Kavita Ka Janpad
Author:
Ashok VajpeyiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 796
₹
995
Available
इस संचयन में कविता के समाज के साथ अन्तर्सम्बन्ध, उसका आत्म-संघर्ष, अमानवीयीकरण, मध्यवर्गीय चेतना, एशियाई अस्मिता, शब्दप्रयोग, बिम्ब आदि पर विचार है। इसके अतिरिक्त अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, गजानन माधव मुक्तिबोध, त्रिलोचन, कुँवर नारायण, विजय देव नारायण साही, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, धूमिल, कमलेश और विनोद कुमार शुक्ल की कविता का विश्लेषण है।</p>
<p>हमारा विश्वास है कि यह सामग्री और इसके लेखक पिछले एक दशक में इस क्षेत्र में जो गम्भीर और विचारोत्तेजक हुआ है, उसमें शामिल हैं। उनके माध्यम से हमारी कविता की समझ और कवियों के संघर्ष की हमारी पहचान और परख गहरी होती है। हम उन अकारथ हो रहे पदों और अवधारणाओं से मुक्त होकर, जिनसे आज की ज़्यादातर आलोचना ग्रस्त है, नई ताज़गी और विचारोत्तेजना से अपने समय की मूल्यवान कविता, उसकी अपने समाज में जगह और शब्द के विराट् अवमूल्यन के इस क्रूर समय में कविता की भाषा के अनेकार्थी और बहु-स्तरीय जीवट और संघर्ष को समझ सकते हैं। यह आलोचना कविता के साथ है...उससे युगपत है। जैसे हमारी कविता में जीवन, अनुभव और भाषा को समझने और विन्यस्त करने के अनेक स्तर और प्रक्रियाएँ हैं, हमारी आलोचना में भी कविता और उसके माध्यम से अपने समय और उसकी उलझनों तक पहुँचने और उन्हें परिप्रेक्ष्य देने के अनेक स्तर और दृष्टियाँ सक्रिय हैं। जैसे कि कविता में वैसे ही, सौभाग्य से, आलोचना में रुचि और दृष्टि का प्रजातंत्र है।</p>
<p>हम इस प्रसन्न विश्वास के साथ यह संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं कि यहाँ एकत्र आलोचना कवितादर्शी और जीवनदर्शी है : अख़बारी सतहीपन और सनसनीखेजी, वैचारिक एकरसता के आत्मतुष्ट समय में वह हमें अपनी सूक्ष्मता और जटिलता से विचलित कर कविता की अर्थसमृद्ध और गहरी समझ की ओर ले जाने में समर्थ आलोचना है।</p>
<p>—भमिका से
ISBN: 9788171191161
Pages: 302
Avg Reading Time: 10 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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साहित्य का कोई काल-खंड अपने आप में स्वतन्त्र इकाई नहीं होता, उसका एक परिवर्तनमान नैरन्तर्य होता है, परम्परा होती है। रीतिकाल की मुख्यधारा पर, विशेषतः जिसे रीतिबद्ध कहा जाता है, आचार्य शुक्ल ने तीखी टिप्पणियाँ जड़ी हैं। शुक्लजी की देखा-देखी उनके आलोचकों ने उसे प्रतिक्रियावादी साहित्य की संज्ञा से अभिहित किया। कुछ अन्य लोगों ने उसकी प्रतिरक्षा में दलीलें खड़ी कीं। इसका फल यह हुआ कि रीतिकाव्य- रीतिमुक्त काव्य का चित्र धुंधलके से ढंक गया। यदि इसे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा देशभाषा-काव्य (भक्तिकाव्य) की परम्परा में देखा गया होता, आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से परखा गया होता, सामन्ती परिवेश के अन्तर्विरोध के परिप्रेक्ष्य में, लक्षित किया गया होता तो इस काल के क्लासिक का मूल्यांकन अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता। कहना न होगा कि इस काल को इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की गयी है।
