य भले ही साफ़ न दिखाई दे रहा हो।
सुन्दर चन्द ठाकुर इससे पहले अपने दो कविता-संग्रहों—‘किसी रंग की छाया’ और ‘एक दुनिया है असंख्य’—से एक महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं। उनकी कई कहानियाँ भी चर्चित हुई हैं और अब उनका पहला उपन्यास उनकी रचनात्मक प्रतिभा और सामर्थ्य के एक उत्कृष्ट नमूने के रूप में सामने है।
किसी रचना का पठनीय होना कोई अनिवार्य गुण नहीं होता, लेकिन अगर अच्छे साहित्य में पाठक को बाँधने और अपने साथ ले चलने की क्षमता भी हो तो उसकी उत्कृष्टता बढ़ जाती है। ‘पत्थर पर दूब’ के शिल्प में पहाड़ी नदियों जैसा प्रवाह है जिसमें पाठक बहने लगता है और भाषा में ऐसी पारदर्शिता है कि कथावृत्त में घटित होनेवाले दृश्य दिखने लगते हैं। उपन्यास जीवन की कथा के साथ-साथ मनुष्य के मन और मस्तिष्क की कथा भी कहता है और इस लिहाज़ से ‘पत्थर पर दूब’ एक उल्लेखनीय कृति बन पड़ी है।
—मंगलेश डबराल
Mahashveta
- Author Name:
Tarashankar Bandyopadhyay
- Book Type:

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Description:
सुविख्यात बांग्ला उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय की यह पुस्तक कथावस्तु और रचना-शिल्प की दृष्टि से एक अनूठी और मार्मिक कथाकृति है।
माता-पिताविहीन नीरजा नामक एक बालिका का जैसा चरित्र-चित्रण यहाँ हुआ है, वह सिर्फ़ तारा बाबू जैसे कथाकार ही कर सकते हैं। पशुवत् मनुष्यों के लोभ, कुत्सा और समाज की कुरूपताओं से अनथक संघर्ष करती हुई नीरजा मानो तेजोद्दीप्त भारतीय नारी का प्रतीक बनकर उभरती है, जिसमें परदुख-कातरता भी है और उसके लिए आत्मोत्सर्ग की भावना भी। एक ओर वह अनाचार से जूझने के लिए जलती हुई मशाल है, तो दूसरी ओर उसके अन्तर में प्रेम की अन्तःसलिला प्रवाहित हो रही है। नारी की आत्मनिर्भरता उसके जीवन का मूलमंत्र है, जिसे वह सम्मानपूर्वक जीने की पहली शर्त मानती है। वस्तुतः तारा बाबू ने इस उपन्यास में स्थितियों और परिवेश को नाटकीयता प्रदान करके विलक्षण प्रभाव उत्पन्न किया है।
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