Nayan Rahasya
Author:
Satyajit RayPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
रहस्य-रोमांच के बेजोड़ लेखक और प्रख्यात फ़िल्मकार सत्यजित राय द्वारा रचित जासूस फेलूदा का एक अत्यन्त रोचक कारनामा है—‘नयन रहस्य’।</p>
<p>अपनी पहचान कायम करने में जुटे एक युवा जादूगर का आमंत्रण पाकर फेलूदा और उनके साथी उसका शो देखने जाते हैं। वहाँ उन्हें पता चलता है उस युवा जादूगर की असाधारण सम्मोहन शक्ति और एक ऐसे बालक ज्योतिष्क का जिसके पास किसी भी व्यक्ति पर सिर्फ एक नजर डालकर उसके बारे में सब कुछ बता देने की अलौकिक क्षमता है। ज्योतिष्क का जादू देखने से उपजा रोमांच ज्यादा देर तक नहीं टिकता और फेलूदा के सामने एक बेहद पेचीदा मामला आ जाता है।</p>
<p>मामला है ज्योतिष्क की सुरक्षा का। उसकी आश्चर्यजनक क्षमता में अपार कमाई की सम्भावना देख रहे कई लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं। नतीजन ज्योतिष्क खतरे में पड़ जाता है।</p>
<p>फिर तो उसे बचाने के चक्कर में तू डाल-डाल, मैं पात-पात का ऐसा खेल शुरू होता है कि उपन्यास के आखिरी पन्ने तक पहुँचने से पहले आप अनुमान भी नहीं लगा सकते कि ज्योतिष्क का असल दुश्मन कौन है?
ISBN: 9789395328098
Pages: 120
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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कृष्णा जी का सबसे पहला उपन्यास है ‘चन्ना’ जिसे पिछली सदी के पाँचवें दशक में ही पाठकों तक पहुँच जाना था, लेकिन यह नहीं हो सका। प्रकाशक ने एक नए लेखक की भाषा में बदलाव करने की कोशिश की तो लेखक ने अपने पाठ के शील-सौन्दर्य की रक्षा हेतु उसे वापस ले लिया। तब से अब तक विभाजन-पूर्व भारत के खेतिहर समाज और उस परिवेश में जन्म लेकर पलती-बढ़ती-लड़ती चन्ना की यह गाथा लेखक के तहखाने में खामोशी से इन्तज़ार करती रही।
अब ‘चन्ना’ पाठकों के सामने है और अपनी चेतना के रूप-स्वरूप से आपको हैरान करने जा रही है। चन्ना का पारिवारिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य भारत के उस समय का है जब दुनिया के अग्रणी मुल्कों में भी स्त्री-स्वतंत्रता की बहुत सुगबुगाहट नहीं थी। लेकिन चन्ना ठीक उन्ही अर्थों में आधुनिक है जिन्हें हम आज जानते हैं। पैदाइश के वक़्त ही माँ की छाया से वंचित, पिता के स्नेह से दूर, नाना-नानी के प्यार-तले पली-बढ़ी चन्ना आज़ाद ख़याल है, शिक्षित है, और सबसे ज़्यादा ध्यान देने लायक़ यह कि अपने अधिकार को लेकर सजग है । और यह अधिकार उसके व्यक्तित्व की हदों तक सीमित नहीं, उन ज़मीनों और खेतों तक फैला है जिन्हें वह अपने पुरखों की ओर से मिला दायित्व भी मानती है।
कृष्णा सोबती कभी भी उन स्त्रीवादी लेखकों में नहीं रहीं जो हिन्दी में अक्सर फ़ैशन में रहे। उन्होंने स्त्रीत्व और पुरुषत्व को दो अलग खाने कभी नहीं माना। उनका ज़ोर व्यक्ति के उस आत्मबोध को जगाने पर रहा है जो किसी भी देह में प्रकट होकर प्रकाश देता है—वह देह स्त्री की हो या पुरुष की। ‘चन्ना’ इसी आत्मबोध का साकार रूप है जिसे कृष्णा जी ने आज से लगभग सात दशक पहले गढ़ा था। यह अपनी ज़मीन, अपनी विरासत से निकलती स्त्री है जिसे हम चन्ना की व्यक्ति-सत्ता में देखते हैं।