बदले हुए सामन्ती परिवेश में कविता का लक्ष्य ही बदल गया था। एक समय था, जब कहा गया–‘कीन्हे प्राकृतजन गुनगाना सिर धुन गिरा लागि पछताना।’ ‘सन्तन को कहाँ सीकरी सों काम आवत-जात पनहियाँ टूटीं बिसरि गयो हरिनाम।’ एक समय आया, जब कहा जाने लगा–‘हुकुम पाइ जयसाहि कै...।’ ‘ठाकुर सो कवि भावत मोंहि जो राजसभा में बड़प्पन पावै / पंडित और प्रवीनन को जोइ चित्त हरै सो कवित्त बनावै।’ इस चित्तवृत्ति का प्रभाव कविता पर पड़ना ही पड़ना था। लेकिन इन कविताओं में प्रेम का उदात्त और अनुदात्त, दोनों प्रकार का चित्रण है। इसकी परम्परा सूर के काव्य में ही मिल जाती है। प्रेम के प्रति जैसी बेचैनी घनानन्द, ठाकुर, बोधा में मिलती है, वैसी बेचैनी, मीरा को छोड़, समस्त भक्ति-काव्य में नहीं मिलेगी। सामाजिक नैतिकता, छद्म, अस्पृश्यता, आदि पर भी इसमें पहली बार प्रकाश डाला गया है।
बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों, विशेषणों, शब्दार्थ के बदलावों के सन्दर्भ में भी प्रेम के विरोधात्मक आयामों को विवेचित किया गया है। वेश-भूषा भी प्रेम की भाषा है। इस पर अलग से विचार किया गया है। लोक में प्रचलित तीज- त्योहार, ऋतु-उत्सव, आदि जितने मनोयोगपूर्वक इस काल की कविताओं में वर्णित हैं, अन्यत्र नहीं मिलेंगे। आधुनिक काव्य में लोकोत्सव-चित्रण की निरन्तर कमी होती जा रही है। रीतिकालीन काव्य से बहुत कुछ छोड़ा जा सकता है तो बहुत कुछ सीखा भी जा सकता है।
Kaalyatri Hai Kavita
- Author Name:
Prabhakar Shrotriya
- Book Type:

- Description: सुपरिचित आलोचक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय द्वारा हिन्दी कविता की यह काल-यात्रा विशेष महत्त्व रखती है। कोई रचना इतिहास के दौर में क्या रूप लेती है और मानवीय संवेदन की अन्तर्धारा उसमें किन माध्यमों से परिचालित होती है, इसकी प्रामाणिक और गहरी समझ डॉ. श्रोत्रिय को थी। अक्सर इतिहास के कालबोध की परवर्ती दृष्टि के दौर में लोग अतीत की परिस्थितियों और कवि-सीमाओं को उपेक्षित कर जाते हैं। इस पुस्तक में ऐसा आवश्यक लचीलापन है, जिससे यह अतीत को जहाँ आधुनिकता की सार्थकता में देख सकी है, वहीं युग और कवि सीमा को भी संवेदित परकाय-प्रवेश की भाँति अपने मौलिक स्वरूप में प्रतिष्ठित कर सकी है। इससे कविता इतिवृत्त नहीं रहती, बल्कि वह आगामी काल-प्रवाह में सक्रिय और प्रेरक साझीदार प्रतीत होती है। अपने समय की नवीनतम काव्य-प्रवृत्तियों को भी लेखक ने गहराई से पकड़ा है, तभी वह आदिकाल से लेकर सातवें, आठवें और नवें दशक तक के विभिन्न कविता-दौरों पर समान रूप से विचार कर सका है। यही नहीं, इस संस्करण के लिए पुस्तक को संशोधित करते हुए डॉ. श्रोत्रिय ने दो नए अध्याय भी जोड़े थे। इनमें से एक है ‘भारतीय साहित्य की परम्परा’ और दूसरा, ‘नवाँ दशक : बदलाव की नई पहल’। लम्बी कविता और हिन्दी-नवगीत पर पहले से ही दो अध्याय पुस्तक में हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि डॉ. श्रोत्रिय की यह आलोचना-कृति हिन्दी कविता का एक व्यापक और मूल्यवान अध्ययन है और मनुष्यता के चिर उपेक्षित हिस्से की पीड़ाओं को काव्य-साहित्य की प्रमुख मानवीय चिन्ताओं में शामिल करने का आग्रह करती है।
Hindu-Muslim Rishton Ke Bahane
- Author Name:
Rama Kant Roy
- Book Type:

- Description: ‘हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों के बहाने : राही के उपन्यास’ पुस्तक में न सिर्फ़ हिन्दू-मुसलमान सम्बन्ध को गहराई और व्यवस्थित तरीक़े से विवेचित किया गया है, अपितु हिन्दी उपन्यासों में आए ऐसे सम्बन्धों को बहुत सजगता से प्रस्तुत किया गया है। किताब साझी-संस्कृति के मुखर पैरोकार राही मासूम रज़ा के उपन्यासों पर आत्मिक तरीक़े से विवेचन करती है। राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘समय’ का दस्तावेज़ है। ‘समय’ के इस दस्तावेज़ में हिन्दू-मुसलमान सम्बन्ध सबसे ज्वलन्त पहलू है। रमाकांत राय की यह किताब राही मासूम रज़ा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सबसे प्रामाणिक किताब है।
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