Jheel Ka Naam Sagar Hai
Author:
Prabhat Kumar BhattacharyaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
‘झील का नाम सागर है’ एक कस्बे के जनजीवन के आरोहों-अवरोहों की कथा है जिसका नाम है हरिपुर। हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता की तरह हरिपुर और वहाँ रहने वाले लोगों की कथा भी सच कहें तो कभी खत्म होने वाली नहीं है। हरिपुर के सामाजिक जीवन में इतनी पेंच-परतें हैं कि जहाँ एक सिरा बन्द होता है वहीं दूसरा खुलने लगता है। पाठक देखेंगे कि यह उपन्यास जितना कुछ व्यक्त करता है उससे कहीं अधिक का संकेत करता चलता है और इस तरह हरिपुर और उसके रहवासियों की यह कथा उत्तर भारत के किसी भी कस्बे और वहाँ के लोगों की प्रतिनिधि कथा बन जाती है। पाठक सहज ही इसमें अपने आस-पास के लोगों को पहचानने लगता है और इस कथा से स्वयं को भी अभिन्न रूप से जुड़ा पाता है।</p>
<p>उपन्यास में एक विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रसंग आता है जिसके जरिये हरिपुर की सियासत अपनी पूरी रंगत के साथ प्रत्यक्ष हो उठती है। यह पूरा प्रकरण जितना रोचक है उतना ही करुण भी है। इससे पता चलता है कि हमारे बड़े स्वप्नों की जड़ में भी कितनी क्षुद्रताएँ मौजूद रहती है जिन्हें प्राय: हम राजनीति कहकर नजरअंदाज कर देते हैं।</p>
<p>कस्बाई जीवन के विस्तृत विवरण इस उपन्यास को अतिरिक्त पठनीयता प्रदान करते हैं।
ISBN: 9788119989881
Pages: 256
Avg Reading Time: 9 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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डोरा ब्रूडर, उम्र पन्द्रह साल, यहूदी। स्कूल के रजिस्टर में उसके नाम के आगे ‘जाने की तारीख़ और कारण’ का सिर्फ़ यह विवरण मिलता है : ‘14 दिसम्बर, 1941; शिष्या भाग गई है।’ यह उपन्यास उसी की तलाश की कहानी है जिसे लेखक लगभग पाँच दशक बाद पेरिस पर जर्मन क़ब्ज़े के बचे-खुचे दस्तावेज़ों में करता है।
कड़ी से कड़ी जुड़ती जाती है, और अन्त में पता चलता है कि स्कूल से निकलने के बाद वह जर्मनों की पकड़ में आ गई, और उसे आउशवित्ज़ के लिए रवाना कर दिया गया जहाँ एक पूरी क़ौम को ख़त्म करने के लिए नाज़ियों ने तमाम अमानवीय इन्तज़ाम कर रखे थे।
डोरा ब्रूडर इस उपन्यास की मुख्य पात्र है, लेकिन असल नायक वह माहौल है जो पेरिस पर जर्मन क़ब्ज़े के बाद वहाँ पैदा हुआ, और जिसे लेखक ने अत्यन्त कौशल के साथ यहाँ पुन:सृजित किया है। एक ऐसा दौर जब अनेक मनुष्यों के लिए न सूरज के पास रोशनी बची थी, न आकाश के पास हवा, न घर उन्हें छिपा पाते थे, न सड़कें कहीं पहुँचा पाती थीं। उन्हें कभी भी कहीं भी पकड़ा जा सकता था, उनके लिए नियम बन गए थे, जो उन्हें उनके ही जैसे मनुष्यों के बीच कम-मनुष्य बनाते थे। उन्हें निर्धारित समय पर निकलना था, निर्धारित इलाक़ों में रहना था, निर्धारित बसों में चलना था, और हर समय अपनी पहचान को ज़ाहिर रखना था।
दिसम्बर की बर्फ़ीली रात में निकली डोरा के साथ कब क्या हुआ, कब वह कहाँ रही, यह खोजते हुए जैसे-जैसे लेखक आगे बढ़ता है इस माहौल की भयावहता हमारे सामने साकार होती जाती है, हम भीतर से ठंडे और सुन्न पड़ते जाते हैं और सहसा चौंककर अपने आज के वातावरण को देखने लगते हैं...
Mithila
- Author Name:
Amrit Tripathi
- Book Type:

- Description: मिथिला और कुसुमाकर के अधूरे प्रेम की कहानी है। उनमें भी मिथिला की ज़्यादा, कुसुमाकर की कम। एक पारम्परिक, संस्कारी परिवार की संगीत-प्रेमी मिथिला अन्तत: इस संसार से उस प्रेम के बिना ही विदा हो गई जिस प्रेम की प्यास उसकी आत्मा तक भरी हुई थी। संगीत में गहरी रुचि का धनी कुसुमाकर जीवन की आवश्यकताओं के मद्देनज़र पहले उससे दूर चला जाता है, उसे ख़्याल भी नहीं आता कि जिस मिथिला को वह अपने ऑटोग्राफ़ देकर चला आया है, वही एक दिन उसके जीवन में लौटेगी। वह लौटी और उसकी अतृप्त रूह का एकमात्र आसरा बन गई, पर तब तक वह किसी और की हो चुकी थी। कोई ऐसा व्यक्ति उसके जीवन का कर्णधार हो गया था जो उसके मन को नहीं समझता था। लेकिन जो उसे आपादमस्तक समझता-जानता था, क्या वह उसका हो सकता था? नहीं। अन्तत: वही हुआ। मृत्यु-शैया पर लेटी हुई मिथिला ने उसे अपना अन्तिम पत्र लिखा, और उसके प्रति अपनी आत्मा में बसे प्यार को स्वीकार करते हुए बताया कि वह जा रही है, उस अज्ञात की ओर जहाँ हो सकता है वे कभी मिलें, या हो सकता है कभी नहीं मिलें। गहरे प्रेम से पगी इस प्रेम-कथा को पढ़ना अधूरी और अतृप्त रूहों से भरे हमारे वर्तमान को एक राहत देता है, और हमें सोचने पर भी विवश करता ह
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