Kaun Des Ko Vasi : Venu Ki Diary
Author:
SuryabalaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 479.2
₹
599
Available
प्रवासी भारतीय होना भारतीय समाज की महत्त्वाकांक्षा भी है<strong>, </strong>सपना भी है<strong>, </strong>कैरियर भी है और सब कुछ मिल जाने के बाद नॉस्टेल्जिया का ड्रामा भी। लेकिन कभी-कभी वह अपने आप को<strong>, </strong>अपने परिवेश को<strong>, </strong>अपने देश और समाज को देखने की एक नई दृष्टि का मिल जाना भी होता है। अपनी जन्मभूमि से दूर किसी परायी धरती पर खड़े होकर वे जब अपने आपको और अपने देश को देखते हैं तो वह देखना बिलकुल अलग होता है। भारतभूमि पर पैदा हुए किसी व्यक्ति के लिए यह घटना और भी ज़्यादा मानीख़ेज़ इसलिए हो जाती है कि हम अपनी सामाजिक परम्पराओं, रूढ़ियों और इतिहास की लम्बी गुंजलकों में घिरे और किसी मुल्क के वासी के मुक़ाबले क़तई अलग ढंग से ख़ुद को देखने के आदी होते हैं। उस देखने में आत्मालोचन बहुत कम होता है। वह धुँधलके में घूरते रहने जैसा कुछ होता है। विदेशी क्षितिज से वह धुँधलका बहुत झीना दीखता है और उसके पर बसा अपना देश ज़्यादा साफ़।</p>
<p>इस उपन्यास में अमेरिका-प्रवास में रह रहे वेणु और मेधा ख़ुद को और अपने पीछे छूट गई जन्मभूमि को ऐसे ही देखते हैं। उन्हें अपनी मिट्टी की अबोली कसक प्राय: चुभती रहती है—वे अपने परिवार जनों और उनकी स्मृतियों को सहेजे जब स्वदेश प्रत्यावृत्त होते हैं तो उनकी परिकर-परिधि में आए जन उनके रहन-सहन, आत्मविश्वास से प्रभावित होते हैं, किन्तु वेणु और मेधा के दु:ख, उदासी और अकेलापन नेपथ्य में ही रहते हैं। नई पीढ़ी की आकांक्षाओं में सिर्फ़ और सिर्फ़ बहुत सारा धनोपार्जन ही है ताकि एक बेहतर ज़िन्दगी जी सके, जबकि अमेरिका गए अनेक प्रवासी डॉलर के लिए भीतर ही भीतर कई संग्राम लड़ते हैं। कैरम की गोटियों को छिटका देनेवाली स्थितियाँ हैं, पर निर्मम चाहतें।</p>
<p>वरिष्ठ कथाकार सूर्यबाला का यह बृहत् उपन्यास एक विशाल फलक पर देश और देश के बाहर को उजागर करता है। इसका वितान जितना विस्तृत है उतना ही गझिन भी, मनुष्य-संवेदना और खोने-पाने की विकलताएँ जैसे यहाँ एक बड़े फ़्रेम में साकार हो उठी हैं।
ISBN: 9789388183062
Pages: 408
Avg Reading Time: 14 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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दो मनुष्य देखने में एक जैसे नहीं होते—शायद दो फूल भी नहीं। जीवन के अनुभव भी विभिन्न और विचित्र होते हैं। एक के लिए जो सत्य है, वह दूसरे के लिए नहीं। इसीलिए जीवन के बहुत-से पहलू अछूते और अनदेखे रह जाते हैं। उनको छूना और देखना भी जोखिम से ख़ाली नहीं है। श्लील-अश्लील का सवाल आड़े पड़ता है।
मिसेज डी’सा बड़ी भली औरत है। लेकिन पति की मृत्यु के बाद वह अपने बेटे के बराबर एक लड़के से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करती है। आदिम जैविक शुहग के आगे उसकी वह हार क्या सत्य नहीं है? है। उसी कटु सत्य को बिमल बाबू ने सुन्दर बनाया है। चहेते लड़के के हाथ अपने बेटे की हत्या के बाद भी मिसेज डी’सा उस सत्य से नहीं डिग सकी। न्यायाधीश के सामने अन्तिम गवाही के वक़्त भी उस चहेते लड़के की तरफ़ देखते ही वह हत्या का आरोप अपने ऊपर ले लेती है।
नारी भी आख़िर मनुष्य है। नारीत्व मनुष्यत्व से अलग कोई चीज़ नहीं है। इसलिए नारीत्व के आगे मातृत्व की हार स्वाभाविक है। लेकिन उस स्वाभाविकता का बयान कितना मुश्किल है। इसे बिमल बाबू ने स्वीकार किया है।
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