Mahabharat : Ek Navin Rupantaran
Author:
Shiv K. KumarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 319.2
₹
399
Available
‘महाभारत’ विश्व-इतिहास का प्राचीनतम महाकाव्य है। होमर की ‘इलियड’ और ‘ओडीसी’ से कहीं ज़्यादा प्रवीणता के साथ परिकल्पित और शिप्लित यह रचनात्मक कल्पना की अद्भुत कृति है। ऋषि वेदव्यास द्वारा ईसा के प्रायः 2000 वर्ष पूर्व रचित इस महाकाव्य में लगभग समस्त मानवीय मनोभावों—प्रेम और घृणा, क्षमा और प्रतिशोध, सत्य और असत्य, ब्रह्मचर्य और सम्भोग, निष्ठा और विश्वासघात, उदारता और लिप्सा—की सूक्ष्म प्रस्तुति मिलती है।</p>
<p>यों तो ‘महाभारत’ भारतीय मानस में रचा-बसा ग्रन्थ है, पर इसने सम्पूर्ण विश्व के पाठकों को आकर्षित किया है। शायद इसीलिए इस महाकाव्य का रूपान्तर विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में हुआ है। परन्तु विस्मय होता है यह देखकर कि ज़्यादातर रूपान्तरों में इसकी क्षमता का प्रतिपादन एक काव्यात्मक सौन्दर्य और सुगन्ध से समृद्ध कथा के रूप में नहीं हो पाया है। सम्भवतः इसलिए कि लेखकों ने मूलतः इसके कहानी पक्ष को ही प्रधानता दी।...किन्तु इस पुस्तक के लेखक शिव के. कुमार ने इसी कारण इस महाकाव्य में कुछ रंग और सुगन्ध भरने का प्रयास किया है।</p>
<p>यह वस्तुतः ‘महाभारत’ का एक नवीन रूपान्तर है। ‘महाभारत’ एक अद्वितीय रचना है। यह काल और स्थान की सीमाओं से परे है। इसलिए हर युग में इसके साथ संवाद सम्भव है। वर्तमान युग में भी सामाजिक न्याय, राजनीतिक स्वार्थजनित राष्ट्र विभाजन, नारी सशक्तिकरण और राजनेताओं के आचरण के सन्दर्भों में इसका आर्थिक औचित्य है। अंग्रेज़ी से हिन्दी में इस कृति का अनुवाद करते हुए प्रभा के. सिंह ने हिन्दी भाषा की प्रकृति का विशेष ध्यान रखा है। समग्रतः एक अनूठी रचना।
ISBN: 9788126723300
Pages: 344
Avg Reading Time: 11 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
श्रीकृष्ण और गोपियों का सम्बन्ध पूर्ण रूप से परमात्मा को समर्पित जीवात्मा का सम्बन्ध है। स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं—“मेरी प्रिय गोपियो, तुम लोगों ने मेरे लिए घर-गृहस्थी की उन समस्त बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीर से अनन्त काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का प्रतिदान देना चाहूँ, तो भी नहीं दे सकता। मैं जन्म-जन्म के लिए तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभाव और प्रेम से मुझे उऋण कर सकती हो, परन्तु मैं इसकी कामना नहीं करता। मैं सदैव चाहूँगा कि मेरे सर पर सदा तुम्हारा ऋण विद्यमान रहे।”
एक ऐसा उपन्यास जिसे आप पढ़ना शुरू करेंगे, तो बिना समाप्त किए रख नहीं पाएँगे। ऐसी अद्भुत कृति की रचना वर्षों बाद होती है। औपन्यासिक विधा में लिखा गया यह उपन्यास श्रीकृष्ण का यशोदानन्दन के रूप में वर्णित भाँति-भाँति की लीलाएँ अपने वितान में समेटे हुए हैं, जो समस्त हिन्दी पाठकों के लिए सिर्फ़ पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी है।
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