Main Aur Main
- Author Name:
Mridula Garg
- Book Type:

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रचनात्मकता का पल्लवन बेल की तरह आधार चाहता है, भले ही कैसा भी हो बस आकाश की ओर अवलम्बित, जिसके सहारे ऊँचाइयाँ पाई जा सकें। ‘मैं और मैं’ इन्हीं भटकाते आधारों का अन्तर्द्वन्द्व है। मृदुला गर्ग का यह उपन्यास अपने भीतर के जगत को सच की तपिश से बचाने की प्रवृत्ति को भी रेखांकित करता है, क्योंकि सत्य से साक्षात्कार करें तो भीतर अपराधबोध पनपता है और झूठ में शरण लेने की लालसा...।
‘मैं और मैं’ कहानी है मृदुला गर्ग के दो कलात्मक और सशक्त पात्रों—कौशल कुमार और माधवी—के बनते–टूटते सामाजिक और नैतिक आग्रहों की। लेखिका के अनुसार, “क्या था माधवी और उसके बीच?” उसके नहीं, माधवी और उसके पति के बीच? कौशल जैसे प्याले में गिरी मक्खी हो। उसे देखकर वे चीख़े नहीं थे, यह उनकी शालीनता थी। मक्खी पड़ा प्याला अलग हटाकर अपने–अपने प्यालों से चाय पीते रहे थे। लग रहा था वे अलग–अलग नहीं, एक ही प्याले से चाय पी रहे हैं और कौशल छटपटाकर बाहर निकल गया है। भिनभिन करके पूरी कोशिश कर रहा है कि उनके सामीप्य में अवरोध पैदा कर दे, पर उसकी भिनभिनाहट उनका मनोरंजन कर रही है, सामीप्य का गठबन्धन और मज़बूत कर रही है। जुगुप्सा, वितृष्णा, हिंसा कुछ भी तो नहीं था, जो उसके अस्तित्व–बोध को बनाए रखता।
एक ओर कौशल का अपने अतीत के लिए समाज को दोषी ठहराना और इस तर्क की बिना पर समाज की भरपूर अवहेलना, वहीं माधवी का समाज की खौफ़नाक होती शक्ल में अपनी चुप्पी को ज़िम्मेदार मानना। बाद में कौशल की नज़दीकी से वह स्वीकारती है कि सृजन के लिए सब कुछ जायज है, मानवीय रिश्तों का बेहिस्स इस्तेमाल भी...।
Jhool
- Author Name:
Bhalchandra Nemade
- Book Type:

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झूल उस दारुण परिणति का वृत्तान्त है जहाँ स्वातंत्र्योत्तर भारत की युवा पीढ़ी अपने व्यक्तिगत सपनों तथा जातीय आदर्शों और आकांक्षाओं के बीच के अन्तर को पाटने की कोशिश में पहुँची है। उपन्यास का नायक चांगदेव पाटील अपने अस्तित्व के उद्देश्य और नैतिक आदर्शों को समाज में व्याप्त संकीर्णताओं के बीच एकदम असंगत पाता है। यह अनुभव उस समय और प्रगाढ़ हो जाते हैं जब वह एक नए कॉलेज में प्रोफेसर बनकर आता है। पिछले कॉलेज के कटु अनुभव अभी भी उसके साथ हैं लेकिन जिस भावात्मक औदात्य को उसने अपनी जीवन-दृष्टि का आधार बनाया है, उसे भी उसने छोड़ा नहीं है। अपने एकाकी मन को वह समाज की बड़ी संरचना में विलय कर देना चाहता है लेकिन आसपास के जीवन और लोगों में कोई ऐसी मूल्य-चेतना उसे नहीं दिखती जो उन्हें उनकी तुच्छताओं से ऊपर उठा सके। समाज की यह असफलता उसके व्यक्ति को घोर निराशा से भर देती है। लगातार जगह बदलते हुए उसने जो पाया है, वह यही कि जीवन अन्ततः अर्थहीन ही है।
