Gauravshali Bharat
Author:
Ed. Prabhat JhaPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 560
₹
700
Unavailable
"हुआ यूँ कि हम गणतंत्र और आजादी के पर्व मनाते रहे, पर आकलन के पर्व से दूर रहे। हम जहाँ नहीं पहुँचे, वहाँ हम आँकड़ों से पहुँच गए और आँकड़ों की जुगाली में देश पिसता रहा। आजादी के समय उत्पन्न सवाल आज भी जस के तस, मसला अनुच्छेद-370 या पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का मामला हो या पूर्वोत्तर की समस्या हो या राष्ट्रभाषा, राष्ट्रगान या राष्ट्रधर्म की बात हो, ये सवाल समाप्त नहीं हुए। गंगा खतरे में, यमुना सूख गई, सरस्वती लुप्त हो गई, वंशवाद के थपेड़ों से कराह रहा लोकतंत्र, संवैधानिक संस्थाओं की आस्था पर राजनैतिक चोट, गरीबी में अव्वल, भ्रष्टाचार में शिखर पर, जैसे अहम सवाल आज भी उत्तर की तलाश में भटक रहे हैं।
इन समस्याओं का समाधान संभव है, उसके लिए अद्भुत जिजीविषा और अदम्य इच्छाशक्ति चाहिए। ‘गौरवशाली भारत’ ग्रंथ ऐसे शब्दसाधकों, सरस्वती के उपासकों और भारतमाता को वैभव पर पहुँचाने का स्वप्न देखनेवाले मनीषियों की सृजनशीलता और रचनाधर्मिता के व्यापक अनुभवों का खजाना है जो एक समर्थ, सशक्त, सबल, स्वाभिमानी भारत के पथ को आलोकित करेगा।
ISBN: 9789350480854
Pages: 320
Avg Reading Time: 11 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
नीली दीवार की परछाइयाँ बहुत धीमे से मन के अन्तर्लोक में प्रवेश करती है। दो साँसों के बीच के अन्तराल में जैसे दीवार पर परछाइयाँ काँपती, सिहरती अपनी कहानी कहती हैं। रौशन बी, राहिला उर्फ़ तलजीत, अमू और अपूर्वा, इन सबके जरिए एक रहस्य बहुत परतों में, बहुत धीरे-से उजागर होता है, जैसे नेपथ्य में जो जीवन था उस पर से किसी ने पर्दा उठा दिया हो।
अनघ के पास भावों की गहराई है, शब्दों और भाषा की जादूगरी है जिसके माध्यम से बहुत मीठेपन में, बहुत बिम्बात्मक तरीक़े से परत-दर-परत कथा खुलती है। भाषा की नज़ाकत के साथ-साथ कथा का रहस्य-रूमान, अवसाद, सुख सब तरंगित होता चलता है। इस उपन्यास में गाँव है, शहर है, देश है, विदेश है, वर्तमान है, अतीत भी है। सारी दुनिया हमारे सामने कभी प्रगट तो कभी सांकेतिक रूप में किसी दृश्य-परिदृश्य की तरह से बहती चलती है। अनघ बहुत प्रत्यक्ष का शिल्प नहीं चुनते। हर बार वो उतनी ज़मीन छोड़ते चलते हैं जहाँ से पाठक भी अपनी कल्पना में उस दुनिया को अपने तरीक़े और नज़र से देखता चले। किताब जब ख़त्म होती है उसका आस्वाद आपके मन में बना रहता है।
राहिला की बीमारी और उसके पिता द्वारा छोड़े जाने की कथा, रौशन बी का अपने चाचा, ताऊ द्वारा बेचा जाना और अमू का बिन पिता के बड़े होना, इन परिस्थितियों के गिर्द अनकहे की, चुप्पियों और तकलीफ़ों की एक दुनिया अनघ बसाते हैं जिसकी उदास छाया बहुत देर तक बनी रहती है—पुराने ज़ख़्म की टीस जैसे। उनके लिखे में एक इंटेंस किस्म का रचाव दिखता है जो पाठक की उँगली थाम उसे उन बीहड़ गलियों में लिए चलता है जिसकी स्मृति में हम कभी प्रसन्न और कभी अनमने उदास हो उठते हैं।
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