तीक्ष्ण दृष्टि और उतनी ही तीक्ष्ण शब्दावली के साथ भारतीय समाज की पड़ताल करने वाले नेमाड़े इस उपन्यास में ‘होने’ और ‘नहीं होने’ के द्वन्द्व को इतनी गहराई से अंकित करते हैं कि इस शृंखला के अन्य उपन्यासों की तरह यह उपन्यास भी कथा से अधिक एक अध्ययन हो जाता है।
झूल स्वतंत्र रूप से भी उतना ही दिलचस्प और पूर्ण पाठ है, जितना कि शृंखला की एक कड़ी के रूप में। यह एक बड़ी विशेषता है।
Saat Aasmaan
- Author Name:
Asghar Wajahat
- Book Type:

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यह उपन्यास लम्बे कालखंड, लगभग चार सौ साल के दौरान एक परिवार की कहानी है। इसमें मौखिक परम्परा, कहीं-कहीं वातावरण बनाने के लिए इतिहास और कहीं निजी अनुभवों का सम्मिश्रण है। एक तरह से यह लम्बा बयान है जो पात्र स्वयं देते हैं। लेखक भी एक द्रष्टा है। पात्र न तो उसके बनाए हुए हैं और न उसके वश में हैं। अपनी गति और स्थितियों के अनुसार वे जो अनुभव करते हैं, जैसा व्यवहार करते हैं, वह उपन्यास में उन्ही की जुबानी आया है। एक तरह से इस उपन्यास को शास्त्रीय परिभाषा के अन्तर्गत भी नहीं रखा जा सकता क्योंकि इसमें वह एकसूत्रता नहीं है जो प्रायः उपन्यासों में होती है। यदि इसका कोई सूत्र है तो वह जीवन है जो लगातार बदल रहा है और नए-नए साँचों में ढल रहा है।
लम्बे विवरण और संवाद या पात्रों की सोच उन्हें उधेड़ती चली जाती है। अच्छा क्या है? बुरा क्या है? जीवन जीने का सही तरीक़ा क्या है? जीवन क्या है? वे लोग कैसे थे जिनकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती? —आदि सवालों के जवाब उपन्यास नहीं देता, न उन पर कोई ‘वैल्यू जजमेंट’ देता है। वह केवल पात्रों और परिस्थितियों को उद्घाटित करने में ही व्यस्त है।
‘सात आसमान’ भारत के सामन्ती समाज के कई युगों को उद्घाटित करता है। इसके साथ-साथ हर युग के मनुष्य और उसके सरोकारों को समझना ही उपन्यास का विषय है। न तो इसमें किसी को गौरवान्वित किया गया है और न किसी को निन्दनीय माना गया है। कहीं मानवीय सम्बन्ध बहुत सशक्त और गहरे दिखाई देते हैं तो कहीं पतनशीलता की चरम सीमा तक पहुँच गए हैं।
उपन्यास में अतीत के प्रति कोई मोह नहीं है। यह अतीत को वर्तमान के सन्दर्भ में या एक लम्बी यात्रा के पिछड़े पड़ावों को समझने के रूप में ही लेता है। उपन्यास में ‘नास्टैल्जिया’ भी नहीं है। हो सकता है कि पात्रों के अन्दर जाने की कोशिश यह दिखाए कि लेखक पात्रों की परतें उघाड़ते हुए निर्मम ज़रूर हो गया है, लेकिन वह सब जो कुछ हुआ है इसे न तो लेखक बदल सकता था और न बदलना चाहता ही था।
किसी प्रकार की वैचारिकता या बौद्धिकता या दार्शनिकता या प्रतिबद्धता को आरोपित न करते हुए भी यह उपन्यास निश्चय ही दृष्टिसम्पन्न उपन्यास है क्योंकि यह यथार्थ को उसकी पूरी समग्रता और गतिशीलता में पकड़ता है। चाहें तो इसके माध्यम से सामाजिक रिश्तों, राजनीतिक हलचलों और सांस्कृतिक विकास के बिन्दुओं को रेखांकित किया जा सकता है। पर यह सब पाठकों या आलोचकों पर निर्भर है। यानी यह ‘इंटरप्रेटेशन’ के खुला हुआ है।
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